सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक को अमृतलाल नागर की रचना ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ बहुत अच्छी लगती थी. ये बात खुद उन्होंने एक मुलाकात में बताई थी. अमृतलाल नागर की रचनाएं अपनी तमाम खूबियों की वजह से बहुत सारे लोगों को बेहद पसंद हैं, लेकिन ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ कुछ खास कारणों से बिंदेश्वर पाठक को पसंद थी. ये कहानी उसी समुदाय के आस पास घूमती थी, जिसके कल्याण के लिए वे काम कर रहे थे. सुलभ इंटरनेशनल को हमारी पीढ़ी के लोग भले किसी सुविधा वाली जगह के तौर पर जानते देखते हों, लेकिन इसकी स्थापना उन्होंने गांधीजी के विचारों से प्रेरित हो कर की थी. उनका मकसद मैला ढोने की कुरीति को समाप्त करना भी था. कई बार उन्होंने इसका जिक्र भी किया है. साथ ही दिल्ली में मुझसे (इस लेखक से) मिलने पर भी उन्होंने अपने संकल्प का जिक्र किया था.
आजादी के पहले 1943 में जन्में बिदेंश्वर पाठक ने संडास का दौर देखा था. उस समय कस्बों और शहरों समेत गांवों में भी तमाम संभ्रांत लोगों में घरों में ऐसे टॉयलेट्स होते थे, जिनसे एक समुदाय विशेष के लोग मल निकल कर ढोकर ले जाते थे. महात्मा गांधी ने आजादी के आंदोलन के दौर से ही इसका विरोध किया था. उन्होंने संकल्पपूर्वक अपने लिए और साथ रहने वालों के लिए ये नियम बना दिया था कि अपने मैले की सफाई खुद ही करनी होगी. मैला ढोने की प्रक्रिया पर वे पूरी तरह रोक लगाने का प्रयास करते रहे. लेकिन दुर्भाग्य ये रहा कि ये प्रथा अभी दो दशक पहले तक बहुत सारी जगहों पर दिखती थी. यहां तक अंगरेजों के प्रिय रहे शहर इलाहाबाद के दारागंज या इस तरह के दूसरे मोहल्लों में मैंने खुद नौवे दशक में भी ऐसे संडास देखे थे. दरअसल, गंगा–जमुना किनारे के इन मोहल्लों की बसाई ही ऐसी थी कि वहां सीवर लाए नहीं जा सकते थे और टैंक बनाए नहीं जा सकते थे. तंग गलियां बिना घरों को तोड़े इसकी जगह नहीं दे सकती थी. खैर कहना ये है कि निश्चित तौर पर सुलभ के संस्थापक पाठक ने मैला ढोने की रीति को देखा होगा.
बात बिंदेश्वर पाठक से मुलाकात और अमृतलाल नागर की पुस्तक की चल रही थी. इस किताब की कथा मैला ढोने और बैंड बजाने का काम करने वाले एक सुदर्शन युवक और एक ब्राह्मणी स्त्री के प्रेम से शुरु होती है. महिला प्रेम में पड़ कर अपने पति को छोड़ कर युवक के साथ जा कर शादी कर लेती है. इस तरह से संभ्रांत मोहल्ले से शुरू हुई कहानी खुद-ब-खुद मेहतर बस्ती में चली आती है. वहां की समस्याओं का ऐसा सजीव चित्रण अमृतलाल नागर ने किया है कि लगता है कि कहानी न लिख कर यथार्थ को ही शब्दों से सजा भर दिया है. शिल्प के साथ. ये भी ध्यान रखने वाली बात है कि नागर जी ने इसके लिए इन बस्तियों में जाकर वहां के पुरुषों- स्त्रियों से बातचीत की थी. उनके बारे में बहुत सारा शोध किया था और जानकारी एकत्र की थी.
कहानी के इस हिस्से से बिंदेश्वर पाठक बहुत अधिक जुड़े थे. उन्होंने बताया था कि कैसे उन्होंने अपने आस-पास की दुनिया में ये सब कुछ देखा था. कैसे उन्होंने उन लोगों की पीड़ा को महसूस किया था. 60 के दशक के अंतिम दौर में उन्होंने बिहार सरकार की ओर से गांधी शताब्दी वर्ष में दलितों के लिए काम करते हुए जो कुछ देखा उससे प्रेरित हो कर सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना कर दी.
समय के साथ ये शौचालय बड़े शहरों में बहुत अधिक सुविधा का केंद्र बन गए. शहरों में लोगों को यहां शौच और स्नान की सुविधा मिलने लगी तो इसका विस्तार होता गया. वैसे भी अस्सी या कहा जाय नब्बे के दशक तक लोगों के लिए कहीं जाने पर होटल किराए पर लेना कठिन होता था. न तो लोगों को इसकी आदत पड़ी थी, न ही, नौकरी के लिए इंटरव्यू देने या ऐसे ही किसी काम से जाने वाले, नौजवानों के पास होटलों में देने के लिए पैसे थे. उन्हें सुलभ इंटरनेशनल के शौचालयों से बहुत बड़ी सुविधा मिली. स्टेशन से आस-पास के किसी सुलभ कांप्लेक्स में ये सब कुछ नाम मात्र के चार्ज पर मिल जाता था.
इसके बढ़ने के साथ बिंदेश्वर पाठक का ‘सुलभ’ रोजगार का भी एक बड़ा जरिया बन गया. उनके अपने इलाके के बहुत सारे लोगों को इससे रोजगार मिला. दरअसल उस शौचालय में दो हिस्से होते थे. एक ऑफिसनुमा जगह और दूसरा स्नान और शौच का स्थान. ऑफिसनुमा जगह में केयरटेकर वगैरह रहते थे. बड़े शहरों में तो बहुत सारे सुलभ कांप्लेक्स होने के कारण इन केयरटेकरों की संख्या भी अच्छी खासी होती थी और एक ही क्षेत्र के होने के कारण उनके मिलने जुलने की जगह भी यही सुलभ होता था.
सुलभ के जरिए बिंदेश्वर पाठक ने स्वच्छता का एक बहुत ही सार्थक और अभिनव अभियान चलाया. इससे मैला ढोने वाले समुदाय को भी लाभ हुआ. ये अलग बात है कि अभी भी जहां-तहां रिपोर्ट आती रहती है कि मैला ढोने की प्रथा भारत में है. दूसरा लाभ उन लोगों को हुआ जो इस सुविधा का प्रयोग करते हैं.
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FIRST PUBLISHED : August 16, 2023, 13:33 IST