Home National क्या सौ साल की उम्र ‘पिताजी’ के लिए वाकई अभिशाप बन गई! पढ़ें ‘पल भर शेष’

क्या सौ साल की उम्र ‘पिताजी’ के लिए वाकई अभिशाप बन गई! पढ़ें ‘पल भर शेष’

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क्या सौ साल की उम्र ‘पिताजी’ के लिए वाकई अभिशाप बन गई! पढ़ें ‘पल भर शेष’

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लगभग दो दशक पहले पूर्वी दिल्ली के एक मौहल्ले में रात के दो-ढाई बजे चिड़ियों की चहचाहट और कौवों की कांव-कांव सुनकर मेरी नींद ऐसी उड़ी कि कई दिनों तक आंखों से ओझल रही. जिस घर में ठहरा था उसके ठीक सामने पार्क में सूरज की मानिंद चकमते बड़े-बड़े सोडियम लाइट की वजह से पक्षी सो नहीं पा रहे थे. उन्हें क्या मालूम कि ये दिन की रोशनी नहीं बल्कि रात का उजाला है.

इस घटना ने मुझे कई दिनों तक बैचेन किए रखा. और लागातार खोज-अध्ययन करते-करते बरेली स्थित केन्द्रीय पक्षी अनुसंधान संस्थान के किसी वैज्ञानिक से इस विषय पर लंबी चर्चा की. तमाम रिसर्च के बाद पक्षियों पर होनी वाली इस क्रूरता पर एक लेख लिखा हिन्दुस्तान में. लेकिन जगह नहीं मिल पाने के चलते यह लेख महज सिंगल कॉलम की खबर बनकर गाजियाबाद एडिशन के पन्ने में कहीं खो गई. खबर तो खो गई लेकिन अंदर द्वन्द्व आज भी जारी है. जब भी किसी पार्क या पेड़ों को तेज दूधिया रोशनी से सरोबोर देखता हूं तो कानों में चिड़ियों की चहचाहट गूंजने लगती है.

दो दशक बाद आज वही दृश्य निर्देश निधि की कहानी ‘पल भर शेष’ के माध्यम से एक बार फिर आंखों के सामने जीवंत हो उठा. निर्देश निधि की कहानियों का मैं कायल हूं. ‘शेष विहार’ के बाद अब ‘पल भर शेष’ भविष्य को ध्यान में रखकर लिखी गई कहानियां हैं. हमारे यहां हिंदी साहित्य में साइंस फिक्शन लगभग गायब हो चुका है. ऐसे में  निर्देश निधि की कहानियां प्रकाश पुंज नजर आती हैं. कपोल कल्पनाओं से इतर विज्ञान से जुड़ी कहानियां समाज को सोचने के लिए कुछ पल के लिए मजबूर कर सकती हैं.

हम सबने बचपन में एक निबंध जरूर लिखा होगा- विज्ञानः अविष्कार या अभिशाप. विज्ञान के अविष्कारों की निश्चित ही जय करनी चाहिए, लेकिन इसमें छिपे अभिशाप पर भी जरूर मंथन करना होगा. नहीं तो ‘शेष विहार’ या ‘पल भर शेष’ होती दुनिया के लिए हमारे पास पल भर नहीं बचेगा.

निर्देश निधि की ये कहानियां विचलित करती हैं. कुछ साथियों का कहना था कि उन्होंने ‘शेष विहार’ को पढ़ने की कई बार कोशिश की, लेकिन हम अपनी पीढ़ियों के लिए क्या भविष्य देकर जाएंगे, यह सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं और कहानी आगे नहीं बढ़ पाती है. एक साथ का कहना था कि कहानी पढ़ते ही उसकी आंखों के सामने उसके बच्चों की तस्वीर आ जाती है.

‘शेष विहार’ को खुद निर्देश निधि सबसे क्रूर कहानी बताती हैं. विचलित तो ‘पल भर शेष’ भी करती है, लेकिन इस कहानी का नायक भविष्य की चिंताओं को लेकर संघर्ष करता दिखलाई पड़ता है तो कुछ आस-सी बंधती नजर आती है. हम सबको मुन्ना के पिताजी बनकर बहुत अधिक नहीं तो कम से कम कुछ बातों के लिए तो सोचना अवश्य चाहिए. इस कहानी में एक नए प्रदूषण को लेकर चर्चा की गई है और वह है- प्रकाश प्रदूषण यानी जगमग रोशनी से होने वाला प्रदूषण. रोशनी को हममें से अधिकांश लोग शायद प्रदूषण ना मानें, लेकिन भविष्य में यह भी एक बड़े खतरे का सबब बन सकती है.

निर्देश निधि की इस कहानी के बारे में एक पाठक झुन्झुनू, राजस्थान के जितेंद्र सिंह सोम कहते हैं- पल भर शेष कहानी हमें उस खतरे की ओर संकेत कर रही है जो जाने-अनजाने हम प्रकृति के सामान्य चक्र के विपरीत चलने से पैदा हो रहा है. लेकिन मंथन करने से पहले आप भी पढ़ लें ‘पल भर शेष

मुन्ना, मुन्ना…. पिताजी चिल्ला रहे हैं. जिसका नाम वे पुकार रहे हैं वह प्रत्युत्तर में हां कहने नहीं आने वाला. फिर भी उन्होंने उसकी हां सुन ली है. वे चिल्ला रहे हैं- “अरे इन्हें मना कर मुन्ना, पटाखे क्यों छोड़ रहे हैं इतनी रात में. अरे जरा देख तो ये चिड़ियां कैसी फड़फड़ा कर अपने घोंसलों से निकल आई हैं.”

अम्मा पिताजी के चिल्लाने से नाराज होकर कह रही हैं, “अरे ये बुड्ढा पगला गया है.”

