25 अगस्त, 1962 को बांग्लादेश के मैमनसिंह कस्बे में जन्मीं तसलीमा नसरीन ने मैमनसिंह मेडिकल डिग्री कॉलेज से एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई की और 1986 से लेकर 1993 तक सरकारी अस्पतालों में नौकरी की. ‘नौकरी करनी है तो लिखना छोड़ना होगा’ इस सरकारी निर्देश पर उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया. आपको बता दें कि तसलीमा ने स्कूल जीवन से ही लेखन शुरू कर दिया था, कई सालों तक कविता-पत्रिकाओं का संपादन किया और साल 1986 में उनका पहला काव्य-संग्रह प्रकाशित हुआ. उसके बाद उन्होंने गद्य लेखन में कदम रखा.
धर्म, पितृतंत्र और औरत की आजादी की बात करने वाली तसलीमा ने अपने लेखन के द्वारा साफ-साफ लफ्ज़ों में कई तरह की सच्चाईयों को उजागर किया. जिसके चलते मुस्लिम समाज के पुरातनपंथी धार्मिक लोगों ने उन पर हमले ही नहीं किए बल्कि उनकी देश-व्यवस्था और पुरुष-प्रधान समाज ने भी उनके खिलाफ जंग का एलान कर दिया. कट्टर धार्मिक मौलवी मुल्लाओं ने तो तसलीमा के लिए फांसी की मांग करते हुए देश-भर में आंदोलन तक छेड़ दिया और उनके सिर का मूल्य भी घोषित कर दिया. जिसका नतीजा यह हुआ कि तसलीमा को अपने ही देश (बांग्लादेश) से निर्वासित होना पड़ा और यूरोप व संयुक्त राज्य अमेरिका में एक दशक से अधिक समय तक रहने के बाद तसलीमा नसरीन 2004 में भारत आ गईं.
तसलीमा नसरीन द्वारा लिखी गई किताबें- ‘लज्जा’, ‘मेरे बचपन के दिन’, ‘उत्ताल हवा’, ‘द्विखंडित’ और ‘वे अंधेरे दिन’ को बांग्लादेश सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया. उन्होंने बहुत कुछ लिखा और और अपने लेखन में वो सबकुछ कहने की हिम्मत दिखाई, जिसे लिखना बिल्कुल आसान नहीं रहा उनके लिए.
साल 2002 में वाणी प्रकाशन ने तसलीमा नसरीन की किताब “छोटे-छोटे दु:ख” का पहला संस्करण प्रकाशित किया, जिसे भारी संख्या में लोगों ने पढ़ा. गौरतलब है, कि इस किताब में तसलीमा ने बांग्लादेश के गांवों और वहां की मुस्लिम महिलाओं की परेशानियों के बारे में साहसिक लेख लिखे और उन अनुभवों और घटनाओं की चर्चा की जो उनके आसपास से गुज़रे. किताब का एक चैप्टर ‘फतवाबाज़ों का गिरोह’ मुस्लिम समाज की उन महिलाओं का सच बयान करता है, जिनके गुनाह असल में गुनाह होते ही नहीं, लेकिन उसका खामियाज़ा मुस्लिम महिलाएं फतवों और मौलवियों की वजह से बेहद क्रूर तरीके से उठाती हैं. मुस्लिम धर्म में यदि महिलाओं की स्थिति को बहुत करीब से समझना है तो तसलीमा की किताब “छोटे-छोटे दु:ख” को पढ़ना बहुत ज़रूरी हो जाता है. आइए पढ़ते हैं इस किताब के कुछ अंश…
फतवाबाज़ों का गिरोह : तसलीमा नसरीन
सातक्षीरा के कालीगंज थाने का कालिकापुर गांव ! ख़ालिक मिस्त्री की सोलह वर्षीया बेटी, फिरोज़ा नदी में चिंगड़ी मछली के अंडे-बच्चे पकड़कर गृहस्थी में हाथ बंटाती थी. मछलियां पकड़ने के दौरान ही, कालीगंज थाने के ही बंदकाटी गांव के मछेरे हरिपद मंडल के बेटे, उदय मंडल से उसकी जान-पहचान हो गई. फिरोज़ा और उदय के संबंध अंतरंग हो गए.
