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भारत के अंदर खुफिया जानकारी जुटाकर राष्ट्रविरोधी तत्वों के इरादों को नाकाम करने वाली सबसे बड़ी गुप्तचर संस्था, आईबी की कमान जब पिछले साल जून में तपन डेका को देने की घोषणा की गई थी, तो सबका ध्यान इस बात पर गया था कि मोदी सरकार ने आखिर क्यों वरीयता क्रम में पांचवें नंबर पर रहने वाले डेका को उस डीआईबी की कुर्सी पर बिठाने का फैसला किया है, जो सैद्धांतिक तौर पर देश का सबसे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी माना जाता है, एक मात्र पुलिस अधिकारी, जिसे अपनी कार पर चार सितारे लगाने का वैधानिक हक है.
कुछ ही दिनों के अंदर लोगों को ध्यान में आया कि 1988 बैच के IPS अधिकारी डेका को अपने ही बैच के चार साथी अधिकारियों, जो उम्र और वरीयता क्रम में उनसे ऊपर थे, इसलिए तरजीह मिली क्योंकि मोदी सरकार आईबी का बुनियादी मिजाज बदलना चाहती थी. प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की सोच ये थी कि भारत की सबसे प्रीमियर एजेंसी, आईबी को पॉलिटिकल मैनेजमेंट और सियासी सूचनाएं जुटाने से ज्यादा ऑपरेशंस पर ध्यान देने की जरूरत है, ताकि राष्ट्रविरोधी तत्वों के नापाक इरादों को समय रहते नाकाम किया जा सके, आतंकियों और नक्सलियों का सफाया किया जा सके, जो देश को कमजोर करने की साजिश लगातार रच रहे हैं.
आईबी के बारे में मशहूर था कि वो अपने आलमारी में हर किस्म के लोगों को सजाकर रखती थी, सरकार की जरूरत के मुताबिक उनको आगे कर देती थी. कश्मीर के मामले में ये बात खास तौर पर कही जाती थी, जहां ज्यादातर राजनीतिक धड़ों और पार्टियों के अंदर आईबी की पैठ थी, हुर्रियत तक. सबका ध्यान रखती थी आईबी. इरादा ये था कि कश्मीर में शांति बनाए रखने के लिए जरूरत के हिसाब से समय-समय पर इनका इस्तेमाल किया जा सके.
लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह की सोच केंद्र में सत्ता में पहले बैठी रही पार्टियों और नेताओं की स्थापित राजनीतिक सोच से अलग रही है. ये दोनों शांति खरीदने में आस्था नहीं रखते, बल्कि उसे प्रस्थापित करने में आस्था रखते हैं. मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में इस सोच के हिसाब से लगातार काम किया. यही वजह थी कि आम तौर पर देश की दोनों प्रीमियर एजेंसियों के प्रमुख का कामकाज दो साल का होता है, लेकिन रिजल्ट के हिसाब से दोनों प्रमुखों को सेवा विस्तार दिया गया. आईबी के 27वें प्रमुख रहे अरविंद कुमार, दो की जगह तीन साल तक अपने पद पर बने रहे, तो रॉ प्रमुख सामंत गोयल चार वर्ष तक.
अरविंद कुमार और सामंत गोयल दोनों ही 1984 बैच के आईपीएस अधिकारी थे. इन दोनों की जगह आईबी और रॉ के दोनों प्रमुख भी एक ही बैच के हो गये हैं, तपन डेका की तरह रवि सिन्हा भी 1988 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं. दोनों की ख्याति भी खुफिया जगत में एक ही तरह की है, ऑपरेशंस के हार्डकोर अधिकारी के तौर पर.
रवि सिन्हा की तस्वीरें भी शायद ही पहले कभी मीडिया में नजर आई हैं, आखिर रॉ के अधिकारी, जूनियर से सीनियर तक, अंडर कवर रहना पसंद करते हैं, मीडिया और समाज की लाइमलाइट से दूर, चुपचाप अपने मिशन को अंजाम देते हुए. हालांकि किसी भी नये रॉ चीफ पर देश-दुनिया की नजर होती है, जाहिर है रवि सिन्हा की सेक्रेटरी आर के तौर पर नियुक्ति होते ही दुनिया भर की इंटेलिजेंस एजेंसियों का ध्यान इनकी तरफ जाएगा. रॉ प्रमुख का पद आधिकारिक तौर पर सेक्रेटरी आर के तौर पर जाना जाता है, जिसे कैबिनेट सेक्रेटेरियट का हिस्सा माना जाता है, लेकिन उसका काम केंद्रीय सचिवालय में बैठकर कलम घिसने की जगह दुनिया भर में भारतीय हितों की सुरक्षा के लिहाज से खुफिया नेटवर्क स्थापित करना, उसे असरदार ढंग से चलाना और खुफिया मिशनों को अंजाम देना है, जिसमें बड़े उपद्रवियों और आतंकियों का खात्मा तक शामिल है.