पिता जी क्या देख रहे हैं, अचानक बहुत-सी चिड़ियां उनके कमरे की तरफ साँय – साँय की आवाज करती उड़ी चली आ रही हैं. सैकड़ों प्रजातियों की छोटी-बड़ी चिड़ियां. साइबेरियन चिड़ियां, जंगली कबूतर, गौरैया, तोता, मैना, चील, बाज, बटेर, मुनिया, फ़ाल्कन, होर्नबिल, बत्तख, पेंग्विन, है तो वहां डोडो भी. और भी ना जाने कौन-कौन किन-किन प्रजातियों की चिड़ियां हैं. किन-किन चिड़ियों के नाम लें, कौन-कौन नहीं हैं. पिताजी का कमरा फर्स्ट फ़्लोर पर है. उनके कमरे की दोनों दीवारों में बड़ी-बड़ी खिड़कियां हैं. वे खिड़कियां कांच की हैं और उनके कमरे का बाहर खुलने वाला दरवाजा भी कांच का ही है. यह क्या, इस सुनसान रात्रि में, सारी दुनिया से आकर चिड़ियां पिताजी के कमरे की खिड़कियों में घुसने का प्रयास कर रही हैं. वे आखिर ऐसा क्यों कर रही हैं! खिड़कियों के शीशे बंद हैं. चिड़ियां खिड़कियों के शीशों से टकरा रही हैं. उनके सिर गहरी चोट खा रहे हैं. वे या तो मूर्च्छित हो कर या फिर मर कर नीचे गिरती जा रही हैं. वे बहुत भयभीत स्वरों में चिल्ला रही हैं. कानों में अमृत-सा घोलने वाली उनकी सुबह-सवेरे निकलने वाली संगीतमय मधुर स्वरलहरियां, इस समय चीत्कार में परिवर्तित होकर भयभीत कर रही हैं. पिता जी ने एक खिड़की खोल ली है. देखते ही देखते उनका कमरा भी चिड़ियों के टूटे हुए पंखों से अट गया है. पंख जगह-जगह हवा में तैर रहे हैं. पिता जी खिड़की से नीचे झाँक रहे हैं. खिड़कियों के नीचे चिड़ियों का ढेर है. कमरे के अंदर तेज प्रकाश है. इन मासूम चिड़ियों के लिए इस कदर प्रकाश, एक तरह का दिन है. रात में दिन. दिन चिड़ियों के दाना-खाना और आवास खोजने का समय है. चिड़ियों का खिड़कियों पर आना, दाना-खाना तलाशने के क्रम में हुआ है. लाल गर्दन वाले सारसों का एक पूरा का पूरा झुंड पिताजी के कमरे में घुस आया है. प्रेमी और सरस प्रकृति के लाल मुंह वाले सारसों को देखना शुभ है. पर दिन में, रात में नहीं. रात पक्षियों के जागरण के लिए नहीं. समय शुभ-अशुभ का कारक अवश्य ही है.

देखते-देखते रात में पिताजी का कमरा लाल गर्दन वाले कुछ युवा और कुछ बूढ़े सारसों से भर गया है. अजीब-सा दृश्य है. वे आसमान की ओर अपनी चोंच उठा कर नृत्य कर रहे हैं. जैसे वे वर्षा ऋतु में करते हैं. यही नृत्य उनके एकनिष्ठ प्रेम-प्रणय का आरम्भिक निवेदन भी होता है. कुछ बूढ़े सारस पिता जी के कमरे में प्रणय नृत्य ही कर रहे हैं. अजीब डरावना दृश्य है. अपनी शतक भर की उम्र में पिता जी को पहली बार प्रणय नृत्य जैसा नरम और रूमानी दृश्य डरावना लग रहा है.

यह क्या, उनमें से कुछ युवा सारस प्रणय नृत्य छोड़कर, पिताजी के बूढ़े और बिना बालों वाले सिर पर जोर-जोर से अपनी चोंच मार रहे हैं. पिताजी घबरा कर उठ गए हैं. उठ ही नहीं गए, भागने की मुद्रा में हैं. वे जोर से चिल्लाए हैं. मुन्ना, मुन्ना इन सारसों को भगा मुन्ना, ये मेरा सिर फाड़ देंगे. मेरी जान ले लेंगे मुन्ना. कोई मेरी नहीं सुनता. रोज कहता हूं इतनी लाइट्स मत जलाओ. रात को रात ही रहने दो. कोई नहीं सुनता. डरे हुए पिता जी बड़बड़ा रहे हैं. दिनभर के काम से थक कर, गहरी नींद में सोए छोटे भैया उनके कमरे की ओर दौड़े हैं.

सारस? सारस यहां कहां से आ गए पिताजी? कोई सारस नहीं है यहां तो.

“अभी थे, अभी यही थे. देख मेरी खोपड़ी पर ये निशान, ख़ ख़ खून छलक आया है.” उनकी भर्राई हुई आवाज में हकलाहट और भर गई है. घबराए हुए पिताजी पसीना-पसीना हो रहे हैं. नवंबर की ठंडी रात में उनकी मांसरहित कनपटियों से पसीने की धार बह रही है. उनकी बूढ़ी, गड्ढों में सिमट आई आंखें भयभीत लग रही हैं. वे बुरी तरह काँप रहे हैं. उन्होंने हड्डी-हड्डी हो आए अपने दोनों हाथों से अपना सिर कस कर पकड़ रखा है. बुरे सपने अक्सर अपना ऐसा ही असर छोड़ कर जाते हैं. पर पिताजी कह रहे हैं कि यह सपना नहीं है. सच है यह, मुन्ना की कसम. छोटे भैया पिताजी का सिर देखकर हैरान हुए जा रहे हैं. सिर पर खरोंच जैसे निशान तो वाकई हैं.

अम्मा गफ़लत में हैं. बड़बड़ाहट में रमा को पुकार रही हैं- “अरी रमा, परकास कर दे जरा, अरी परकास कर दे,रमा.”

इस उमर में भी पिता जी अम्मा पर गुस्सा करने का अपना अधिकार बिल्कुल नहीं भूले हैं. आखिर सौ बरस पुराने पुरुष जो हैं. पिताजी अम्मा पर जोर से चिल्लाए हैं- “परकास कर दे, परकास कर दे. चिल्लाती रहती है बुढ़िया. चुप हो जा. कुछ पता भी है कितना जानलेवा हो गया है तेरा परकास. तेरी आंख ही नहीं देखती बस. समझती नहीं है अंधेरा कितना जरूरी हो गया है. अंधेरा ना हुआ तो सब मारे जाएंगे, वो भी बेमौत. तू भी मारी जाएगी डुकरिया.”

“अच्छा ही तो होगा, अब कौन सा किला फतह करना बाक़ी रहा?” अम्मा ने कुछ गफ़लत में ही, बिना दांतों वाले मुंह से निकली, बच्चों जैसी हो आई आवाज में उत्तर दिया है.

पिताजी और अम्मा एक ही कमरे में रहने वाले धरती के दो ध्रुव सम हैं. इस उमर में भी पिताजी मौत को अम्मा और खुद से बहुत दूर खड़ी देख रहे हैं. यह इनसानी जीवट का एक बेहतरीन उदाहरण है. छोटे भैया मन ही मन सोच रहे हैं. पिताजी के चिल्लाने से अम्मा की गफ़लत भी दूर हो गई है. वे बिना नींद वाली नींद से पूरी तरह जाग गई हैं.

डिबिया जला दे रमा, जरा परकास कर दे, देखिए बुड्ढे कू किस ततैये ने काट खाया. अम्मा डांट खाकर भी यही दोहरा रही हैं. वे पिताजी को बुड्ढा ही पुकारती हैं. जैसे स्वयं वे सोलह बरस की किशोरी हों. पिताजी भी तो चिढ़ कर उन्हें डुकरिया या बुढ़िया ही पुकारते हैं. अपनी उम्र की तरफ देखे बगैर. अधिक पक कर मद्धम पड़ गई दो बूढ़ी आवाज़ों के कारण पूरा घर जाग गया है.

छोटे भैया कह रहे हैं- “हमें दिन भर काम करना होता है पिताजी. और रात भर आप हमें सोने नहीं देते. आखिर क्या किया जाए, ज़रा हल भी आप ही बता दो.”
“हां, तो चिल्लाता ना तो क्या करता? उन हज़ारों पक्षियों को मैं अकेले भगा लेता क्या?”
“कहीं नहीं थे पक्षी.”
“थे कैसे नहीं?” पिता जी ने तत्परता से उनकी बात काटी.
“अच्छा अब कोई पक्षी नहीं हैं यहां, ना ही आएंगे.” अब सो भी जाओ पिताजी.

