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चकल्लस वाले चक्रधरजी की चुनिंदा रचनाएं

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चकल्लस वाले चक्रधरजी की चुनिंदा रचनाएं

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“न ठुमरी, न ठप्पे,
न लारा, न लप्पे,
चुनो गोलगप्पे,
सुनो बोलगप्पे!
अचानक तुम्हारे पीछे कोई कुत्ता भौंके,
तो क्या तुम रह सकते हो बिना चौंके!
अगर रह सकते हो तो या तो तुम बहरे हो,
या फिर बहुत गहरे हो!”

ये पंक्तियां हैं, उत्तर प्रदेश के खुर्जा (अहिरपारा) में 8 फरवरी 1951 को जन्मे डॉ. अशोक चक्रधर की. अशोक चक्रधर का नाम मंच के कवियों में काफी तेजी से उभरा और उन्होंने व्यंग्य काव्य-जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाने के साथ-साथ लोकप्रिय कविता के नए मानक तैयार किए. उनके काव्य में समसामायिकता दृष्टिगोचर होती है, जिसके चलते उनके काव्य में युगीन परिवेश की स्पष्ट छाप देखने को मिलती है. अपने व्यंग्य-काव्य के माध्यम से उन्होंने सभी क्षेत्रों में व्याप्त विसंगतियों, विषमताओं और विद्रूपताओं का पर्दाफाश करके समाज को जागरुक करने का प्रयास किया है. अशोक चक्रधर का काव्य श्रवण और पठन दोनों कसौटियों पर खरा उतरता है. हिंदी व्यंग्य-काव्य के विकास में उनका योगदान अविस्मरणीय है.

अशोक चक्रधर ने अपने काव्य में मध्यवर्ग की पीड़ा को ही नहीं, बल्कि समूची मानव जाति की पीड़ा को आवाज़ दी है. चक्रधर उस युग के कवि हैं जिस युग में सामाजिक, राजनीतिक, नैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक विद्रुपताओं तथा विपन्नताओं का दर्शन होता है और यही वजह है कि उनके काव्य में आम जन की पीड़ा को वाणी देते हुए स्वर में करुणा और व्यंग्य दोनों साथ दिखाई पड़ते हैं. यह सच है कि हर संवेदनशील और भावुक साहित्यकार अपने परिवेश एवं परिस्थितियों से ही प्रभावित होता है, ऐसे में चक्रधर जब अपनी अनुभूति को साहित्य में अभिव्यक्त करते हैं तो उनका साहित्य ठोस यथार्थ की कसौटी पर खरा उतरता है.

गौरतलब है, कि अशोक चक्रधर सिर्फ कवि और व्यंग्यकार ही नहीं, बल्कि नाट्यकर्मी, फिल्म निर्देशक, शिक्षक और वृत्तचित्र लेखक भी हैं. उनको सर्वाधिक शोहरत देश-विदेश के हिंदी कवि-सम्मेलनों के मंच से मिली है. वह मथुरा में आकाशवाणी केन्द्र में ऑडिशन आर्टिस्ट, जननाट्य मंच के संस्थापक सदस्य, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निर्देशक, हिंदी सलाहकार समिति, ऊर्जा मंत्रालय, भारत सरकार, हिमाचल कला संस्कृति, भाषा अकादमी के सदस्य और दूरदर्शन के कई एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों, वृत्तचित्र, टेलीफिल्मों के निदेशक व धारावाहिकों के लेखक भी रहे हैं. हिंदी के विश्व-मंच पर उनकी वाचिक परंपरा के शीर्ष कवियों में महत्वपूर्ण पहचान है.

अशोक चक्रधर के बारे में लोकप्रिय कवि ‘कुंअर बेचैन’ लिखते हैं, “अशोक चक्रधर ऐसी आंख है, जिससे कुछ छिपता नहीं… ऐसा वृक्ष हैं, जिसकी छाया में विश्राम और शांति मिलती है… ऐसा दरिया हैं, जिसकी लहरों पर हम अपने प्रयत्नों और सपनों की नाव सरलता से तैरा सकते हैं… प्रेम का ऐसा बादल हैं, जो सब पर बरसता है… पसीने की ऐसी चमकदार बूंद हैं, जो श्रम-देवता के माथे की शोभा बढ़ाती है… ऐसी सुबह हैं, जिसके पास आकर नींद खुलती है… ऐसी नींद हैं, जो नए सपने जगाती है… और ऐसा फूल हैं, जो हर पल महकता है, खिलता है और दूसरों के होंठों को अपनी खिलखिलाहट देता है…”

अशोक चक्रधर मूलतः उत्तर प्रदेश के उपनगर खुर्जा के रहने वाले हैं. उनके पिता डॉ. राधेश्याम ‘प्रगल्भ’ भी कवि थे. बचपन से ही उन्हें पिता का साहित्यिक स्नेहाशीष मिला और उन्होंने पिता की परंपरा को आगे बढ़ाया. वह दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में हिंदी और पत्रकारिता विभाग के प्रोफेसर, केन्द्रीय हिंदी संस्थान तथा हिन्दी अकादमी दिल्ली के उपाध्यक्ष भी रहे हैं. आपको बता दें, कि उन्होंने साठ के दशक में रक्षामंत्री ‘कृष्णा मेनन’ के सामने अपना पहला कविता-पाठ किया और उसी दशक में उन्होंने राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी की अध्यक्षता में कविसम्मेलन के मंच से पहला कविता पाठ भी किया था. चक्रधर ने वीररस पूर्ण अपनी कविता सुनाई जो उस समय लोगों के बीच काफी पसंद की और उसके बात वह ‘बालकवि अशोक’ कहलाने लगे.