एक रात, उदय मंडल, फिरोज़ा को घर ही रंगे हाथों पकड़ा गया. उस पर गाय चुराने का इल्ज़ाम लगाया गया. मुजीबर मेंबर के नेतृत्व में उसी रात ही पंचायत बैठी और उदय पर पंद्रह सौ रुपयों का जुर्माना ठोंका गया. उदय के अभिभावक रुपए देकर बेटे को छुड़ा ले गए. इधर एक और ई यू पी सदस्य, इम्तियाज़ अली ने जुर्माने का यह फैसला मंजूर नहीं किया. उसने चेयरमैन के जरिए यह निर्देश दिलाया कि जुर्माने की राशि, यानी पंद्रह सौ रुपए उन तक पहुंचा दिए जाएं. वैसे ख़ालिक मिस्त्री भी पूरे रुपए अदा नहीं कर पाया. उसमें से तीन सौ रुपए खर्च हो चुके थे. इसलिए उसने बेटे के हाथ बारह सौ रुपए भेज दिए. उसका बेटा जब चेयरमैन के पास पहुंचा, तो उसने उसकी बेतरह पिटाई की. चेयरमैन ने बताया कि वह फिरोज़ा के बाप का विचार, शरीयत मुताबिक करेगा, वर्ना उसके पिता को गांव छोड़कर जाना होगा. बहरहाल, गांव छोड़कर जाने के बजाय ख़ालिक मिस्त्री ने उनका फैसला ही मान लिया. पहली सितंबर, शाम को कालिकापुर गांव के वाजिद शेख के यहां फिर पंचायत बैठी. उस पंचायत में गांव के कई जाने-माने प्रतिष्ठित लोग और मौलाना भी मौजूद थे. बदकारी अहमदिया मदरसे के सुपरिटेंडेंट अब्दुर रहीम ने फतवा जारी किया, फिरोज़ा को बांस के एक खूंटे में बांधकर उसे सौ झाड़ू मारे जाएं. पंचायत में मौजूद सभी धार्मिक लोगों ने राय दी कि यह सज़ा बिल्कुल उचित है.
उस दिन सच ही फिरोज़ा की झाड़ू से बेतरह पिटाई की गई. ख़ालिक मिस्त्री भी अपनी आंखों से यह मंज़र देखे, इसलिए उसे भी सामने रखा गया. जब झाड़ू-पिटाई पूरी हो गई, तो फिरोज़ा अपनी बहन के कंधे का सहारा लिए हुए, अपने घर लौट गई. घर पहुंच कर उसने ज़हर खा लिया. वैसे उसने ज़हर खाया या नहीं, यह तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट से ही पता चलेगा. फिरोज़ा की बहन ने बताया कि फिरोज़ा ने घर आकर एक गिलास पानी पिया. उसके बाद उसने दम तोड़ दिया. ख़ैर, वह चाहे जैसे भी मरी हो, मर ही तो गई. अगर उसने आत्महत्या भी की, तो क्यों की? झाड़ू की पिटाई की वजह से ही न? फिरोज़ा की झाड़ू-पिटाई क्यों की गई? यह किस देश का न्याय है? इसे ही क्या न्याय कहते हैं? फिरोज़ा का आख़िर कसूर क्या था? गांव के मौलाना ने आखिर किस कसूर के लिए उसका विचार किया? किसी हिंदू नौजवान से कोई मुसलमान लड़की प्यार कर बैठी थी, क्या यही उसका गुनाह था? इस गुनाह पर उसे एक सौ एक झाड़ू की मार सहनी होगी? क्या उसने व्यभिचार का पाप किया था, इसलिए? जिस पाप के लिए सिर्फ औरत ही जिम्मेदार होती है, मर्द तो साफ पार पा जाते हैं. बहरहाल किस कसूर के लिए फिरोज़ा का विचार हुआ, मेरे पल्ले नहीं पड़ा.
मेरा खयाल है कि औरत को मारने-पीटने के लिए या उसे जान से खत्म कर देने के लिए, किसी गुनाह या कसूर की ज़रूरत नहीं पड़ती. पंचायत बिठाकर मौलाना लोग बस, फतवा जारी कर दें, हो गया. इस्लामी कानून के जरिए विचार- यह तो किसी के न माननेवाली बात ही नहीं है. देश का धर्म जब इस्लाम है, तब इस्लामी कानून गांव-गंज में सम्मान किया जाता है. विधर्मी से रिश्ता रखना, उन लोगों की नज़र में गुनाह होता है या इसी को व्यभिचार मानकर उसके लिए सज़ा तजबीज की गई है या यह सब कुछ भी नहीं, सैकड़ों मर्दों की आंखों के सामने सोलहसाला एक-एक लड़की को पीटने का कार्यक्रम ! वह लड़की धीरे-धेरे नीली पड़ेगी. फिर बैंगन हो जाएगी, दर्द से छटपटाएगी, रोएगी-चीखेगी- यही सब शायद मर्दों को मज़ा देता है. पंचायत के मर्द लोग एक लड़की की यंत्रणा का मज़ा लेंगे.