पर पिताजी के मस्तिष्क की रासायनिक क्रियाएं कुछ इस तरह उद्वेलन कर रही हैं कि उनका डर जा ही नहीं रहा है.

“अच्छा तो मुन्ना को भेज दे. उसे तो नहीं जाना सुबह ऑफिस. ऑफिस-ऑफिस तो तुम ऐसे गाते हो जैसे मैं कभी ऑफिस ही नहीं गया. औलाद और मां-बाप का यही फर्क है.”

वे अपनी थकी, डरी और भर्रायी आवाज में कह रहे हैं. छोटे भैया पहले इन बातों पर चिड़ जाया करते थे. पर अब वे शांति से काम लेने लगे हैं.

मुन्ना भैया की बेटी ‘नरमी’ का ब्याह है. हम छहों बहन भाई और उनके बच्चे सब यहीं एकत्र हुए हैं. दिल्ली के मालवीय नगर स्थित अपने घर में. कितने बरसों बाद मिले हैं हम सब. एक ही घर से निकले हम दुनिया के कोने-कोने में छितर गए बहन-भाई. दुनिया की कई संस्कृतियों का विलय हो गया हममें. अगर हमने अपना प्रभाव छोड़ा, तो दूसरों से लिया भी खूब है. पर सच कहूं, जड़ें यहीं हैं, सो खुशी भी यहीं है. हमारी संतान भले ही रंग गई हो दूसरी सभ्यता, संस्कृति में, पर हम तो घर आकर वैसे ही हो जाते हैं जैसे कभी पैंतीस-चालीस या पैंतालीस- पचास बरस पहले रहे होंगे.

नरमी विदा होकर अपनी ससुराल चली गई है. बचे हुए काम निपटाने का ज़िम्मा छोटे भैया का है. लगभग सभी मेहमान भी वापस लौट गए. मेरे लिए कोलेरैडो से बार-बार आना सम्भव नहीं होता, इसीलिए मैं कुछ दिन और रहूंगी अम्मा-पिताजी के साथ. भले ही अम्मा और पिताजी अजनबी से हो गए हैं. उनका व्यवहार कुछ विचित्र ही हो गया है. पर उनकी इस सांध्य बेला में कुछ दिन तो उनके सान्निध्य का सुख लेती चलूं.

बदले हुए अम्मा और पिताजी को देख रही हूं. घर-परिवार में मुख्य भूमिका में रहने वाले वे दोनों अब अपनी उन भूमिकाओं से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं. वृद्धावस्था भी अजीब है. कैसे बदलती हैं पीढ़ियां. कैसे बदल जाती हैं पीढ़ियों के साथ घर के लोगों की भूमिकाएं. यह साक्षात देख रही हूं. अपने चैतन्य पिता को बदला हुआ देख रही हूं. जिन्होंने बचपन में ही अपने पिता को खो दिया था. ग्रामीण समाज के सभी विरोधों के बावजूद अपनी जीवट और कर्मठता के बल पर इंटैलिजेंस ब्यूरो में अपने लिए ऊंचा औहदा सुरक्षित किया. हम चार भाई और दो बहनों को भी योग्य बनाकर समाज में सम्मानित स्थान दिलाया. अम्मा ने छह बच्चों को अपने बूते पर पाला और हमने उन्हें कभी झुंझलाते नहीं देखा. अम्मा को स्कूल जाकर पढ़ाई करने का अवसर तो खैर नहीं मिला कभी, परंतु पिता जी ने उन्हें इतना साक्षर तो कर ही दिया कि वे कुछ नहीं तो अपनी धार्मिक पुस्तकों को ठीक-ठीक पढ़कर उनके अर्थ को भी समझ सकें.

भले इतिहासकारों की दृष्टि में सौ बरस का अंतराल नाखून बराबर ही होता हो पर, इनसान की आयु के सम्बंध में सौ बरस, ख़ासा लम्बा अंतराल है. सौ क्या, अट्ठानवे-निन्यानवे बरस भी बहुत होते हैं. अम्मा ने उन बहुत बरसों के आस-पास का समय गुजार लिया है इस धरती पर. कई बार उमर के अंतिम पड़ाव की ओर खिसकते हुए इनसान की स्मृतियां पीछे की ओर लौट जाती हैं. वर्तमान को मस्तिष्क नकार देता है और अतीत को अपने भीतरी कोश से निकाल कर आदमी को सौंपने लगता है.

कोई दूसरी स्मृतियां निराशा से भरी हो सकती हैं. मस्तिष्क आदमी को निराश होने देना नहीं चाहता शायद. इसीलिए वो इनसान के अशक्त हुए तन में मस्तिष्क के द्वारा बचपन या युवावस्था की स्मृतियां जीवंत कर देता है. ताकि उन दोनों अवस्थाओं की ऊर्जा तन में ना सही कम से कम मन में तो प्रवाहित होती रहे. अम्मा और पिताजी, दोनों को ही उनका मस्तिष्क शायद निराश नहीं होने देना चाहता, इसलिए उसने उन्हें उनका अतीत सौंप दिया है.

अम्मा उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव मुस्तफ़ाबाद में पैदा हुई थीं. वे तो तब की खेप हैं, जब उस गांव में उजाला मतलब सूरज. उजाला मतलब आग, आग किसी भी रूप में. आग लकड़ियों से, आग तेल और बत्ती के संयोग से ढिबरी में या आग फूंस से. सूरज तो बेसमय आता नहीं, तो उसके बीत जाने पर उजाले के लिए बस आग. इसीलिए अम्मा को आज के इस झका-झक प्रकाश वाले समय में भी बस प्रकाश की कमी ही सूझती है. प्रकाश खत्म हो जाने का अंदेशा ही लगा रहता है. कभी वे डिबिया याद करती हैं, कभी फूंस. मतलब वे अपने बचपन के युग की आग और उससे जन्मा प्रकाश को ही याद करती हैं. क्या वे वाकई भूल गई हैं कि अब डिबिया और फूंस की जरूरत नहीं? अल्वा ऐडीसन का किया धरा उनके लिए सब गुड़-गोबर? जिस प्रकाश की अति उपस्थिति से पिताजी इस कदर ख़ौफजदा हैं, क्या अम्मा वाकई उस प्रकाश की इस कदर उपस्थिति से अनजान है! अनजान तो कैसे हो सकती है भला. हां, अनजान बनती जरूर हैं. घर के सब लोग यही मानते हैं. पर पड़ोसन जगत आंटी कहती हैं- “बनती तो क्या ही होंगी बेचारी, दिमाग ही भूल गया होगा. कभी-कभी तो मैं खुद भी कई बातें भूलने लगी हूं. अम्माजी तो बहुत उमर की हैं खैर.” बुढ़ापे की ओर सरकती जगत आंटी अम्मा की स्थिति समझती हैं.