इसका अंदाजा इस बात से लग जाता है कि जिस तरह से भारत में होने वाली हर आतंकी गतिविधि या हमले पर पहला शक पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की तरफ जाता है, वैसे ही पाकिस्तान में किसी भी बड़े आतंकी का चुपचाप सफाया होने पर सीधा आरोप रॉ पर लगता है. पाकिस्तान में रॉ से खौफ खाने का आलम ये है कि भारत की इस विदेशी खुफिया एजेंसी पर भारत से ज्यादा पाकिस्तान में किताबें लिखी गई हैं.
रॉ ने 21 सितंबर 1968 को अपने जन्म के बाद से ही लगातार इंटेलीजेंस की दुनिया में अपना मुकाम मजबूत किया है. रॉ के पहले प्रमुख के तौर पर रामेश्वर नाथ काव ने जिस संस्था को खासा असरदार बनाया, उसे और ऊंचाइयों पर ले जाने की जिम्मेदारी 24वें प्रमुख के तौर पर अब रवि सिन्हा के कंधों पर हैं. काव हमेशा पर्दे के पीछे रहकर अपना काम करते थे, सिन्हा के बारे में भी यही मशहूर है. 1968 में स्थापना से लेकर 1977 तक रॉ के प्रमुख रहे काव की इक्का-दुक्का तस्वीरें ही मौजूद हैं, सिन्हा का भी यही हाल है.
रिकॉर्ड के तौर पर, रवि सिन्हा बिहार के भोजपुर जिले से आते हैं, वही भोजपुर, जिसका मुख्यालय आरा है, जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख केंद्रों में से एक था, जो मशहूर स्वतंत्रता सेनानी वीर कुंवर सिंह की धरती के तौर पर भी मशूहर है. भोजपुर से ही भोजपुरी नाम भी उस भाषा को मिला है, जो न सिर्फ यूपी और बिहार की प्रमुख भाषाओं में से एक है, बल्कि जिसका जलवा भारतीय फिल्मों और गानों से आगे बढ़कर दुनिया के तीन दर्जन से भी अधिक देशों में है, सुदूर फिजी से लेकर मॉरीशस और सूरीनाम तक, जहां की प्रमुख भाषा है ये.
खांटी भोजपुरी पृष्ठभूमि से आने वाले सिन्हा शिक्षा की दृष्टि से देश के सबसे अभिजात्य और मशहूर कॉलेजों में से एक, दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज के छात्र रहे हैं. सेंट स्टीफेंस से पढ़ाई करने वाले रवि सिन्हा ने 1988 में यूपीएससी की परीक्षा पास की और इन्हें भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी के तौर पर मध्य प्रदेश काडर मिला. वर्ष 2000 में तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने जब मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों को काटकर छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण किया, तो सिन्हा तकनीकी तौर पर छत्तीसगढ़ काडर में चले गये, लेकिन राज्य की स्थापना के महज कुछ महीनों के अंदर वो दिल्ली में केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर आ गये, भारत की विदेशी खुफिया एजेंसी रॉ के अधिकारी के तौर पर.
एसपी के तौर पर छत्तीसगढ़ से दिल्ली आये सिन्हा अब रॉ के अंदर ही लगातार बाइस साल तक काम करते हुए डीजीपी श्रेणी तक के प्रमोशन के बाद अब आधिकारिक तौर पर सेक्रेटरी आर के तौर पर इसके प्रमुख बन चुके हैं. इस खुफिया एजेंसी में हर स्तर पर और हर प्रमुख विभाग में काम करने का अनुभव है इन्हें. वरीयता की दृष्टि से भी रॉ के अंदर नंबर एक रहे सिन्हा की नियुक्ति महज उनकी सीनियोरिटी को ध्यान में रखते हुए नहीं की गई है, बल्कि ऑपरेशंस में उनकी मास्टरी को देखते हुए की गई है. वैसे ही जैसे तपन डेका की आईबी प्रमुख के तौर पर नियुक्ति की गई थी, उनकी ऑपरेशंस में मास्टरी को देखते हुए.
