Home National भारत में कब हुई थी पहली बार जाति जनगणना? तब क्या रहा था उसका हासिल

भारत में कब हुई थी पहली बार जाति जनगणना? तब क्या रहा था उसका हासिल

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भारत में कब हुई थी पहली बार जाति जनगणना? तब क्या रहा था उसका हासिल

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First Caste Census: केंद्र की मोदी सरकार ने जाति जनगणना कराने का फैसला लिया है. जाति जनगणना को मूल जनगणना के साथ ही कराया जाएगा. हालांकि जनगणना की प्रक्रिया पूरी होने में एक साल का समय लगेगा. बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल की राजनीतिक मामलों की समिति (सीसीपीए) की बैठक के बाद केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इस बात का ऐलान किया. आजादी के बाद भारत में पहली बार जाति जनगणना करायी जाएगी.

यह कदम ऐसे समय उठाया गया है जब कांग्रेस लंबे समय से देश भर में जाति जनगणना की मांग कर रही है. राहुल गांधी ने पहले भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से 2011 की जाति आधारित जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने की मांग की थी. नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने साथ ही मांग की थी कि आरक्षण पर 50 फीसदी की सीमा को हटाया जाना चाहिए. कांग्रेस ने कहा कि उनका मानना ​​है कि जाति जनगणना से देश में सभी के लिए समान अवसर सुनिश्चित होंगे. पिछले साल सितंबर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) ने भी जाति जनगणना सर्वेक्षण के प्रति अपना समर्थन जताया था. आरएसएस ने कहा था कि इसका इस्तेमाल राजनीतिक या चुनावी उद्देश्यों के लिए नहीं किया जाना चाहिए.

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आखिरी बार कब हुई थी जाति जनगणना
पिछली जाति जनगणना 1931 में ब्रिटिश प्रशासन द्वारा की गई थी. 1901 की जनगणना के बाद यह पहली जनगणना थी. 1931 की जनगणना के अनुसार उस समय कुल 4,147 जातियां थीं. जनगणना में पता चला कि देश की कुल 27.1 करोड़ आबादी में से 52 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) थे. यह आंकड़ा 1980 में मंडल आयोग की शिक्षा और सरकारी नौकरियों में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने की सिफारिश का आधार बना, जिसे 1990 में ही लागू किया गया. जाति अभी भी भारतीय समाज की संरचना में महत्वपूर्ण विषय है. यह न केवल नस्ल और धर्म के प्रश्नों पर, बल्कि अर्थशास्त्र के प्रश्नों पर भी असंख्य तरीकों से प्रभाव डालती है. क्योंकि यह अभी भी अपने क्षेत्र में पैदा हुए प्रत्येक व्यक्ति के व्यवसाय, समाज और वैवाहिक जीवन को निर्धारित करने में अहम भूमिका है.”

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क्या थे उस जनगणना के मुख्य निष्कर्ष?
उस समय भारत की कुल जनसंख्या (अब पाकिस्तान और बांग्लादेश का हिस्सा बनने वाले क्षेत्रों सहित) लगभग 35 करोड़ थी. जनगणना में 4,147 अलग-अलग जातियों की पहचान की गई. इसमें अछूतों भी शामिल थे, जिन्हें बाद में अनुसूचित जाति कहा गया. इस संख्या में शामिल हैं, 300 से अधिक ईसाई जातियां और 500 मुस्लिम जातियां. हालांकि ज्यादातर जातियां मुख्य रूप से हिंदुओं और जैनियों से जुड़ी हुई हैं. इसमें 68 जातियों को उच्च जातियों द्वारा लागू की गई सामाजिक और राजनीतिक अक्षमताओं के आधार पर ‘अछूत’ या ‘बहिष्कृत’ के रूप में वर्गीकृत किया गया. बाद में इन जातियों को 1935 के भारत सरकार अधिनियम के तहत विशेष दर्जा दिया गया.

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कैसी थी उस समय धार्मिक संरचना
भारत की जनसंख्या में मुख्यतः हिंदू (68.36%), मुस्लिम (22.16%) और ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध और अन्य लोग हैं. लेकिन जनगणना ने कुछ क्षेत्रों में ईसाइयों और मुसलमानों के बीच जाति-जैसी संरचनाओं का भी दस्तावेजीकरण किया (उदाहरण के लिए, बॉम्बे में कोली और गुजरात में कुनबी, जो मिश्रित हिंदू और ईसाई/मुस्लिम प्रथाओं का पालन करते थे). 1931 के सर्वेक्षण के अनुसार, मराठों सहित बंबई (अब मुंबई) में कुनबी 6,434,8610 जनसंख्या के साथ प्रांतवार सबसे बड़ा समुदाय था. उसके बाद संयुक्त प्रांत के चमार (6,312,203), बिहार और उड़ीसा के गोआला (3,455,141) और बंगाल के कैबार्टा (2,733,338) थे. पंजाब में कुछ बाहरी जातियों ने हिंदू, सिख या मुस्लिम के रूप में वर्गीकृत होने से बचने के लिए खुद को आद धर्मी (मूल धर्म के अनुयायी) घोषित कर दिया. जो धार्मिक पहचान पर राजनीतिक तनाव को दर्शाता है.

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ब्राह्मणों थे सबसे ज्यादा साक्षर
भारत की कुल साक्षरता दर पांच वर्ष और उससे अधिक आयु की आबादी के लिए 9.5 फीसदी थी. साक्षरता को किसी भी भाषा में पत्र लिखने और उत्तर पढ़ने की क्षमता के रूप में परिभाषित किया गया था. ब्राह्मणों की साक्षरता दर 27 फीसदी (पुरुषों के लिए 43.7%, महिलाओं के लिए 9.6%) थी, जो राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक थी. हालांकि 73% ब्राह्मण निरक्षर थे और साक्षरता क्षेत्र के अनुसार भिन्न थी. उत्तर भारत में (जहां अधिकांश ब्राह्मण रहते थे) उनकी साक्षरता दर लगभग 15% थी. जो राष्ट्रीय औसत से आधी से भी कम थी.

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केरल में 25% से अधिक थी साक्षरता दर
त्रावणकोर और कोचीन (लगभग आधुनिक केरल) में साक्षरता दर 25 फीसदी से अधिक थी. जिसका श्रेय ब्रिटिश प्रशासन के बजाय रियासतों की प्रगतिशील नीतियों को जाता है. इसने बाद के दशकों में केरल की उच्च साक्षरता की नींव रखी. जनगणना में प्रांत के अनुसार जाति-विशिष्ट साक्षरता दर दी गई, लेकिन अधिकांश जातियों के लिए उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर एकत्रित नहीं किया गया. निचली जातियों, विशेष रूप से बाहरी जातियों में आम तौर पर साक्षरता दर कम थी. हालांकि सटीक आंकड़े कम दर्ज किए गए हैं. जनगणना में अछूतों सहित हाशिए पर पड़े समूहों के लिए ‘बाहरी वर्ग’ शब्द का इस्तेमाल किया गया, जिन्हें गंभीर सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ा. इस वर्गीकरण ने बाद की सकारात्मक कार्रवाई नीतियों को प्रभावित किया.

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