मैं देख रही हूं. घर अतीत के साए में जी रहा है जैसे. रात होते ही अम्मा की आंखें अपने कर्तव्य की इति समझ लेती हैं. दिन में भी लगभग वैसा ही हाल है. अम्मा को लगता है कि प्रकाश नहीं है घर में. अम्मा का खूब इलाज भी चला है, पर मदद नहीं मिली. अम्मा की आयु से पहले उनकी आंखों की एक्सपायरी आ गई. इसीलिए अम्मा अंधेरे से परेशान है.

वे ‘परकास कर दे’, ‘परकास कर दे’ की रट लगा देती हैं. उन्हें कौन बताए कि दोष उनकी आंखों का है प्रकाश का नहीं. बताने का भी कोई फ़ायदा नहीं. वे समझती ही कहां हैं, समझ भी जाएं तो उन्हें याद कहां रहता है. उनका डिमेंशिया जोरों पर है.

“का परकास-परकास करती हो अम्मा, अब परकास की कहां कमी है. आंख खुलने से बंद होने तक परकास ही परकास. इतना कि आंखें  चुंधिया ही जाएं.” अम्मा की हैल्पर रमा अक्सर चिड़ कर बड़बड़ाती है. रमा की झुंझलाहट भी थोड़ी-बहुत जायज तो है ही. हर वक्त तो कोई बच्चे को भी नहीं बताता रह सकता, एक ही बात. अम्मा तो फिर भी एक लम्बी उमर पार करके बूढ़ा बच्चा बनी हैं.

पिताजी तो उम्र में अम्मा से भी कई बरस बड़े हैं. तो जाहिर है पिताजी या तो सौ की दहलीज पर खड़े हैं, या उसे भी पार कर गए हैं. पिताजी का मोतियाबिंद जब से हटा है, तब से उन्हें प्रकाश से समस्या है. उनकी आंखें इस उम्र की आवश्यकता से कुछ अधिक ही देखने लग गई हैं. शायद इस उम्र के अनुभव जितना. नहीं सिर्फ उतना ही नहीं, उनकी आंखें उसके भी पार देखने लग गई हैं कहीं. ऐसा लगता है कि उनकी कोई तीसरी आंख उग आई है. यही परिवार की वर्तमान मुश्किल है.

धरती पर सौ बरस गुजारने के साथ पिताजी का दिमाग बूढ़ा हुआ या बच्चा, समझ के बाहर है. अब वे वर्तमान के किसी आदमी को कम ही पहचानते हैं. बस उन्हें अपने बहन-भाइयों और माता-पिता का समय याद है. और वे बस अपने बड़े बेटे, यानी मुन्ना भैया को पहचानते हैं. वे मुन्ना भैया जो दस बरस से हमारे बीच हैं ही नहीं. हां, अपने ऊंचे ओहदे और ऑफिस को भी वे कतई नहीं भूले हैं. कुछ याद हो ना हो उन्हें अपने ऑफिस सबोर्डिनेट मखीजा याद है. याद है अपने ऑफिस का क्लर्क रतन भी. जिसे वे हमेशा रत्तू ही पुकारते थे. पुकारते हैं, अब भी. आईबी के अपने जोनल डायरेक्टर के उच्च पद का रौब-दाब भी याद है उन्हें. अपनी बहादुरी के कुछ किस्से भी जरूर ही याद हैं उन्हें. ख़ासकर वह घटना जब वे पाकिस्तान बॉर्डर के भीतर घुसकर नक़्शा बना रहे थे. पाकिस्तानी सैनिकों से बचकर भागने के लिए उन्हें झेलम में कूदना पड़ा था और वे उन्हें चकमा देकर नक़्शे सहित सकुशल भारत की सीमा के भीतर आ गए थे. यह किस्सा हमने अनगिनत बार सुना है, वह भी विस्तार से. मखीजा की बेवक़ूफी के किस्से भी खूब सुने हैं. रत्तू को उसकी विद्वता और समर्पण के हिसाब से औहदा ना मिलना पिता जी के लिए सदा पश्चात्ताप का विषय रहा.

सौ बरस जीने के किसी लाभ के बारे में तो पता नहीं, पर उसकी हानि काफी बड़ी है. साथ पैदा हुए लोग, साथ देने के लिए नहीं बचते. कई बाद में पैदा हुए लोगों को भी निकलने की शीघ्रता होती है. सबके सब निकल गए लोग आज भी, पिताजी के साथ तो हैं ही, किसी न किसी रूप में.

पिताजी अक्सर मुन्ना भैया से पूछते हैं- “मुन्ना तेरी यशोदा बुआ कहां गई, जरा बुलाना, पूछूं मेरे स्कूल के कपड़े कहां रखे हैं इसने.”
अम्मा को पुकार कर कहते- “अरे मुन्ना की मां, बाबूजी और अम्मा को खाना दे दिया क्या? अरे देर मत किया करो भलीमानस.”
अम्मा नाराज हो जाती हैं. जाहिर है, वे सब उनके साथ ही होंगे. तभी तो वे उनकी राजी और नाराजगी का ध्यान रखते हैं. यह तो वे अक्सर ही बोलते रहते हैं- “मुन्ना इतनी रोशनी क्यों कर रखी है? या रात हो गई अब सो जाओ.” या “मुन्ना लाइट बंद कर दे भैया. इस लाइट की वजह से ही उस रात इतनी सारी चिड़ियां घुस आई थीं मेरे कमरे में. मेरा सिर फोड़ डाला था भैया.”

पिताजी को अधिक रोशनी से तो चिढ़ ही है जैसे. वे पुकारते भी मुन्ना भैया को ही हैं. पिताजी को सैकड़ों बार याद दिलाया कि मुन्ना भैया अब दुनिया में नहीं हैं. अव्वल तो माने ही नहीं, जो मान भी गए तो ऊपरी तौर पर. दो मिनट बाद ही भूल भी गए और अगली बार फिर हममें से किसी को न पुकार कर मुन्ना भैया को ही आवाज़ लगाई.

उनकी इस आदत से कई बार बड़ी भाभी उदास हो जाती हैं. आज भी वे अक्सर रो पड़ती हैं. पिताजी के इस हल्यूसिनेशन का इलाज मुन्ना भैया के अंतरंग मनोचिकित्सक मित्र, डॉक्टर आरपी शर्मा करते हैं. डॉक्टर शर्मा कोई कम योग्य डॉक्टर नहीं हैं. पर पिताजी के बुढ़ापे का इलाज वे नहीं कर सकते. वे ही क्या, उसका इलाज तो दुनिया का कोई डॉक्टर नहीं कर सकता.

हां अगर, पिताजी के मानसिक स्वास्थ्य को हटा दें, तो डॉक्टर शर्मा सहित हम सब उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर सुखद आश्चर्य में रहते हैं. अम्मा की कमर जरूर धरती के गुरुत्व को प्रेम करने लगी है. पर पिताजी, वे तो धरती के गुरुत्व को धता बताए सतर खड़े हैं. अम्मा के डिमेंशिया की तरह पिताजी के हैल्यूसिनेशन भी दिन पर दिन पसरते जा रहे हैं. अत्यधिक प्रकाश भरे नागरी जीवन के कारण दिन-रात का भान उन्हें नहीं है. दरअसल दिन-रात का अनुमान लगा पाना ही उनके लिए मुश्किल हो गया है. सूरज के छिपने से पहले ही घर के बाहर-भीतर आंखें चौंधिया देने वाले प्रकाश की बहुतायत हो जाती है. पूरा घर जगमगा उठता है. घर के बाहर और भी अधिक जगमग हो जाती है. छोटे भैया ने पुराने घर को आधुनिक करवा लिया है, रोशनी से भरा घर. छतों में भी आधुनिक चलन वाली लाइट्स लगवा ली हैं.

