Friday, December 20, 2024
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पूरब के कस्बाई जीवन से लेकर मुंबई के महानगरीय एकाकीपन की कहानी कहती है शैलजा पाठक की किताब ‘पूरब की बेटियां’


पूरब की बेटियां किताब जिस पूरब को पाठकों के सामने लाती है, वह कोई दिशा नहीं, एक भौगोलिक-सांस्कृतिक क्षेत्र है. उसकी सामाजिक संरचना में बेटियों के क्या मायने हैं, क्या दर्जा है, शैलजा पाठक कथेतर विधा की अपनी पहली किताब में बहुत महीन ढंग से परत-दर-परत खोलती हैं. बचपन से बुढ़ापे तक का स्त्री-जीवन ही नहीं, तीन पीढ़ियों की स्त्री-दशा कम-से-कम शब्दों में जीवन्त कर देती है.

शैलजा अपनी दृश्य-भाषा में बाइस्कोप दिखाती हैं, जैसे- पूरब के क़स्बाई जीवन की सामूहिकता से लेकर मुम्बई के महानगरीय एकाकीपन तक के त्रास का. उस ‘स्त्री’ का जिसे ‘विमर्श’ की किसी परिभाषा में अंटा देना अभी संभव नहीं हो सका है. शैलजा स्मृतियां डायरी की तरह लिखती हैं और अपनी बात को आमने- सामने हुई मुलाक़ात की तरह कहती हैं. उनकी लिखने की भाषा कहने-सुनने के लहजे में है, जैसे- एक ही साथ भावप्रवण, यथार्थपरक, ईमानदार, कठोर और गुलाबजल भिंगोया रुई का फाहा.

‘पूरब की बेटियां’ को पढ़ते हुए हमारे मानस की पीढ़ियों की नींद में खलल पड़ता है. अपने किरदार को परखने और स्त्री-मन को महसूस करने के लिए पढ़ी जाने वाली एक संवेदनात्मक स्मृति-कथा है. यह किताब हंसाते हुए रूलाती है और रूलाते हुए सवालों से बेधती है. प्रस्तुत है किताब से दो स्मृति कथाएं

‘अक्टूबर कथा’

बरस बड़ा लम्बा समय लगाकर आता था वापस
अक्टूबर का आख़िरी हफ़्ता बड़े बक्से को खोल रज़ाई-गद्दा निकालने का होता. मौसम की करवट से हमारे हाथों और चेहरे पर रूखी सलवटें पड़ने लगतींअब कटोरी भर तेल लेकर एक-दूसरे को लगाते हमनारियल तेल ने हमारे सुन्दर-सलोने सौन्दर्य को बचाए रखाजबकि अम्मा अफ़गान स्नो लगाती थींतभी हमारे नॉलेज में चार्मीज क्रीम आईबस, नॉलेज में आई; घर में नहींहमारा इकलौता गुलाबी कार्डिगन निकलता. उसमें बड़े-बड़े गुलाबी बटन लगे थे. जिन्हें आपस में रगड़ने से एक मीठी महक आती, जैसे चॉकलेट. रज़ाई धूप में डाली जातीहम पिताजी का इकलौता कोट पहन इतराते. अम्मा की मखमल वाली शॉल से गाल को मुलायम करते.

सर्दी बढ़ती और कोयले का ख़र्च भी . अब ज़्यादा कोयला आतालकड़ी का कोयला हाथ तापने के लिए आतातेज़ सर्दी के आने के पहले की तैयारी गर्म होती.

इस बीच दीवाली आती. छत के कोने-अंतरे में रखी ढिबरी निकाली जाती. टूटने-बचने के क्रम में कम-से-कम पन्द्रह-बीस ढिबरी की मस्त सर्फ़ पानी में सफ़ाई होती. तब त्योहार सब पर रंग छोड़ते. सबके उत्साह बराबर होते. हम ‘अपना स्पेस’ वाले युग में नहीं थे. हम सब एक साथ सबके स्पेस में मुंडी घुसाए रहते .

