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काशी की विश्वविख्यात देवदीपावली की तारीख को लेकर नई रार शुरू हो गई है। देवदीपावली मनाने वाली और घाटों पर दीया सजाने का जिम्मा लेने वाली सैकड़ों संस्थाओं ने बैठक कर विद्वत परिषद की तारीख मानने से इनकार कर दिया है। ऐसे में देवदीपावली की तारीख पर असमंजस एक बार बढ़ गया है। विद्वत परिषद ने पिछले हफ्ते ही देवदीपावली के लिए 26 नवंबर की तारीख तय की थी। अब इन संस्थाओं ने 27 नवंबर को देवदीपावली मानने की घोषणा कर दी है।
दशाश्वमेध स्थित गंगा सेवा निधि के कार्यालय में तीर्थपुरोहित पं.ड्ट किशोरीरमण दूबे ‘बाबू महाराज’ की अध्यक्षता में बैठक हुई। इसमें परंपरा को ध्यान में रखते हुए देवदीपावली 27 नवंबर को ही मनाने का सर्व सम्मत निर्णय हुआ। वक्ताओं ने कहा कि इस वर्ष अलग-अलग पंचांग में तिथि भेद के चलते 26 एवं 27 नवंबर को कार्तिक पूर्णिमा पर देव दीपावली का जिक्र है। ऐसी ही समस्या एक बार पूर्व काशी नरेश डॉ.विभूति नारायण सिंह एवं गंगा सेवा निधि के संस्थापक स्मृति शेष पं. सत्येंद्र मिश्रा के समय में भी आई थी।
उस समय विद्वानों से परामर्श के बाद उदया तिथि की पूर्णिमा को देवदीपावली आयोजन का निर्णय हुआ था। जब भी दो दिन कार्तिक पूर्णिमा पड़ी है, तब उदया तिथि की पूर्णिमा को देवदीपावली महोत्सव मनाया गया है। इस परंपरा के अनुसार इस वर्ष 27 नवंबर को देवदीपावली मनाने का निर्णय लिया गया। तय हुआ कि प्रशासन एवं पर्यटन व्यवसाय से जुड़े लोगों को इस निर्णय की जानकारी देंगे।
विद्वत परिषद ने क्यों दी 26 नवंबर की तारीख
इससे पहले 19 सितंबर को श्रीकाशी विद्वत परिषद ने 26 नवंबर को देवदीपावली उत्सव मनाने पर मुहर लगाई थी। विद्वत परिषद के ज्योतिष प्रकोष्ठ की बैठक में पूर्णिमा की स्थिति एवं सूक्ष्म मान को आधार बनाकर धर्म शास्त्रों का आश्रय लिया गया।
वरिष्ठ उपाध्यक्ष प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय की अध्यक्षता में देव दीपावली 26 नवंबर को ही मनाने का सर्वसम्मति से निर्णय हुआ था। प्रो. विनय कुमार पाण्डेय ने सर्व मान्य तिथि पर निर्णय का विषय विद्वतजनों के समक्ष रखा। उस पर विभिन्न शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर सर्व सहमति बनी। बैठक में शास्त्रों में वर्णित विविध पक्षों पर चर्चा हुई।
विद्वत परिषद का अभिमत है कि कुछ लोग सभी पर्व उदया तिथि से ही मनाने पर जोर देने लगे हैं जो सर्वथा गलत है। जबकि, कभी-कभी एक ही तिथि में अनेक व्रत-पर्व वर्णित होते हैं। काल भेद से उनमें कुछ मध्याह्न व्यापिनी, कुछ प्रदोष व्यापिनी तो कुछ उदया तिथि में मनाए जाते हैं।
व्रत-पर्वों के संबंध में विशेष निर्देश
सनातनी शास्त्रों में अलग-अलग पर्वों के संबंध में विशेष निर्देश दिए गए हैं। कार्य एवं व्रतादि के भेद से आचार्यों ने इन तिथियों के उदय, अस्त, मध्यरात्रि तथा मध्यदिन कालिक इत्यादि का पृथक पृथक विवेचन किया है। रामनवमी में मध्याह्न कालिक, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी में अर्धरात्रि, दीपावली में प्रदोष कालिक अमावस्या का मान किया जाता है।
इसी तरह से कार्तिक पूर्णिमा पर भी अनेक व्रत-पर्व का वर्णन मिलता है। उनमें त्रिपुरोत्सव यानी देवदीपावली अति विशिष्ट है। काशी में इसका विशिष्ट स्थान है क्योंकि शिव के त्रिपुरासुर वध के बाद देवताओं ने काशी में ही दीप जलाकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की थी। इसका कई धर्मशास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है। शास्त्रों में कहा गया है कि त्रिपुरोत्सव सांध्यव्यापिनी पूर्णिमा में ही मनाया जाना चाहिए।