पिताजी ने अपनी नौकरी के दिनों में ही दिल्ली के बहुत चहल-पहल वाले, खूबसूरत इलाके मालवीय नगर में एक पार्क के सामने यह बड़ा-सा घर लिया था. यह उनकी युवावस्था के दिनों की ही बात है. जब घर लिया गया था तब यहां इतनी जगर-मगर नहीं थी. तब तो ख़ैर पिता जी को भी जगर-मगर से कोई परेशानी नहीं थी. पर अब पिता जी रोशनी की अति से परेशान हैं. डॉक्टर शर्मा उन्हें देर तक समझाते हैं, बाबूजी यह युग, देश-दुनिया के विकास का युग है…

पिता जी उनकी बात बीच में ही काटकर अपनी हल्की भर्रायी आवाज में कहते हैं- “अरे शर्मा, तो विकास की सबसे जरूरी शर्त आदमी ने प्रकाश की सत्ता और अंधेरे का खात्मा ही समझा है क्या? मैं देख रहा हूं आदमी ने धरती से अंधकार का सफाया करने में कोई कसर नहीं उठा रखी. तो समझ लो, इस हद से ज़्यादा प्रकाश की टॉर्च दिखा-दिखा कर वो खुद के सफ़ाए का रास्ता भी साफ कर रहा है. चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा हूं, पर मेरी तो कोई सुनता नहीं है भाई.” वे एक सांस बोलने के कारण हाँफ रहे हैं.

डॉक्टर शर्मा कहते हैं कि बाबूजी भी गलत कहां हैं. घर तो घर, घर के सामने का पार्क, पार्क ही क्या, घर के पिछवाड़े का चौराहा भी सूरज के जाने से पहले ही हाई पावर एलईडी लाइटों से जगमगा उठता है. शहर तो शहर गांव और जंगलों तक का यही हाल है. पिताजी कहते हैं कि महानगर ना कभी खुद सोता है ना दूसरों को सोने देता है. यही ना सोने का रोग पिताजी को भी लग गया है. इस रोग से दोस्ती के लिए एक तो उनकी उम्र ही पर्याप्त थी, दूसरे उसमें आंखें चौंधियाता प्रकाश और जुड़ गया. पिताजी को तब तक नींद नहीं आती जब तक प्रकाश का हर एक रेशा सो ना जाए. पर प्रकाश के रेशे तो हर वक्त बिना रोक-टोक उनके चारों तरफ जाल बुनते रहते हैं. इसीलिए वे, ‘लाइट बंद कर दे’ का राग बार-बार अलापते रहते हैं. पिता जी को कितना तो समझाते हैं, “आपके लिए जरूरी है कि थोड़ी-सी लाइट आपके कमरे में फैली रहे. जब आप उठें तो किसी चीज से टकराएं नहीं.”

इन्हें समझा मुन्ना. हर वक्त लाइट की जरूरत नहीं है.
उम्र का प्रभाव खाकर अपनी मद्धम पड़ गई आवाज को वे अक्सर, थोड़ी तेज करके बोलते हैं तो वह भरभरा उठती है. वे मुन्ना भैया से मुख़ातिब होकर कहते हैं- “इनसान के दिमाग में की गई गिनती भी उसकी आंखें जैसी ही होती है. आदमी घर में रोज एक जगह से दूसरी जगह तक दस बार चलता है. ज़िंदगी भर वह इतना भी नहीं कर सकता कि घर की जगहों को नाप सके? आदमी के कदम एक जगह से दूसरी जगह की दूरी नाप कर, कदम गिन कर, प्रकाश के बिना भी, बिना कसी रुकावट एक जगह से दूसरी जगह तक आसानी से आ-जा सकते हैं. बाssत करते हो…”

यह कहकर कि पिता जी अब आप सो जाओ. छोटे भैया होठों ही होठों में बुदबुदाए हैं कि कितनी अतार्किक बात करने लगे हैं पिताजी आजकल.

“सोने की रट मत लगा, सुन ले ज़रा. जबरदस्ती की लाइट से रात के जीवों को कितनी परेशानी होती है, कोई समझने को तैयार ही नहीं है. वे मर रहे हैं. उनके बिना जी लोगे तुम? अरे मुन्ना जरा समझा तो इन्हें.”

पिछले दस बरसों से मुन्ना भैया की आवाज हममें से कभी किसी को नहीं आई है, लेकिन पिताजी को उनके उत्तर निर्बाध मिलते होंगे, तभी तो वे उन्हें सम्बोधित करते होंगे. पर कभी-कभी वे यह भी बोलते हैं कि मुन्ना तू तो ऐसे चुप हो गया जैसे सांप सूंघ गया हो तुझे. वे थोड़े तल्ख होकर कहते हैं- “मुंह में जबान नहीं है क्या?”  वे मानने को राज़ी ही नहीं कि जबान क्या मुन्ना भैया का तो मुंह ही नहीं है. मतलब मुन्ना भैया तो सारे के सारे ही नहीं हैं. पर पिताजी की ना मानने की सनक, है तो है.

“कितने डग कहां से कहां तक जाने में भरे जाते हैं ये जानने में फ़ारसी की आंख लगती है क्या? कुछ पता भी है, स्किन में भी रिसेप्टर होते हैं जो लाइट को पहचान कर ब्रेन को संदेश दे देते हैं. लाईट जली हो, आंख बंद हो तो भी आदमी की स्किन दिमाग को बता देती है कि अभी रोशनी है. आदमी गहरी नींद से मरहूम ही रह जाता है और फिर घेरती हैं हजार बीमारियां. स्किन कितनी चुगलख़ोर है. आदमी चतुर का बच्चा समझता कहां है! बस खुद को ही चतुर समझता है. वे आदिम बुजुर्ग की तरह सकल आदम जात को साधिकार झिड़कते हैं. वे लाइट ना जलाने के अपने पक्ष के समर्थन में कहते हैं कि तारों का प्रकाश कम से कम इतना तो होता ही है कि आदमी अंधेरी रात में भी सामने पड़ी किसी चीज को देख सके, उससे बिना टकराए आ-जा सके. पर तुम तो आंख चुंधियाती बिजली ही इतनी जलाए रखते हो भाई. तारों का प्रकाश तुम क्या जानों.”

“ओहो पिताजी! ऐसी क्या मजबूरी है जो अंधेरे में चले आदमी. मान लो कभी ना दिखे और आप टकरा जाएं. चोट लग जाएगी. लेने के देने पड़ जाएंगे, बता रहा हूं. इस उमर में कोई हड्डी-वड्डी टूट गई तो जुड़ेगी भी नहीं. एक लाईट जली ही रह जाए तो क्या दिक्कत है आपको?”