दोपहर में अम्मा की प्लानिंग होती. आजकल की किसी पार्टी की प्लानिंग की तरह. गणेश-लक्ष्मी ख़रीदारी की लिस्ट में पहले विराजते . फिर चूड़ा, गट्टा, बताशा, चीनी, मिठाई और पटाखा . पटाखे का बजट छोटा था . बहुत छोटा. जैसे चार फुलझड़ी, चार जलेबी, सांप का डिब्बा और दो डिबिया चटपटिया. इसमें भी लड़ाई हो जाती कि डिब्बी में पचास बिन्दी की तरह वाले चटपटिया का बंटवारा सही नहीं होता .

हमें समाचार सुनकर या कैलेंडर देखकर नहीं जानना था कि कब कौन त्योहार आ रहा. घर की औरतें सजग रहतीं और सही जानकारी रखतीं . दाल-भात, रोटी-तरकारी से अलग पूड़ी, तरकारी, खीर के पकवान से हम मताये रहते.

मुहल्ले में अखंड जोत की तरह त्योहारों का आना होता. त्योहारों ने हमें साथ ख़ुश रहना सिखाया. मेहमानों की आवभगत सिखाई. मिले पैसों से बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाना भी सिखाया. जबकि पैसे गोलगप्पे में निपट जाते, पर हम चाहते कि कुछ और जुड़ते तो झालर वाला स्कर्ट आ जाता.

सिक्सटीज़ की फ़िल्मों की तरह दरवाज़े के बाहर हम भाई-बहन फुलझड़ी जलाते. सुनहरी चिनगारी से आंखें चमक उठतीं . हम जलेबी के साथ उससे दो चक्कर ज़्यादा ही नाचने वाले बच्चे थे. हम खुल के मज़े लेते. तब इतना मैनर नहीं सिखाया जाता कि ज़िन्दगी का मज़ा ही औपचारिक जाए.

हमारी बेलौस नींद में अम्मा ही हमारी परी थीं, जिनके बर्तन मांजने की आवाज़ सर्द रातों में आती रहतीअब न जाने वो बच्चे हैं भी या नहीं जो रात में सोते हुए सबेरे मिलने वाले नमकीन परांठे और चाय का इन्तज़ार करते हों.

हमसे बचपन गुलज़ार था हमसे त्योहारों में रौनक थी. मन्दिर के दीये के हमीं चोर थेबरसों उस ख़ुशबू से मन भीगा रहता.

बरस बड़ा लम्बा समय लगाकर आता था वापस…

बीत गए दिन फिर न लौटे
अक्टूबर की एक ख़ास गन्ध होती है. इसी महीने गुलाबी सदी दस्तक देती. हवा नम होती. मौसम भोर की आहट पर भागलपुरी अंटी में दुबक जाने जैसाहम सुबह रात के बर्तन के ढेर को मज़े से मॉज स्कूल चले जाते.

रामलीला आगमन वाला महीनाकैसा रसिक शहर था! सीधे राजा दशरथ से संवाद रहता——का रजा, जब सीता- बियाह होई, तब बताया. आवल जाई देखेदशरथ नई सड़क पर दतुवन ख़रीदते मुस्किया देते.

सारा शहर लीला कर रहा. हम अम्मा के आगे पिछली रात हुई लीला को फिर से करके दिखाते. इन दिनों मेले की आहट हो जाती और सबसे ज़्यादा तीर-धनुष और गदा बिकते. हर घर राम. हर घर सीता ग़ायब. एक कमरे के लगातार चक्कर से हम वनगमन से लंका तक की कहानी रच लेतेहम चलती-फिरती लीला मंडली. तुतला के बोलने से लेकर रावण तक का वध करने वाले. और धनुष तो हम खटिया के नीचे ही रखकर सोते.

यह पूरा महीना झूठ पर सच की जीत के नाम होता. हम राम की तरह लम्बे-लम्बे डग भरते रसोई तक पहुंचते. हम सीता की तरह अम्मा के पीछे-पीछे घर-आंगन धूप-छांव चलते . हम राम का नाम लेकर भवसागर पार करने को दिल में उतार लिए थे.

