Friday, November 22, 2024
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एक देश-एक चुनाव पर इतना जोर क्यों दे रही मोदी सरकार? इसके फायदे और चुनौतियां, समझिए सबकुछ


One Nation One Election: पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के नेतृत्व वाली एक समिति ने 14 मार्च को ‘एक देश, एक चुनाव’ अभियान पर रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी है। इस रिपोर्ट का लब्बो-लुआब इसी से समझ लीजिए कि इसमें लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का प्रस्ताव रखा गया है। मामले की जानकारी रखने वालों का कहना है कि देश के राज्यों के अलग-अलग भौगोलिक और सांस्कृतिक अंतर के अलावा भी ऐसी कई मुश्किलें हैं जो इसे जटिल बनाती हैं। हालांकि इससे उलट मोदी सरकार एक देश-एक चुनाव पर जोर दे रही है। इसके पीछे की वजह क्या है? 

पिछले साल सितंबर महीने में गठित पैनल ने इतने महीनों में रिपोर्ट बनाने को लेकर तमाम अध्ययन किए हैं। कई देशों में चल रहे इस तरह के नियमों का अध्ययन किया है। 39 राजनीतिक दलों, अर्थशास्त्रियों और भारत के चुनाव आयोग से परामर्श लिया। गुरुवार को राष्ट्रपति के हवाले करते हुए पैनल ने आज कहा कि वह एक देश, एक चुनाव वाले विचार का समर्थन करता है, लेकिन इसके लिए एक कानूनी रूप से टिकाऊ मजबूत तंत्र की मांग करता है जो मौजूदा चुनावी चक्रों से बाहर निकले और फिर से उसे संरेखित करे।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपी गई रिपोर्ट में समिति की सर्वसम्मत राय है कि एक साथ चुनाव होने चाहिए। साथ ही यह भी कहा गया है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव के 100 दिन बाद स्थानीय निकाय चुनाव भी एक साथ कराए जा सकते हैं। ‘एक देश, एक चुनाव’ प्रस्ताव 2019 में भाजपा के घोषणापत्र का हिस्सा था, लेकिन विपक्ष ने इसकी भारी आलोचना की थी। विपक्ष ने उस वक्त भी इसे संवैधानिक मुद्दों के खिलाफ बताया था।

एक देश-एक चुनाव क्या है?

सरल शब्दों में कहें तो इसका मतलब है कि लोकसभा और सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ होने चाहिए। केंद्रीय और राज्यों के प्रतिनिधियों को चुनने के लिए यदि एक ही समय पर मतदान नहीं हो पा रहा है तो कम से कम एक ही वर्ष में तो होने ही चाहिए। 

इस साल कई राज्यों में भी चुनाव

इस साल कुछ ऐसे राज्य भी हैं, जहां रहने वाले लोग देश की नई सरकार के साथ अपने राज्यों की भी नई सरकारों के लिए मतदान करेंगे। आंध्र प्रदेश, सिक्किम और ओडिशा में अप्रैल/मई में लोकसभा चुनाव के साथ ही मतदान हो सकता है। वहीं, महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में इस साल के अंत में मतदान होगा। इसके अलावा, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करने पर सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश के तहत छह साल में यहां 30 सितंबर से पहले विधानसभा चुनाव कराना जरूरी है।

एक देश- एक चुनाव में चुनौतियां क्या हैं

भारत के आकार और क्षेत्रों के बीच भौगौलिक और सांस्कृतिक अंतर को देखते हुए एक देश-एक चुनाव को जमीन पर लागू करना बड़ी चुनौती है। चुनावी चक्रों में फेरबदल और राज्यों में समन्वयन के लिए कई चुनौतियां हैं। इसमें प्रमुख रूप से वित्तीय, संवैधानिक, कानूनी और यहां तक ​​कि व्यावहारिक मुश्किलें भी शामिल हैं। एक देश-एक चुनाव में बड़ी चुनौती यह भी है कि यदि कोई राज्य, या केंद्र सरकार सदन में अविश्वास प्रस्ताव के बाद अयोग्य हो जाती है या अपना कार्यकाल समाप्त होने से पहले भंग हो जाती है तो क्या किया जाए। ऐसे में केंद्र के साथ अन्य सभी राज्यों में नए सिरे से चुनाव कराने का आदेश देना संभव हो पाएगा?

इसके अलावा कानून की जानकारी रखने वालों का यह मानना है कि ऐसा करने में अगर सफलता नहीं मिली और संविधान के पांच अनुच्छेदों में संशोधन करके प्रस्ताव को जमीन पर उतार दिया गया तो यह देश के संघीय ढांचे का खुला उल्लंघन हो सकता है। ये पांच अनुच्छेद हैं- अनुच्छेद 83 (संसद का कार्यकाल), अनुच्छेद 85 (राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा का विघटन), अनुच्छेद 172 (राज्य विधानमंडलों का कार्यकाल), अनुच्छेद 174 (राज्य विधानमंडलों का विघटन) और अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति का कार्यकाल)।

सरकार एक देश-एक चुनाव पर इतना जोर क्यों दे रही है?

पिछले साल, राम नाथ कोविंद के नेतृत्व वाले पैनल की घोषणा से पहले केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने सरकार की तरफ से कुछ तर्क रखे थे। मेघवाल ने संसद को बताया था कि एक साथ चुनाव कराने से वित्तीय बचत हो सकती है। उन्होंने कहा था कि अलग-अलग चुनावों में कई बार चुनाव अधिकारियों और सुरक्षा बलों की तैनाती की जाती है। इससे न सिर्फ बेफिजूल खर्चा होता है, अधिकारियों और सुरक्षा बलों की बार-बार इधर-उधर तैनाती से उन पर मानसिक और शारिरिक दबाव भी पड़ता है। सरकार के खजाने और राजनीतिक दलों के अभियानों पर होने वाले खर्चे को कम करने के लिए एक देश एक चुनाव कराना जरूरी है।

सरकार को उम्मीदें

मेघवाल ने आगे कहा कि चुनावों के कारण बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू की जाती है। जिसकी वजह से लागू होने वाली कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन प्रभावित होता है। इससे केंद्र ही नहीं राज्य सरकारें भी अछूती नहीं हैं। सरकार को उम्मीद है कि एक बार के चुनाव से मतदान प्रतिशत में भी सुधार होगा। 



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