जब खुफिया एजेंसियों के अंदर ऑपरेशंस की बात की जाती है, तो ये उनका सबसे महत्वपूर्ण कामकाज माना जाता है. ऑपरेशंस यानी किसी मिशन या टार्गेट के बारे में लगातार जानकारी जुटाते हुए उसको अंजाम तक पहुंचाना. इसकी शुरुआत रॉ की स्थापना के साथ ही हो गई थी. भले ही इस संस्था का पूरा नाम रिसर्च एंड एनालिसिस विंग है, लेकिन ये सिर्फ किताब और कंप्यूटर पर माथा भिड़ाकर अपना काम नहीं करती, बल्कि ह्यूमन और टेक्निकल, दोनों किस्म के इंटेलिजेंस का सहारा लेकर बड़े- बड़े मिशनों को अंजाम देती है.
यही बात इस संस्था के प्रमुख के आधिकारिक पद के साथ भी है, भले ही पदनाम सेक्रेटरी आर हो, यानी सेक्रेटरी रिसर्च, लेकिन इसके प्रमुख के कामकाज का दायरा रिसर्च से काफी आगे, दुनिया भर में संस्था की गतिविधियों को विस्तार देते हुए, भारत के हित में बड़े- बड़े मिशनों, ऑपरेशंस को अंजाम देना है. अपनी स्थापना के महज तीन साल के अंदर बांग्लादेश की स्थापना में बड़ी भूमिका निभाने वाली ये संस्था आज के दौर में पड़ोसी देशों, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, चीन और श्रीलंका में देशहित में बड़े- बड़े काम कर रही है, बिना श्रेय लिये. पाकिस्तान के अंदर पनाह लेने वाले देश के दुश्मनों को उनके अंतिम अंजाम तक ले जाने में बड़ी भूमिका निभाने से लेकर बालाकोट जैसे बड़े सैन्य अभियानों में भी इसने खास भूमिका निभाई है.
जाहिर है, रॉ ने पिछले पचपन सालों में बड़ा रास्ता तय किया है. इस संस्था की आवश्यकता 1962 के भारत- चीन युद्ध के समय महसूस की गई थी, जब केंद्रीय खुफिया ब्यूरो यानी आईबी चीन के नापाक इरादों और तैयारियों के बारे में समय रहते सचेत नहीं कर पाई थी. ऐसा नहीं था कि उस समय आईबी का जाल देश के बाहर नहीं था. सच्चाई ये है कि 1947 में आजादी के बाद आईबी के पहले डायरेक्टर बने संजीवी पिल्लई ने ही पाकिस्तान, जर्मनी और फ्रांस जैसे महत्वपूर्ण देशों के भारतीय दूतावासों में आईबी अधिकारियों को रखे जाने की अनुमति तत्कालीन नेहरू सरकार से हासिल कर ली थी. बाद के वर्षों में चीन, बर्मा, श्रीलंका और अरब देशों में भी आईबी के अधिकारी भेजे गये.
पिल्लई के बाद आईबी के प्रमुख की कुर्सी संभालने वाले भोला नाथ मल्लिक के जमाने में तो इस संस्था ने विदेश में अपने पांव खूब पसारे. नेहरू के नजदीक और उनके प्रमुख सलाहकारों में से एक रहे मल्लिक के साथ त्रासदी ये रही कि एक तरफ जहां वो नेहरू को पटाकर तत्कालीन नेफा और आज के अरुणाचल प्रदेश में फॉरवर्ड पॉलिसी चलाते रहे, लेकिन चीन की सैन्य तैयारियों के बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं जुटा पाए, आईबी के अपने नेटवर्क के जरिये. मल्लिक के झांसे में रहे नेहरू उनकी फॉरवर्ड पॉलिसी को अपना भरपूर समर्थन देते रहे, जिसके तहत तत्कालीन सैन्य प्रमुख जनरल थिमैया और अन्य वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों की राय के खिलाफ जाकर मल्लिक भारतीय चौकियां उन दुर्गम इलाकों में जाकर स्थापित करते रहे, जहां रशद से लेकर सैनिकों तक के पहुंचने में कई- कई दिन लग जाते थे, जहां पर जाकर लड़ाई लड़ना संभव नहीं था. यहां तक कि नेहरू हिंदी-चीनी भाई-भाई के शुरुआती नशे के बाद मल्लिक की सलाह के मुताबिक चीन की कमजोरी को लेकर इतने आश्वस्त थे कि बिना भारतीय सैन्य कमांडरों की सलाह लिये, अत्यंत गैर जिम्मेदाराना बयान देकर श्रीलंका की उड़ान भर गये, जिसमें उन्होंने कहा था कि भारतीय सेना को आदेश दे दिया गया है कि वो चीनी घुसपैठियों को उखाड़ फेंके.
