हिंदुस्तान की मशहूर शायरा डॉ. नसीम निकहत का शनिवार को देहांत हो गया. 65 वर्षीय नसीम निकहत को लखनऊ में मल्लिका-ए-जहां के कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-खाक किया गया. उनके निधन से मुशायरे की दुनिया में शोक की लहर है.
जानकारी के मुताबिक, नसीम निकहत कई दिनों से बीमार चल रही थीं. नसीम का पूरा जीवन लखनऊ में ही बीता. वे अपनी बेबाकी शायरी और तीखे व्यंग्य के लिए मशहूर रही हैं.
डॉ. नसीम निकहत ने तकरीबन तीन दशकों तक शायरी की दुनिया में महिलाओं की नुमाइंदगी हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान से बाहर जाकर की. उनकी शायरी में पित्रात्मक समाज में महिलाओं के लिए बनाईं रस्मो-रिवाज पर तीखा तंज होता है-
मेरे लिए ये शर्त, मुझे सावित्री बनकर जीना है
और तुझे इसकी आज़ादी, जिस पर चाहे डोरे डाल।
नसीम निकहत का जन्म उत्तर प्रदेश के बाराबंकवी में 10 जून, 1959 को हुआ था. बताते हैं कि जब वे महज डेढ़ साल की थीं तो उनकी बुआ अपने साथ लखनऊ ले आईं और फिर वहीं उनका पालन-पोषण और तालीम हुई. उनकी बुआ शमीम आरा को भी शेरो-शायरी का शौक था. उन्हें हजारों शेर जुबानी याद थे. वे घर में ही पर्दे के पीछे से शायरी की अन्ताक्षरी में भाग लेती थी. शमीम आरा के इस हुनर का नसीम पर भी बहुत असर हुआ और उनका रुझान भी शायरी की तरफ बढ़ने लगा. महज पंद्रह वर्ष की आयु में नसीम का निकाह लखनऊ के एक बड़े खानदान में हो गया. उनके ससुर डॉ. गौहर लखनवी, अपने समय के जाने-माने शायर थे. सुसराल में उन्हें शायरी करने और तालीम हासिल करने की छूट थी. उनके परिजनों ने ही उन्हें शायरी की दुनिया में आगे बढ़ाया और मुशायरों में भेजना शुरू किया.
नसीम की शायरी में एक औरत की जिन्दगी के फलसफे को साफ महसूस किया जा सकता है-
फिर अजनबी फज़ाओं से जोड़ा गया मुझे
मैं फूल थी सो शाख से तोड़ा गया मुझे
मिट्टी के बर्तनों की तरह सारी जिन्दगी
तोड़ा गया मुझे कभी जोड़ा गया मुझे।
चारदीवारी में कैद रहकर एक औरत घर को परिवार बनाती है, लेकिन मर्द समझते हैं कि वह उसके रहमो-करम पर बसर कर रही है. औरतों के समर्पण, उनकी कु्र्बानी और इस वेदना को नमीस ने बड़ी ही सलीके से रखा है-
मैं उसे ज़िन्दगी सौंप कर उसके आंगन की बांदी रही
मुझको दो रोटियां देके वो ये समझता है रब हो गया।
बच्चियों की गर्भ में हत्या पर उनका दर्द इस तरह छलक उठता है-
हमारे क़ातिल से कोई पूछे, भला हमारा कुसूर क्या है
जो रहमे-मादर में मारते हो ख़ता हमारी हुजूर क्या है।
नसीम निकहत की शायरी में औरत का दर्द तो छलकता है ही साथ ही वे अपनी रचनाओं से मुहब्बत की खुशबू भी बिखेरती हैं-
लोग कहते हैं के ये इश्क का सौदा क्या है
मेरी आंखों ने तेरी ज़ात में देखा क्या है
अब किसी और से दिल मिलता नहीं क्यूं आख़िर
कोई बतलाये के उस शख्स में ऐसा क्या है।
मुशायरों के मंच पर कोई कम दर्जे का शायर भी बहुत जल्द मुकाम हासिल कर लेता है और किसी को हर कदम पर खुद का साबित करना पड़ता है. ऐसे समाज में वर्ग विशेष और व्यक्ति विशेष के बढ़ते कद को लेकर एक समय परवीन शाकीर ने तंज कसा था-
मैं सच कहूंगी मगर फिर भी हार जाऊंगी
वो झूट बोलेगा और ला-जवाब कर देगा।
इस तर्ज पर नसीम निकहत कहती हैं-
शख्सीयत का जब फर्क़ था लफ़्ज भी मेरे बौने हुए
मैं जो बोली वो बेकार था, वो जो बोला अदब हो गया।
डॉ. नसीम निकहत ने अपने शेर और गज़लों को किताब की भी शक्ल दी. ‘धुंआ-धुंआ’, ‘भीगी पलकें’, ‘फूलों का बोझ’ , ‘ख़्वाब देखे ज़माना हुआ’ और ‘मेरा इंतज़ार करना’ उनकी बहुत ही चर्चित किताबें हैं.
समय के साथ-साथ नसीम निकहत की शायरी में भी बदलाव देखने को मिले. एक समय में उनकी शायरी में पीड़ी थी, विद्रोह था तो अब एक तरह का सूफियाना रंग चढ़े लगा था. जिंदगी को जीने और देखने का नजरिया बदला गया था. अपनी एक रचना में वह कहती हैं-
डोर से रिश्तों की वो ऐसा बंधा रह जाएगा
मैं बिछड़ जाऊंगी और वो देखता रह जाएगा
हम चले जाएंगे रौनक कम नहीं होगी मगर
ज़िन्दगी का हर तरफ मेला लगा रह जाएगा
इन चराग़ों की तरह आंखें मेरी बुझ जाएगी
शब् गुज़र जाएगी दरवाज़ा खुला रह जाएगा।
सही में वे हमें असमय छोड़कर चली गईं और हम देखते रह गए. लेकिन उनकी रचनाओं की डोर में हम हमेशा उनसे बंधे रहेंगे.
अम्मा की तरह अब नसीम भी मिट्टी ओढ़ कर सदा के लिए सो गई हैं. लेकिन शायरी की दुनिया में निगाहें उन्हें आने का इंतजार करती रहेंगी-
अम्मा थक कर आंखें मूंदे मिट्टी ओढ़े सोती है
घर आने में देर अगर हो, उसकी तरह घबराए कौन।
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Tags: Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Literature
FIRST PUBLISHED : April 30, 2023, 10:35 IST