“नहीं, मैं नहीं टकराऊंगा.”

वे हर बार अपनी कमजोर आवाज में थोड़ा दम लगा कर अपने पक्ष में बोलते हैं, पूरे आत्मविश्वास के साथ. वाकई वे आज तक, कभी, कहीं नहीं टकराए हैं. उनकी गिनती करने की तकनीक काफी कारगर है. बेवक्त प्रकाश के विरोध में, उनका यह आत्मविश्वास! क्या कहना. इसी बल पर शायद उन्होंने जीवन को दूसरों की अपेक्षा लंबा और बेहतर जिया है.

“आप नहीं तो कोई और टकरा सकता है पिताजी.”

“कोई और की कोई और जाने भाई. मेरा दिमाग क्यों खराब करते हो…”

नरमी के ब्याह की तैयारियां ही चल रही थीं. खूब म्यूज़िक बज रहा था. सब डांस कर रहे थे. यही कोई रात का एक बजा होगा. पिताजी ने इसी तरह तब भी रात भर हंगामा किया था. हंगामा शब्द तो खैर ठीक नहीं होगा, परंतु वह शनिवार की रात बहुत ही डरावनी थी.

पिताजी के अनुसार उस रात, सारे पेड़ धरती में समा गए थे. अपने सारे छोटे-बड़े बीजों को सीने से लगाकर. पिताजी के अनुसार यह तो उन्होंने प्रत्यक्ष ही देखा था. जगह-जगह से धरती फटने लगी थी, जहां-जहां भी पेड़ थे, ठीक वहां-वहां उनके नीचे. सारे पेड़ अपनी जड़ के नीचे बने गड्ढे में गिरते जा रहे थे. गिरते नहीं, हौले से समाते जा रहे थे. पिताजी साक्षात दर्शक थे. जब पेड़ धरती में समा रहे थे तो पिताजी जितना तेज चल सकते थे, उतनी तेज जीना उतरकर कर घर से बाहर आ गए थे. कई पेड़ों की चोटियां पकड़कर गड्ढे में गिरने से रोकने का प्रयास भी किया था उन्होंने. पर कहां रोक पाए थे किसी एक भी पेड़ को. बस घर और मोहल्ले वालों को पुकारते ही रह गए थे, चीख-चीख कर. अंत में उन्हें लगा था कि अंतिम पेड़ मुन्ना भैया थे. जब वह धरती में समाते-समाते जरा-सा ऊपर रह गया तो मुन्ना भैया का चेहरा था उसकी ऊपरी टहनियों पर. पिताजी ने उनका चेहरा पकड़कर उन्हें धरती में बने गड्ढे में समाने से रोकने का भरसक प्रयत्न किया था. पर सारा प्रयास निष्फल. पेड़ दरकी हुई जमीन में समा गया था. साथ ही मुन्ना भैया का चेहरा भी, उनके साथ ही सारी आदम जात भी. पिताजी विक्षिप्त से खड़े रह गए थे बस.

बड़ा बेटा यार-दोस्त जैसा हो जाता है. उस दिन पिताजी दुनिया में अपने बेटे के साथ-साथ यार-दोस्त विहीन भी हो गए थे. तभी तो निकली थी वह हृदय विदारक चीख उनके मुंह से, जिसने छोटे भैया और घर भर की नींद को भी उड़ा दिया था. केवल हमारे घर भर की ही नहीं, उस दिन तो सारे मोहल्ले की नींद उड़ गई थी.

उस रात डॉक्टर शर्मा हमारे घर आए तो रात भर जा ही ना सके. वो पूर्णमासी की रात थी. डॉक्टर शर्मा कहते हैं पूर्णमासी की रात दिमाग में भी ज्वार उठता है. ठीक वैसे ही जैसे समुद्र में. वे बताते हैं, दिमाग में भी तो उतने ही प्रतिशत पानी होता है जितना धरती पर समुद्र में. डॉक्टर शर्मा ने विस्तार से चर्चा की थी उस रात. पिताजी और अम्मा की आंखों ने संसार को कितना बदलते देखा है. वे हैरान हैं. ठीक-ठीक कहें तो कनफ्यूज़ हैं. बैलगाड़ी के लकड़ी वाले खड़खड़ाते पहियों को उन्होंने हवाई जहाज के रबड़ वाले टायरों में तब्दील होते देखा है. सरसों के तेल से जलने वाले मिट्टी के दीयों को दृष्टि चुंधिया देने वाली हाई पावर एलईडी में बदलते देखा है. फूँस की झोपड़ियों को चालीस-पचास मंजिला इमारतों में बदलते देखा है. वे सहज रह पाएंगे? बदलाव के सौ बरस और निरीह पिताजी, निरीह अम्मा. जैसे दोनों ही बुजुर्ग बदलाव के इन बरसों के भारी बोझ तले दबे पड़े हैं. मानव सभ्यता के विकास का यही तो समय रहा जो अपनी तीव्रतम गति के साथ दौड़ा है. भले ही अब हाँफ ही क्यों ना रहा हो.

या उस रात की बात है जिस रात हम सबने छोटे भाई के पोते की पहली सालगिरह मनाई थी. मेहमान जा चुके थे, घर के सदस्य थक कर सो चुके थे. अम्मा अपनी, बिना नींद वाली नींद में बिना परकास के ही चुपचाप बिस्तर पर पड़ी थीं. उस रात पिताजी को नींद नहीं आ रही थी. वे अपने पलंग के पास रखी लाठी उठा कर ठक-ठक करते लघुशंका के बहाने बालकनी के अंतिम छोर पर बने वाशरूम तक चले गए थे. वे अपने कमरे के अटैच बाथरूम को शौच के लिए कभी प्रयोग नहीं करते.

आसमान की खुली छत से ना जाने क्या बरसा है. पिताजी वहां से दर्द के मारे बुरी तरह तड़पते हुए लौटे थे. उनके पूरे शरीर पर नीले-जामुनी रंग के चकत्ते पड़ गए. मुन्ना, मुन्ना चिल्लाते हुए वे वापस आए थे. उस रात वे अपने शरीर में हो रही जलन के मारे तड़प रहे थे. “मुन्ना देख तो ये क्या बरसा आसमान से मेरे ऊपर. मेरा पूरा शरीर जल गया. मुझे बेहद दर्द हो रहा है मुन्ना.”

“वो पेड़, वो पेड़… वे सबके सब धरती में समा गए मुन्ना. बादलों का पानी खत्म हो गया मुन्ना, देख बादल में से क्या निकला. मैं जल गया.” पिता जी अपनी जली हुई त्वचा मुन्ना भैया को दिखा रहे हैं. मुन्ना भैया यों तो उस रात धरती में समा गए थे उस पेड़ की ऊपरी फुनगियों पर रखे. लगता है पिताजी ने खुद देख कर भी विश्वास नहीं किया. वे अपनी पुरानी धुन में, अब भी उन्हें ही पुकारते हैं.