मल्लिक और नेहरू को न तो चीन के इरादों की खबर थी और न ही उसकी व्यापक तैयारियों की. यही वजह रही कि नेहरू के इस बयान के बाद जब चीन ने अचानक हमला कर दिया, तो भारतीय सेना उसका मुकाबला करने में कामयाब नहीं रही और आजाद भारत के इतिहास में भारतीय सेना को पहली बार हार का सामना करना पड़ा. हालांकि इसका कारण सीमा पर जाकर चीनियों से खराब हथियार और कपड़े के बावजूद पूरी ताकत से मुकाबला करने वाले अधिकारियों और जवानों की जगह, नेहरू की अगुआई वाली राजनीतिक नेतृत्व की लापरवाही रही, जिसने न तो आजादी के बाद भारतीय सेना को हथियार और रशद मुहैया कराए, बल्कि अपने चमचे सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कौल को भारतीय सेना की बागडोर थमाने का इरादा पाले, उस कोर कमांडर की जिम्मेदारी दी, जिसे चीन के हमले का जवाब देना था. जाहिर है, पहले कभी किसी लड़ाई में कोई भूमिका नहीं निभाने वाले कौल को डर के मारे बुखार आ गया और जब कमांडर ही मोर्चे से गायब हो तो जूनियर अधिकारियों और जवानों का क्या हौसला होगा, कल्पना ही की जी सकती है.
1962 में हार के साथ ही चीन की तैयारियों के बारे में खुफिया जानकारी का अभाव सामने आने के बाद एक ऐसी संस्था के निर्माण की जरूरत महसूस हुई, जो खास तौर पर अपना ध्यान विदेश से खुफिया जानकारी हासिल करने, भारत के हिसाब से उसका विश्लेषण करने और फिर जरूरी कदम उठाने का काम करे. 1962 की हार के बाद कृष्ण मेनन के रक्षा मंत्री पद से इस्तीफे के बाद देश के नये रक्षा मंत्री का कामकाज संभालने वाले वाईबी चह्वाण ने इसके लिए सैन्य खुफिया एजेंसी, एमआई के तत्कालीन डायरेक्टर ब्रिगेडियर आर एन बत्रा की अगुआई में एक समिति बनाई, जिसने दुनिया की उन तमाम बड़ी खुफिया एजेंसियों, मसलन सीआईए, एमआई6 के कामकाज का अध्ययन किया और एक विशेष खुफिया एजेंसी विदेशों में कामकाज के लिए कैसे बने, इसका प्रारूप तैयार किया.
चह्वाण ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया, लेकिन तब तक देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बन चुकी थीं, लालबहादुर शास्त्री के देहांत के बाद. ऐसे में रक्षा मंत्रालय के अंदर इस एजेंसी का निर्माण करने की जगह कैबिनेट सेक्रेटेरियट के अंदर इसको रखना तय किया, ताकि देश के अंदर खुफिया जानकारी जुटाने वाली एजेंसी, आईबी की तरह विदेश से खुफिया जानकारी जुटाने वाली इस एजेंसी का भी पूरा नियंत्रण उनके पास रहे. दरअसल सिंडिकेट के उस दौर में अपने बाहरी दुश्मनों से ज्यादा इंदिरा गांधी को अपने आंतरिक दुश्मनों, खास तौर पर पार्टी के क्षत्रपों से बड़ा डर लगता था, जिनसे निबटने के लिए वो पहले से ही आईबी का भरपूर इस्तेमाल कर रही थीं.
तब से लेकर हाल के वर्षों तक आईबी के कामकाज का एक बड़ा हिस्सा तत्कालीन सरकार के हक में पॉलिटिकल मैनेजमेंट और इसके लिए जरूरी कदम उठाने का रहा है. लेकिन मोदी और शाह ने इस स्थिति को तेजी से बदला है. आईबी का कामकाज पिछले कुछ वर्षों में राजनीति के इर्द- गिर्द सिमटे रहने की जगह ऑपरेशंस पर बड़े पैमाने पर केंद्रित हुआ है, जिसका परिणाम ये हुआ है कि देश के अंदर बड़ी आतंकी गतिविधियों को रोक पाने में सरकार सफल रही है. आईबी न सिर्फ देश विरोधी तत्वों के इरादों के बारे में समय रहते जरूरी सूचनाएं पुलिस और सैन्य अधिकारियों से साझा कर रही है, बल्कि ऐसी ताकतों का असरदार ढंग से सफाया भी कर रही है. तपन डेका की पिछले साल आईबी डायरेक्टर के तौर पर हुई नियुक्ति सरकार के इसी इरादे का संकेत है.