एक कवि-सम्मेलन के बाद डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने जब अशोक चक्रधर से कहा, “स्वयं लिखो, पिता की कविताएं मत सुनाओ.” टीस पैदा कर देने वाली इस बात से चक्रधर को ठेस तो बहुत पहुंची, लेकिन उन्होंने इस बात को रचनात्मक रूप में लिया और मन में खुशी की एक लहर भी थी, कि अभी से उनकी कविता का स्तर ऐसा है कि उनके पिता जैसे वरिष्ठ कवि की लगती है. उनके स्वभाव की एक खासियत है कि वह स्पष्टवादी हैं, जो भी बात करते हैं बिल्कुल स्पष्टता और बेबाकी से करते हैं. वह यह नहीं सोचते कि सुनने वाले को बुरा लगेगा या भला और यही वजह है कि उन्हें पसंद करने वालों की एक लंबी कतार है. वह आज जो कुछ भी हैं उसमें उनकी खुद्दारी का महत्वपूर्ण योगदान है. उन्होंने कभी किसी राजनीतिक पार्टी का आश्रय नहीं लिया, जिसका बड़ा उदाहरण है बिहार के मुख्मंत्री लालू यादव पर तीखा व्यंग्य करती ‘गुदड़ी का लाल’ कविता और अटलबिहारी वाजपेयी के सत्ता में बने रहने पर सासंदों को संतुष्ट करने के चक्कर में मंत्रिमंड का विस्तार करने की नीति का मज़ाक उड़ाती ‘मंत्रिमंडल का विस्तार’ कविता.

चक्रधर को कई बड़े पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है, जिनमें ‘पद्मश्री सम्मान’, ‘ठिठोली पुरस्कार’, ‘हास्य-रत्न’, ‘काका हाथरसी हास्य पुरस्कार’, ‘टीओवाईपी अवार्ड’, ‘पं.जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय एकता अवार्ड’, ‘मनहर पुरस्कार’, ‘बाल साहित्य पुरस्कार’, ‘टेपा पुरस्कार’, ‘राष्ट्रभाषा समृद्धि सम्मान’, ‘हिन्दी उर्दू साहित्य अवार्ड’, ‘दिल्ली गौरव’ और ‘राजभाषा सम्मान’ प्रमुख हैं. मंच की कविता का अपना गुणा-भाग और भूगोल है. जिन नामों के बिना मंच और मंच की कविताएं दोनों अधूरी लगती हैं, उनमें अशोक चक्रध्रर का नाम अग्रणी है.

1)
मंत्रिमंडल विस्तार
आप तो जानते हैं
सपना जब आता है
तो अपने साथ लाता है
भूली-भटकी भूखों का
भोलाभाला भंडारा.

जैसे
हमारे केन्द्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार
हे करतार!
सत्तर मंत्रियों के बाद भी
लंबी कतार.

अटल जी बोले—
अशोक!
कैसे लगाऊं रोक?
इतने सारे मंत्री हो गए,
और जो नहीं हो पाए
वो दसियों बार रो गए.
इतने विभाग कहां से लाऊं,
सबको मंत्री कैसे बनाऊं?

मैंने कहा—
अटल जी!
जानता हूं
जानता हूं, आपकी पीड़ा,
कॉकरोच से भी ज़्यादा
जानदार होता है—
कुर्सी का कीड़ा!
कुलबुलाता है, छटपटाता है,
पटकी देने की
धमकी से पटाता है.
मैं जानता हूं
कुर्सी न पाने वाले
घूम रहे हैं उखड़े-उखड़े,
और ख़ुश करने के चक्कर में
अपने किए हैं
एक-एक विभाग के
दो-दो टुकड़े.
मेरे सुझाव पर विचार करिए
अब दो के चार करिए.
वे बोले—
कैसे?

मैंने कहा—
ऐसे
जैसे आपने
मानव संसाधन से
खेलकूद मंत्रालय अलगाया है,
इस तरह से
एक कैबिनेट मंत्री बढ़ाया है.
अब ये जो मंत्रालय है
खेलकूद का
यहां दो लोग मज़ा ले सकते हैं
एक अमरूद का.
एक को बनाइए खेल मंत्री,
दूसरे को कूद मंत्री.
सारा काम लोकतंत्री!!