अगर पिताजी हमेशा मुन्ना भैया को ही पुकारते हैं, उनसे संवाद भी करते हैं तो भी क्या मुन्ना भैया सचमुच नहीं हैं? ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता. क्या पिताजी को सौ परसेंट हैल्यूसिनेशन ही होते होंगे? यह भी ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता. डॉक्टर शर्मा हालांकि यही कहते हैं. परंतु कोई क्या जाने आख़िर! नेचर को डॉक्टर शर्मा ने बनाया तो है नहीं, जो वे सब कुछ साफ-साफ, ठीक-ठीक बता सकें. उन्होंने तो एक निश्चित पाठ्यक्रम पढ़ा है बस, इनसानी दिमाग से सम्बंधित.

“दादू की एक बात बताऊं बुआ?” यह छोटे भैया की बेटी ऋचा है.
“हां – हां बताओ.”
“हमारे स्कूल-कॉलेज की छुट्टियां चल रही थीं. बहुत ही गर्मी थी उन दिनों. रातें ऐसी गरम जैसे सन अपनी सारी हीट अर्थ पर फेंक कर खुद बाथ लेने गया हो. दादू को बुरी तरह स्वेटिंग हो रही थी, इन फ़ैक्ट वे पूरे भीगे हुए थे. फिर भी दादू एसी चलवाने के लिए मना कर रहे थे.
‘नहीं-नहीं एसी मत चलाओ. अरे क्यों धरती की जान लेने पर आमादा हो.’ उन्होंने कहा और हम सब हो-हो कर हँस पड़े.”
“दादू धरती में जान भी होती है?” चिंकी ने उन्हें छेड़ा.
“हां- हां अकल के दुश्मनों. कोई मुर्दा भी किसी को जिंदा रख सकता है क्या, उसे पोस सकता है भला? धरती तो तुम जैसे गंवारों के साथ – साथ, अरबों-खरबों जीव-जंतुओं को पालती है, ज़िंदा रखती है. बेवकूफों की तरह हें – हें कर रहे हो. तुम पढ़ते-लिखते नहीं हो क्या?”

“दादू ने जो हम सबकी वाट लगाई है उस दिन, माई गॉड, बुआ!” इतने में अशेष बोलता है.
“दादू किस दुनिया में जी रहे हो आखिर? आपको एसी नहीं चाहिए. आपको लाईट नहीं चाहिए. चिल करो दादू चिल. थोड़ी वाइन चलेगी? पापा के साथ बैठकर पीना.” (अशेष मुन्ना भैया का छोटा, शैतान बेटा है.)

“बुआ सच्ची कह रही हूं. वाइन के ऑफर पर दादू ने होठों ही होठों में थोड़ी-सी स्माइल पास की थी. कुछ इस तरह कि कोई नोटिस ना कर ले. ये स्माइल उनके भीतर से निकली थी बुआ, मतलब उन्होंने पास की नहीं थी, उनसे सडनली पास हो गई थी.”

अशेष ने नोटिस कर लिया और मेरे पापा से बोला- “चाचा दादू को वाइन चाहिए देखो आप, कैसे मुस्कुरा रहे हैं वाइन के नाम. और वो खूब जोर से हँसा. उस दिन दादू खिसिया गए थे. सच्ची बुआ.”
“तो तुमने उन्हें वाइन दी या नहीं?” मैंने ऋचा से पूछा.
“हां-हां पापा ने दी थी रेड वाइन. और दादू खूब आराम से सोए. उस रात ना प्रकाश ज़्यादा हुआ, ना अंधेरा कम.” कहकर ऋचा हँस दी.

आज ही नरमी पहली बार अपनी ससुराल से घर आई है. सब उसकी बातों में व्यस्त हैं. मुन्ना भैया की पोती और छोटे भैया का पोता, दोनों गुब्बारों से खेल रहे हैं. दोनों में बालसुलभ झगड़ा हो गया है. दोनों ने एक दूसरे के गुब्बारे फोड़ दिए हैं. वे दोनों ही रो दिए हैं. उनकी माएँ उन्हें उठाकर ले गई हैं और सुला दिया है. आंगन में फूटे हुए गुब्बारों के टुकड़े बिखर रहे हैं. रात हो गई खाना-पीना निपटा कर सब सो गए. आधी से ज़्यादा रात बीत गई है पिताजी को नींद नहीं आ रही. वे घबरा कर मुन्ना भैया को पुकार रहे हैं.

“जल्दी उठ मुन्ना देख तो ये कौन लोग हैं..कौन हैं? देख, जो धरती की सारी हवा को गुब्बारों में भर कर ले जा रहे हैं. अगर वे लोग धरती की सारी हवा गुब्बारों में भरकर ले गए तो हम बिना हवा के कैसे जिएंगे? मुन्ना, ए मुन्ना…”

मुन्ना भैया अगर जीवित होते तो, पिताजी से पूछते तो जरूर ही कि पिताजी अभी आप और कितने बरस जीने की तमन्ना रखते हो? क्या-क्या और किस-किस को धरती में समाते देखना चाहते हो आख़िर? प्लीज़ बताओ तो…

इतनी तेज रोशनी, इतना सघन ताप और हवा गायब! पिताजी तड़प उठे हैं. घर के बुजुर्ग की चिंता की विशाल लहरें घर को अपने साथ बहाए ले जा रही हैं. मैं उस दिन की भयावहता का तो जिक्र ही नहीं करना चाहती, जिस दिन सारे पेड़ अपनी जड़ों, तनों, फूलों, पत्तियों और बीजों सहित धरती में समा गए थे. उनकी जगह पल भर में सारी धरती पर ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं उगती चली आई थीं. सारी धरती पर पेड़ों की जगह वे ही दिखाई दे रही थीं. वे सब अट्टालिकाएं एक-दूसरे के बेहद करीब उगी थीं. उतनी करीब जितने पेड़ भी एक-दूसरे के करीब नहीं थे.

दरअसल धरती पर विचित्र विशालकाय जीव उतर आए थे. उन जीवों के हाथ में विशालकाय गुब्बारे थे. वे हवा का कतरा-कतरा धरती से समेट ले जाने के लिए उन विशालकाय गुब्बारों में भर रहे थे. गुब्बारे इतने विशाल थे कि अपनी विशालता के कारण वे धरती और सूरज के बीच एक मोटा आवरण-सा बन गए थे. सूरज की कोई एक किरण भी धरती तक नहीं पहुंच सकी थी. बढ़े हुए घनत्व वाली हवा जैसे दृश्य थी उस दिन. वह सघन हवा आपस में सटी-सटी अट्टालिकाओं में फँस-फँस जा रही थी. उन विशालकाय प्राणियों को उन गुब्बारों के भीतर तक हवा को खींचकर लाने के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ रही थी. पर वे हारे नहीं थे. उन्होंने एक-एक कतरा हवा खींच कर उन गुब्बारों में भर ली थी. धरती पर हाहाकार मच गया था. वे विशालकाय जीव जा चुके थे. मिनटों में धरती एक बड़े से, भयानक शमशानघाट में परिवर्तित गई थी. कोई एक भी जीव नहीं था जिसमें सांस हो. बस एक पिताजी को छोड़कर. पिताजी भी हांफती-घुटती हुई आवाज में चिल्ला रहे थे. हर पुकार के बाद उनकी आवाज घुटती जा रही थी, डरावनी होती जा रही थी. नहीं पता पिताजी कब तक चिल्ला पाए. जब अगले दिन देखा तो, सड़कों पर, पार्कों में घरों के आंगनों में, ऊपर छतों पर, उन विशालकाय गुब्बारों के फटे हुए चिथड़े बिखरे हुए पड़े थे. दुनिया एक रहस्यमयी थकान से अशक्त हुई पड़ी थी. वे विशालकाय जीव ना जाने कहां चले गए थे. अजीब ख़ौफनाक सुबह थी वह, सच! हवा सचमुच बंद थी. इतनी बंद कि पीपल के पत्ते तक अपनी जगह नहीं डोल रहे थे.
छोटे भैया डॉक्टर शर्मा से पूछ रहे थे- “यह क्या है डॉक्टर शर्मा? केवल पिताजी के हैल्युसिनेशन?”
“यार, अंकल को कोरे हैल्युसिनेशन नहीं भी हो सकते संजय.” डॉक्टर शर्मा छोटे भैया से कह रहे थे.
मतलब? इस मतलब का उत्तर देने से पहले डॉक्टर शर्मा जैसे गूंगे हो गए थे.
डॉक्टर शर्मा से यह पूछते वक्त छोटे भैया या हम सब वहां थे भी या नहीं. ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता.

