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Israel vs Palestine Hamas War: इजरायल बनाम हमास की जंग में भारत ने किसी भी एक पक्ष की तरफदारी नहीं की है। हालांकि, इस महायुद्ध ने एक ऐसे शख्स की याद दिला दी है, जिसने फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष में अपना जीवन न्योछावर कर दिया। वह शख्स हिंसक रास्ते अख्तियार करने के बाद इजरायल और फिलिस्तीन के बीच शांति का पक्षधर बनकर उभरा था। उस शख्स को दुनिया यासिर अराफात के नाम से जानती है, जिनके भारत से अच्छे ताल्लुकात थे और भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को वह बड़ी बहन मानते थे। यासिर अराफात ने 1964 में कई संगठनों को मिलाकर फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) बनाया था। इसका मकसद फिलिस्तीनियों के लिए अधिकार हासिल करना था।
दरअसल, फिलिस्तीनी मुद्दे के लिए भारत का समर्थन देश की विदेश नीति का एक अभिन्न हिस्सा रहा है। 1974 में, जब फिलिस्तीन मुक्ति संगठन और उसके नेता यासिर अराफात को ‘आतंकवादी’ कहकर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में बदनाम किया जा रहा था, तब भारत ने उनका साथ दिया था और फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) को फिलिस्तीनी लोगों के एकमात्र और वैध प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देने वाला पहला गैर-अरब देश बन गया था। इसके बाद भारत ने 1988 में, भारत ने फिलिस्तीन को मान्यता देने वाले पहले देशों में से एक बन गया। बाद में 1996 में भारत ने गाजा में अपना प्रतिनिधि कार्यालय खोला, जिसे बाद में 2003 में रामल्ला में स्थानांतरित कर दिया गया।
गांधी-नेहरू के क्या थे विचार
भारत की फिलिस्तीन नीति स्वतंत्रता-पूर्व के दिनों की बात है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, यहूदियों के लंबे उत्पीड़न के प्रति अपनी गहरी सहानुभूति व्यक्त करते हुए, महात्मा गांधी ने 1938 में कहा था, “फिलिस्तीन का अरबों से वैसा ही संबंध है, जैसा इंग्लैंड का अंग्रेजी से या फ्रांस का फ्रेंच से है”। जवाहरलाल नेहरू ने भी जेल से बेटी इंदिरा को लिखते समय, फिलिस्तीन मुद्दे को भारतीय उपमहाद्वीप की सांप्रदायिक समस्याओं के समान बताया था। जब नेहरू प्रधानमंत्री बने तो भारत ने आधिकारिक तौर पर स्वतंत्रता के बाद की विदेश नीति में फिलिस्तीनी मुद्दे को अपना सैद्धांतिक समर्थन जारी रखा। कांग्रेस की सरकारों ने हमेशा से फिलीस्तीन की मांगों का समर्थन किया है। यही वजह थी कि यासिर अराफात भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपनी बड़ी बहन मानते थे।
संयुक्त राष्ट्र ने दिया था अभूतपूर्व सम्मान
13 नवंबर 1974 का दिन यासिर अराफात के लिए खास था। फिलिस्तीन मुक्ति संगठन के नेता अराफात को तब संयुक्त राष्ट्र की महासभा के अंतिम सत्र में संबोधन देने के लिए बुलाया गया था। वह दुनिया के पहले ऐसे शख्स थे, जो किसी भी देश का राष्ट्राध्यक्ष नहीं रहते हुए भी UN महासभा को संबोधित करने जा रहे थे। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक यासिर अराफात ने उस दिन ऐसा कुछ किया था, जैसा उन्होंने कभी नहीं किया था।
अराफात के करीबी और फिलीस्तीनी प्रशासन के पहले विदेश मंत्री रहे नाबिल साद के हवाले से रिपोर्ट में कहा गया कि अराफात ने उस दिन अपनी दाढ़ी क्लीन शेव कर ली थी, जो उन्होंने इससे पहले नहीं किया था और उन्होंने नया सूट भी पहना था। उसी दिन अपने संबोधन में अराफात ने शांति बहाली की दिशा में यूएन महासभा से अपील की थी जैतून की साख गिरने मत दीजिएगा।
दो शिफ्टों में सोते थे अराफात
रिपोर्ट में कहा गया है कि अराफात हमेशा फौजी लिबास में रहते और चौकन्ना रहते थे। वह दो शिफ्टों में सोते थे। सुबह 4 बजे से 7 बजे तक और शाम 4 बजे से 6 बजे तक। इसलिए वह रात में चौकन्ना रहते थे। गाजा में भारतीय राजनयिक रहे चिन्मय गरे खान के मुताबिक अराफात अक्सर रात में ही मिला करते थे। वह फौजी लिबास में रातभर जागते रहते थे और अपनी वर्दी पर रिवॉल्वर लटकाए रखते थे।
दोस्त नहीं बड़ी बहन
भारत के पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह के मुताबिक, जब मार्च 1983 में नई दिल्ली में गुटनिरपेक्ष देशों का सम्मेलन हो रहा था, तब अराफात इस बात पर नाराज हो गए थे कि उनसे पहले जॉर्डन से शाह को क्यों भाषण देने दिया गया। उन्हें लगा था कि उनका अपमान हुआ है। वह नाराज होकर विमान पकड़ने जा रहे थे। तभी सूचना पाकर इंदिरा गांधी फिदेल कास्त्रो के साथ विज्ञान भवन पहुंच गए। वहां कास्त्रो ने यासिर अराफात से पूछा कि इंदिरा तुम्हारी दोस्त है या नहीं तो, अराफात ने तपाक से कहा था दोस्त नहीं, बड़ी बहन है। फिर कास्त्रो ने कहा कि तुम बहन की बेइज्जती कर रहे हो। इतना सुनते ही अराफात फौरन मान गए थे।
तब खूब रोए थे अराफात
31 अक्टूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई थी। 3 नवंबर को उनका नई दिल्ली में अंतिम संस्कार हो रहा था, तब 127 देशों के नेता इंदिरा को श्रद्धांजलि देने उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए थे। उस वक्त यासिर अराफात खूब रो रहे थे। मीडिया के कैमरों में वह अपनी पगड़ी से अपना आंसू पोछटे नजर आए थे। बाद में उन्होंने राजीव गांधी को 1991 के चुनाव में प्रचार करने की भी पेशकश की थी।
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