अटल जी बोले—
अशोक!
इसी बात का तो है शोक.
अपने काबीना में
जितने मंत्री हैं
आधे खेल मंत्री
आधे कूदमंत्री हैं.
असंतुष्ट
दुष्ट खेल, खेल रए ऐं,
वक्ष पर
प्रत्यक्ष दंड पेल रए ऐं.
हमीं जानते ऐं कैसे झेल रए ऐं.

मैंने कहा—
बिलकुल मत झेलिए.
खुलकर खोलिए.
सबको ख़ुश करने के चक्कर में
लगे रहे
और विहिप की व्हिप पर
सिर्फ़ राम नाम जपना है,
तो याद रखिए
सत्ता में बने रहना
सपना है.

देश को नहीं चाहिए
कोई व्यक्तिगत
या धार्मिक वर्जना,
देश को चाहिए
हर क्षेत्र में सर्जना.
देश को नहीं चाहिए
फ़कत उद्घोषण,
देश को चाहिए
जन-जन का पोषण.

2)
मतपेटी से राजा
भूतपूर्व दस्यू सुन्दरी,
संसद कंदरा कन्दरी!

उन्होंने एक बात कही,
खोपड़ी
चकराए बिना नहीं रही.
माथा ठनका,
क्योंकि
वक्तव्य था उनका
सुन लो
इस चंबल के बीहड़ों की
बेटी से
राजा
पहले पैदा होता था
रानी के पेट से
अब पैदा होता है
मतपेटी से.

बात चुस्त है,
सुनने में भी दुरुस्त है,
लेकिन अशोक चक्रधर
ये सोचकर शोकग्रस्त है
सुस्त है,
कि राजतंत्र
हमने शताब्दियों भोगा
पेट से हो या पेटी से
क्या इस लोकतंत्र में
अब भी
राजा ही पैदा होगा?

जब भी
इतिहास का
कोई ख़ून रंगा पन्ना
फड़फड़ाया है,
उसने हास-परिहास में नहीं
बल्कि
उदास होकर बताया है—
राजा माने
तलवार,
जब जी चाहे प्रहार.
राजा माने,
गद्दी,
हरम की परम्पराएं भद्दी.
आक़ा-आकाशी,
सेनापतियों सिपहसालारों की अय्याशी.
राजा माने क्रोध,
मदांध प्रतिशोध.
राजा माने
व्यक्तिगत ख़ज़ाना,
लगान वसूलने को
हथेली खुजाना
राजा माने बंदूक
जो निर्बल पर अचूक

मतपेटी से निकले
राजा और रानी वर्तमान में,
साढ़े पांच सौ हैं.
संविधान में
भूतपूर्व दस्यू सुन्दरी और वर्तमान रानी!
दोहरानी नहीं है.
कोई पुरानी कहानी.

अनुरोध है कि
प्रतिशोध को
जातिवादी कढ़ाई में मत रांधना
मतपेटी से निकल कर
कमर पर पेटी मत बांधना.

हमारा लोकतंत्र बड़ा फ़ितना है,
और कवि का सवाल
सिर्फ़ इतना है,
मेहरबानी होगी
अगर आप बताएंगे,
कि प्रजातंत्र में
मतपेटी से
प्रजा के राजा नहीं
शोषित,
पीड़ित
कराहती हुई
अपने लिए
सुख-चैन चाहती हई
प्रजा के सेवक
कब आएंगे?

इस प्रजातंत्र में
प्रजा के सेवक कब आएंगे?

3)
हंसना-रोना
जो रोया
सो आंसुओं के
दलदल में
धंस गया,
और कहते हैं,
जो हंस गया
वो फंस गया

अगर फंस गया,
तो मुहावरा
आगे बढ़ता है
कि जो हंस गया,
उसका घर बस गया.

मुहावरा फिर आगे बढ़ता है
जिसका घर बस गया,
वो फंस गया!
…और जो फंस गया,
वो फिर से
आंसुओं के दलदल में
धंस गया!!

4)
परदे हटा के देखो
ये घर है दर्द का घर, परदे हटा के देखो,
ग़म हैं हंसी के अंदर, परदे हटा के देखो.

लहरों के झाग ही तो, परदे बने हुए हैं,
गहरा बहुत समंदर, परदे हटा के देखो.

चिड़ियों का चहचहाना, पत्तों का सरसराना,
सुनने की चीज़ हैं पर, परदे हटा के देखो.

नभ में उषा की रंगत, सूरज का मुस्कुराना
ये ख़ुशगवार मंज़र, परदे हटा के देखो.

अपराध और सियासत का इस भरी सभा में,
होता हुआ स्वयंवर, परदे हटा के देखो.

इस ओर है धुआं सा, उस ओर है कुहासा,
किरणों की डोर बनकर, परदे हटा के देखो.

ऐ चक्रधर ये माना, हैं ख़ामियां सभी में,
कुछ तो मिलेगा बेहतर, परदे हटा के देखो.

5)
गति का कुसूर
क्या होता है कार में-
पास की चीज़ें पीछे दौड़ जाती है
तेज़ रफ़तार में!
और ये शायद
गति का ही कुसूर है
कि वही चीज़
देर तक साथ रहती है
जो जितनी दूर है.

Tags: Book, Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Literature, Padma Shri

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