मैं अगले दिन कोलेरैडो वापस जाने वाली थी, सो अपनी पैकिंग में व्यस्त थी. उस दिन तो, वह दिन ही था, रात नहीं. उस दिन जंगल पेड़-पौधों, झरनों, नदियों, तालाबों और समुद्र सबसे खाली हो गया था. उस खाली हो गए जंगल से शेर, चीते, हाथी, भेड़िए, भालू, नीलगाय, जंगली भैंसे, जंगली घोड़े, जंगली सुअर, शाही, नुकीले दांतों वाले पीले बबून सवाना के जंगलों से भागते हुए चले आए थे. समुद्र की बड़ी मछलियां शार्क और व्हेल और भी ना जाने कौन-कौन, अनगिनत समुद्री जीव. हमारे शहर की ओर दौड़े चले आए थे. यहां तक कि विशालकाय लाल चींटियां और बड़ी-बड़ी तितलियां तक. उस दिन तो धरती की ऊपरी सतह जल कर पलट गई थी, वह जली हुई परत ऐसी लग रही थी जैसे किसी नववधू को दहेज के लोभियों ने मिट्टी का तेल छिड़ककर जला डाला था. उसका पूरा शरीर जल कर काला कोयला बन गया था. धरती की त्वचा ही क्या, मांस भी जलकर काला पड़ गया था. पिताजी कह रहे थे कि वह धरती का अंतिम दिन था? खैर यह तो पिताजी कह रहे थे, मुझे कतई पता नहीं.

हिंसक, जंगली जानवरों ने आते ही इनसानों के पेट चीर डाले थे. लोगों के क्षत-विक्षत पड़े शरीरों को कुछ आलसी जानवर खा रहे थे. बचे-कुचे टुकड़ों पर चींटियां चिपक रही थीं. उस दिन कोई भी साबुत नहीं बचा था. उस दिन संसार को एक काल्पनिक वस्तु में परिवर्तित होते हुए पिताजी ने खुद देखा था.

कोई था जिसने, तारे तो तारे, चांद और सूरज तक को बंदी बना लिया था. धरती पर प्रकाश का कोई एक टुकड़ा भी नहीं छोड़ा था. घर घने अंधकार से भर गया था. बल्कि कहूं तो केवल घर नहीं, संसार ही अंधेरे में डूब गया था. अम्मा की आवाज आ रही थी दूर कहीं सौ बरस पीछे से- “अरे कोई जरा सा परकास तो कर दो भले मानुसो.”

पिताजी  बस भागते चले जा रहे थे, भागते चले जा रहे थे. इस तलाश में कि कहीं जंगल का कोई एक छोटा-सा ही टुकड़ा हाथ आ जाए. जहां बहुत ना सही, बस कुछ दूर तक तो पेड़-पौधे, झाड़-झंकाड़ हों ताकि उस जंगल में खेलने-कूदने, शिकार करने और उसमें जीने की लालसा उन जानवरों को अपनी तरफ आकर्षित कर सके और पिताजी उन्हें चकमा देकर भाग सकें.

वे मीलों भागते रहे, भागते रहे परंतु उन्हें जंगल का पेड़-पौधों वाला कोई एक टुकड़ा भी दिखाई नहीं दिया. वे सारे जानवर उनके पीछे बदहवासी में भागते, दहाड़ते, गुर्राते दौड़े चले आ रहे थे. हालांकि उस दिन पिताजी बूढ़े नहीं थे. उस दिन वे ना जाने कैसे युवा हो गए थे. एक शक्तिशाली युवा. एक ऐसे युवा जिसमें अथाह बल था! युवा, जो धरती में एड़ी मार दे तो पानी निकल आए. एक ऐसे युवा जो मीलों भाग सकता था. भागे भी तो थे. पर जानवरों के पास ताकत अधिक थी, रफ़्तार भी. वे किसी ताकतवर से ताकतवर युवा से भी अधिक भाग सकते थे. जी तोड़ मेहनत के बावजूद, बहुत देर भागते रहने के बाद, पिताजी के घुटनों ने जवाब दे दिया. वह उनकी सिर्फ शारीरिक हार नहीं थी, वे मानसिक रूप से पहले हारे थे. उसके बाद तो शरीर जल्दी ही थक गया था.

अंत में दौड़ते-दौड़ते उन्हें लगा कि वे अकेले नहीं हैं. उनके साथ दुनिया के सब युवा भाग रहे हैं. जानवरों की संख्या भी अचानक कई गुना बढ़ गई है. जंगलों के सारे जानवर पिताजी सहित दुनियाभर के युवाओं के पीछे लगे हैं. भागते-भागते सबके घुटने जवाब दे रहे हैं. पैर भागने को तैयार नहीं हैं. उनके पैरों में जैसे कोई बोझ बांध दिए गए हैं. जानवर हैं कि हवा की रफ़्तार से दौड़े चले आ रहे हैं. वे पिताजी और दौड़ रहे दूसरे युवाओं के पैरों से टकराने लगे हैं. एड़ी-चोटी का जोर लगा कर भी पिताजी और उनके साथ भागने वाले दुनिया भर के युवा, खुद को बचा नहीं सकेंगे. वे समझ गए हैं. वे अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए एक-दूसरे का हाथ पकड़कर भाग रहे हैं. जानवर एक-एक कर दुनिया भर के युवाओं को दबोचकर भागते जा रहे हैं. इस तरह एक-एक कर हाथ छूटते जा रहे हैं. सभी को जानवरों ने दबोच लिया है. अंतिम पिताजी ही बचे हैं. वे जानते हैं कि अब उनके लिए भी बस पल भर ही शेष है… इसीलिए इस बार पिता जी मुन्ना भैया को भी पुकार नहीं पाए हैं. बल्कि हम पिताजी को पुकारते रह गए हैं…

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