रवि सिन्हा की रॉ प्रमुख के तौर पर नियुक्ति के साथ भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने यही संकेत दिया है. आईबी से ही साढ़े पांच दशक पहले अलग होकर बनी इस खुफिया एजेंसी के प्रमुख के तौर पर फिलहाल सिन्हा का कार्यकाल दो साल के लिए तय किया गया है, लेकिन हो सकता है कि अगर सिन्हा नतीजा देते रहें, तो उनका कार्यकाल भी दो की जगह चार साल तक जा सकता है, जैसा सामंत गोयल के साथ हुआ. हाल के दशकों में गोयल पहले ऐसे अधिकारी रहे, जिन्हें रॉ चीफ के तौर पर चार साल तक काम करने का मौका मिला.
गोयल के बाद संस्था की कमान अब सिन्हा के पास है. सिन्हा के पास अनुभव भी है और ऑपरेशंस में मास्टरी भी. आखिर रॉ के अंदर सबसे महत्वपूर्ण डिविजन माने जाने वाले, ऑपरेशंस डिविजन की कमान, जो उनके पास पिछले सात साल से है. अभी तक सामंत गोयल की परछाईं में काम करने वाले सिन्हा के पास मौका होगा अपनी ताकत और क्षमता को खुलकर दिखाने का.
सिन्हा के बारे में मशहूर है कि पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने रॉ के अंदर खुफिया जानकारी जुटाने के लिए आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल तेजी से बढ़ाया है. अब वो जमाना भी नहीं रहा, जहां सिर्फ अपने फील्ड एजेंट या खबरियों के जरिये लगातार बदलती आतंक, अपराध और खुफिया कामकाज की दुनिया में असरदार ढंग से काम किया जा सके. अगर आपको दुश्मन देशों और राष्ट्रविरोधी ताकतों से लोहा लेना है तो तकनीक का जाल बिछाना होगा और इसके सहारे न सिर्फ बड़े मिशनों और ऑपरेशंस को अंजाम देना होगा, बल्कि देश के दुश्मनों के नापाक मंसूबों को नाकाम भी करना होगा.
सिन्हा के पास अनुभव भी है और समय भी. न सिर्फ इस खुफिया एजेंसी के सभी अंगों के कामकाज से वो पूरी तरह वाकिफ हैं, बल्कि भारत की सामरिक और रणनीतिक आवश्यकताओं से जुड़े तमाम क्षेत्रों पर उनकी गहरी पकड़ भी है, अध्ययन भी है. पाकिस्तान, अफगानिस्तान और चीन के हालात से लेकर भारत की आंतरिक चुनौतियों, मसलन जम्मू- कश्मीर और नॉर्थ ईस्ट में अलगाववाद से लेकर नक्सलवाद से निबटने का व्यापक अनुभव भी.
सिन्हा को संसाधनों की कोई कमी नहीं रहने वाली है. मोदी सरकार ने शासन में आने के बाद से न तो खुफिया एजेंसियों के लिए फंड की कोई कमी रहने दी है और न ही जरूरी अधिकारियों की. यही वजह है कि हाल के वर्षों में रॉ के अंदर डीआईजी और आईजी स्तर पर भी बड़े पैमाने पर अधिकारी आए हैं, अगर संस्था को असरदार बनाने के लिए उनकी जरूरत रही है तो. सामंत गोयल के समय में रॉ के अंदर इस ट्रेंड ने जोर पकड़ा है, जहां पहले सिर्फ एसपी स्तर पर ही अधिकारी लिये जाते थे.
अगर अच्छे अधिकारियों और असरदार फील्ड एजेंट के साथ सिन्हा तकनीक के इस्तेमाल को लगातर बढ़ाते जाते हैं, तो ह्यूमन और टेक इंटेलिजेंस का ये गठजोड़ रॉ को और ताकतवर, असरदार बना सकता है, विदेशी ताकतों और आतंकियों से देश के हितों की रक्षा करने में. मोदी सरकार की उम्मीद भी यही है रॉ के नये प्रमुख से और सिन्हा के पास इन उम्मीदों को पूरा करने के लिए जरूरी अनुभव भी है और सामर्थ्य-संसाधन भी. भारतवासी भी खुश होंगे, अगर रॉ दुश्मनों को निबटाने में बड़ी भूमिका निभाए और शर्म के मारे उनको पनाह देने वाले देश नाक कटने की आशंका से कराहें भी नहीं, खुद कोई खुराफात भी न करें.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
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Tags: Intelligence bureau, Narendra modi, Narendra Modi Government
FIRST PUBLISHED : June 19, 2023, 13:56 IST
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