इसी तरह छातकछड़ा गांव की नूरजहां पर एक मौलाना के फतवे पर, कंकड़ बरसाए गए, कालिकापुर गांव की फिरोज़ा को एक मौलाना के फतवे पर सौ झाड़ुओं की मार खाकर मरना पड़ा ! आखिर कौन हैं ये मौलाना लोग? या तो मदरसों के सुपर, या मस्जिद के इमाम ! यानी ये लोग समाज के गण्यमान लोग हैं. इन लोगों को फतवा देने का हक आखिर किसने दिया है? इन बदमाशओं के फतवे गांववाले मान क्यों लेते हैं? गांव के चुने हुए चेयरमैन और सदस्यों में इस किस्म के अन्याय का ‘विचार’ करने की स्पर्धा आई कहां से? इन तमाम मौलाना और क्षमताशाली मेंबर-चेयरमैन के पीछे, कोई न कोई अदृश्य शक्ति ज़रूर होती है. वर्ना वे लोग ऐसा अजीब कांड करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. इस किस्म के विचार तो लगातार होते रहते हैं. हम लोगों को तो खबर तब होती है जब कोई औरत मर जाती है. फिर भी सभी मौतों की खबर हम तक पहुंचती भी नहीं. कुछ मौतें तो बिल्कुल खामोशी में घट जाती हैं. वह तो जो खबर छापने में कोई अख़बार उत्साह दिखाता है, हम लोग तो वही जान पाते हैं. उस खबर पर कुछेक दिन चीख-पुकार मचाते हैं. बस कुछ दिनों बाद सब थम जाता है, क्योंकि साधारण लोगों की चीख-पुकार से क्षमतासीन असाधारण लोगों को भला क्या फर्क पड़ता है? हां, दो-एक लोगों के लिए आपात् सज़ा का इंतज़ाम होता है. बाद में उन लोगों को भी रिहाई मिल जाती है. बहरहाल, बस सितंबर को कालिकापुर गांव से मौलाना और चेयरमैन को गिरफ्तार कर लिया गया है. लेकिन वे लोग आखिर कितने दिन हाजत या जेल में रहेंगे? हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि कट्टरवादी और सरकारी पार्टियों के हस्तक्षेप से, बहुत जल्द ही वे लोग रिहा हो जाएंगे. हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि फिरोज़ा की मौत के लिए, अंत में किसी को भी सज़ा नहीं मिलेगी. क्योंकि मौलाना और ई यू पी चेयरमैन, दोनों ही वर्तमान सरकार के प्रियभाजन हैं. सरकार उन लोगों के अपराध ‘अपने गुण’ मुताबिक ही माफ कर देगी. गुनहगार तो हमेशा फिरोज़ा जैसी औरतें ही होंगी. हमेशा नूरजहां जैसी औरतें ही होंगी. उन लोगों के अपराध की कोई सीमा नहीं है; कोई तल नहीं है ! हज़ारों-हज़ारों सालों से यही नियम चला आ रहा है ! किसी-किसी को अचानक फआंसी पर चढ़ा दिया जाता है. जैसे मुनीर के संदर्भ में हुआ ! वह भी इसलिए कि रीमा एक शहीद पत्रकार की बेटी थी ! जो बेटियां हर दिन मरती हैं, उन औरतों के पिता, शायद कोई बड़े पत्रकार नहीं होते; कोई दिहाड़ी मजदूर होते हैं, कोई किसान, कोई दीन-दरिद्र, अख्यात इंसान- उनकी बेटियों की मौत के लिए कभी, किसी को भी जेल या फआंसी नहीं होती.
फतवाबाज़ मौलाना हमेशा ही बच निकलते हैं. हालांकि इन लोगों का ‘विचार’ होना चाहिए, इन्हें सज़ा भी मिलनी चाहिए. इन लोगों ने हज़ारों फिरोज़ाओं की, नूरजहां की हत्या की है. समाज अगर स्वस्थ होना चाहता है, तो सबसे पहले फतवाबाज़ मौलाना नामक जीवाणु का नाश करना होगा.
टिड्डियों का दल जैसे समूची फसल नष्ट कर देता है, ये मौलाना लोग भी उसी तरह सोने के बंगाल के गांव-गांव तबाह कर डाले हैं. इन लोगों को अगर अब भी जड़ से उखाड़ नहीं फेंका गया, तो एक न एक दिन यह समूचा बांग्लादेश ध्वंसस्तूप में परिणत हो जाएगा. उस वक्त हाहाकार मचाने से भी कोई फायदा नहीं होगा. इसलिए हम सबको अभी से सतर्क होना होगा. फिलहाल, कालिकापुर गांव पर सजग दृष्टि रखनी होगी, उस फंसे हुए मौलाना और चेयरमैन की तरफ ! फतवा देने के जुर्म में उन लोगों को मृत्युदंड की सज़ा मिले.
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FIRST PUBLISHED : July 04, 2023, 22:15 IST