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आलोक धन्वा की मशहूर कविता- ‘गोली दागो पोस्टर’

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आलोक धन्वा की मशहूर कविता- ‘गोली दागो पोस्टर’

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बहुत कम लिखकर भी आलोक धन्वा बहुत मशहूर हुए हैं. उनका एक मात्र कविता संग्रह ‘दुनिया रोज बनती है’ छपकर आया है. उनकी कविताएं ‘गोली दागो पोस्टर’, ‘जनता का आदमी’, ‘भागी हुई लड़कियां’, ‘ब्रूनो की बेटियां’, ‘कपड़े के जूते’ और ‘सफेद रात’ काफी चर्चित रही हैं.

आलोक धन्वा की कविता ‘गोली दागो पोस्टर’ और ‘जनता का आदमी’ उस समय लिखी गईं जब देश में वामपंथी आंदोलन चरम पर था. उनकी ये कविताएं वामपंथी सांस्कृति आंदोलन की मशाल बनीं. प्रस्तुत है आलोक धन्वा की कविता- गोली दागो पोस्टर-

यह उन्नीस सौ बहत्तर की बीस अप्रैल है या
किसी पेशेवर हत्यारे का दायां हाथ या किसी जासूस
का चमडे़ का दस्ताना या किसी हमलावर की दूरबीन पर
टिका हुआ धब्बा है
जो भी हो-इसे मैं केवल एक दिन नहीं कह सकता!

जहां मैं लिख रहा हूं
यह बहुत पुरानी जगह है
जहां आज भी शब्दों से अधिक तम्बाकू का
इस्तेमाल होता है

आकाश यहां एक सूअर की ऊंचाई भर है
यहां जीभ का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहां आंख का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहां कान का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहां नाक का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है

यहां सिर्फ दांत और पेट हैं
मिट्टी में धंसे हुए हाथ हैं
आदमी कहीं नहीं है
केवल एक नीला खोखल है
जो केवल अनाज मांगता रहता है-

एक मूसलधार बारिश से
दूसरी मूसलाधार बारिश तक

यह औरत मेरी मां है या
पांच फ़ीट लोहे की एक छड़
जिस पर दो सूखी रोटियां लटक रही हैं-
मरी हुई चिड़ियों की तरह
अब मेरी बेटी और मेरी हड़ताल में
बाल भर भी फर्क नहीं रह गया है
जबकि संविधान अपनी शर्तों पर
मेरी हड़ताल और मेरी बेटी को
तोड़ता जा रहा है

क्या इस आकस्मिक चुनाव के बाद
मुझे बारूद के बारे में
सोचना बंद कर देना चाहिए?
क्या उन्नीस सौ बहत्तर की इस बीस अप्रैल को
मैं अपने बच्चे के साथ
एक पिता की तरह रह सकता हूं?
स्याही से भरी दवात की तरह-
एक गेंद की तरह
क्या मैं अपने बच्चों के साथ
एक घास भरे मैदान की तरह रह सकता हूं?

वे लोग अगर अपनी कविता में मुझे
कभी ले भी जाते हैं तो
मेरी आंखों पर पट्टियां बांधकर
मेरा इस्तेमाल करते हैं और फिर मुझे
सीमा से बाहर लाकर छोड़ देते हैं
वे मुझे राजधानी तक कभी नहीं पहुंचने देते हैं
मैं तो ज़िला-शहर तक आते-आते जकड़ लिया जाता हूं!

सरकार ने नहीं- इस देश की सबसे
सस्ती सिगरेट ने मेरा साथ दिया

बहन के पैरों के आस-पास
पीले रेंड़ के पौधों की तरह
उगा था जो मेरा बचपन-
उसे दरोगा का भैंसा चर गया
आदमीयत को जीवित रखने के लिए अगर
एक दरोगा को गोली दागने का अधिकार है
तो मुझे क्यों नहीं ?

जिस जमीन पर
मैं अभी बैठकर लिख रहा हूं
जिस जमीन पर मैं चलता हूं
जिस जमीन को मैं जोतता हूं
जिस जमीन में बीज बोता हूं और
जिस जमीन से अन्न निकालकर मैं
गोदामों तक ढोता हूं
उस जमीन के लिए गोली दागने का अधिकार
मुझे है या उन दोगले जमींदारों को जो पूरे देश को
सूदख़ोर का कुत्ता बना देना चाहते हैं

यह कविता नहीं है
यह गोली दागने की समझ है
जो तमाम कलम चलानेवालों को
तमाम हल चलानेवालों से मिल रही है।

आलोक धन्वा को उनकी कविताओं के लिए ‘नागार्जुन सम्मान’, ‘फिराक गोरखपुरी सम्मान’, ‘गिरिजा कुमार माथुर सम्मान’ और ‘भवानी प्रसाद मिश्र स्मृति सम्मान’ आदि से पुरस्कृत किया जा चुका है.

Tags: Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Literature

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