नई सब्ज़ियों के आने की मीठी आहट होती . कैसा सुखद बचपन था जो सब्ज़ियों की आमद से ख़ुश रहता! अब मटर पकने लगेगी. छीमी से कैसे नाज़ुक दुलार से दाने अलग किये जाएंगे. दुधाइन दानों को अम्मा हम भाई-बहनों को खाने को देंगी. अहा, क्या सुख है!

इस अक्टूबर में ही हरसिंगार पर कान के टॉप्स की तरह ‘वाले सुबहें ओस-सी नरम होतीं . यह लम्बी छुट्टी मिलने का महीना होता. रामराज्य के बाद ही स्कूल फूल आते.

जाते हम.

कैसी अकथ कथा कि हमने बाद में सीता के बारे में जानने वाली लीला ही नहीं खेली. यह पक्ष स्याह रहा . कितनी सीताओं का अपार दुख सामने ही था! कितनी ही धरती में समा गईं.

इस महीने हमारे गांव से लोग आते. दशहरा देखने. भरत मिलाप देखने. अम्मा बताती रहतीं कि रामनगर के राजा तक रामलीला देखते हैं.

इस पूरे महीने पैर ज़मीन पर न होते हमारे . धनुष हर घड़ी कंधे पर . हम बुराई को जड़ से मिटाने को वचनबद्ध . हमारे ही धनुष से रेखा खींच हम उस पार की सीता को सबसे बचा सकते थे. काश, सरकंडे का वह तीर और वही आस्था-विश्वास बचा होता तो कितना कुछ बचा लेते!

अगले दिन के अख़बार में एक या दो फ़ोटो छपती पिछली रात की . हम बस उसी को फॉलो करते .

इसी महीने कितनी बार ऐसा होता कि मेरी बहन लौटती ससुराल से . सुबह की गाड़ी से चाचा आते. ख़ूब ज़ोर से दरवाज़े की सांकल बजती. हम सारे खटिया छोड़ दरवाज़े तक आ जाते. तब कोई आता तो पूरे घर को पता चलता. आज जैसे बच्चे एक हेलो बोलकर एहसान करते और अपने कमरे में चले जाते, ऐसा बेदिल समय नहीं था वह !

चिड़ियों की चहचह के पहले, ओस के पत्ते पर ठहरने के पहले, लजाते पत्तों के खुलने के पहले सबसे फ़ेवरेट चाचा आते. आंगन में हम सबकी एक खटिया होती. नींद की प्राइवेसी चाहिए किसे थी! हम उनके कंधे पर लटक जाते. ‘सबकरा खातिर गिफ्ट आइल बा’ – उनके भानुमती वाले बैग से नेपाल वाला माल निकलता. कोई पेन, कोई अतरंगी पेंसिल, कोई पेंसिल बॉक्स. हम उनको पूरा नोच लेते—’चाचा, ‘टाफी?’

चाचा हर बार मुस्कराते और एकदम तरसा-तरसा के हमें चीजें देते. अब कमबख़्त समय ही वह न रहा कि आए रिश्ते को हथेली पर रख लो. इतना लाड़ करो कि आती चिट्ठियों में अलग होने की उदासी हो .

इसी अक्टूबर में अम्मा चाचा के लिए निमोना बनातीं . एकदम तीखे ज़ायक़े का. रसोई-पीढ़ा पर दोनों भाई बैठते. अम्मा खाना परोसतीं . अम्मा चाचा से चुहल करतींचाचा हर मज़ाक़ पर चुकन्दर की तरह लाल नाक और गाल वाले हो जातेकैसी आत्मीय रसोई, कितना आत्मीय मज़ाक़ ! वैसे दिन बीत गए और फिर नहीं लौटे…

स्मृति कथा-संग्रह : पूरब की बेटियां
लेखक : शैलजा पाठक
प्रकाशक : राजकमल पेपरबैक्स
मूल्य : 199 रुपए

Tags: Banaras, Book, Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer



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