Friday, December 20, 2024
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ममता कालिया की लोकप्रिय कहानी ‘बोलनेवाली औरत’


2 नवंबर, 1940 को को जन्मीं हिंदी साहित्य की जानी मानी साहित्यकार ममता कालिया हिंदी और अंग्रेजी, दोनों भाषाओं में लिखती हैं. उनकी बेघर, नरक-दर-नरक, दुक्खम-सुक्खम, सपनों की होम डिलिवरी, कल्चर वल्चर, जांच अभी जारी है, निर्मोही, बोलने वाली औरत, भविष्य का स्त्री विमर्श समेत कई कृतियां चर्चित रही हैं. वह एक ऐसी कथाकार हैं, जिनकी प्रतिभा किसी से छुपी नहीं है. उन्होंने अपने कथा साहित्य के द्वारा भारतीय परिवारों में स्त्री की दोयम दर्जे की स्थिति को बेहद ही संवेदनशील ढंग से चित्रित किया है और इस बात पर हमेशा जोर देने की कोशिश की है कि स्त्री की पराधीनता का कारण उनकी आर्थिक व सामाजिक स्थिति ही है.

ममता कालिया का समूचा लेखन मामूली लोगों के पक्ष में जबरदस्त गवाही है. वह कहानी से शुरुआत कर अपनी लेखनी को प्रेमचंद एवं अमरकांत की राह पर ले गई हैं, जहां उनकी भाषा एवं भाव नयी संवेदना के साथ कहानी को गति देते हैं. वह जितनी अपनी मुखर कहानियों के लिए जानी जाती हैं, उससे अधिक कविताओं में घरेलू और कामकाजी औरत के चित्र खींचने में एक कुशल कवयित्री के रूप में भी. उन्होंने अपने कथा-साहित्य में भी हाडमांस की स्त्री का चेहरा बहुत करीब से दिखाया है. जीवन की जटिलताओं के बीच जी रहे उनके पात्र एक निर्भय और श्रेष्ठ मूल्यों, स्त्री के जूझते जीवन की विकटताओं से परिचित कराते हैं. सबसे खास बात यह है, कि उनकी कहानियों में आक्रोश और भावुकता की बजाए जीवन के यथार्थ का संतुलन होता है.

ममता कालिया की सुप्रसिद्ध कहानी ‘बोलनेवाली औरत’ की मुख्य पात्र शिखा आज के आधुनिक समाज की उन पढ़ी लिखी औरतों का सच बयां करती है, जो काबिल और पढ़ी-लिखी होने के बावजूद घर की दिवारों में कैद होकर परिवार की जी हुजूरी करने को मजबूर कर दी जाती हैं. कहानी ऐसी औरतों का ज़िंदगीनामा है, जो अपना सबकुछ खत्म करके पूरी तरह से एक नए परिवार को संभालने में लग जाती हैं, लेकिन फिर भी उनकी कुर्बानियों को कहीं नहीं गिना जाता. न ही तो उन्हें परिवार में वह सम्मान मिलता है जिसकी वह हकदार हैं, न ही उन्हें खुलकर अपनी बात कहने का मौका दिया जाता है. बल्कि उनके प्रयासों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है और इस बात का एहसास दिलाया जाता है, कि उन्हें कुछ नहीं आता.

पूरी कहानी शिखा के इर्द-गिर्द ही घूमती है. कपिल शिखा से शादी सिर्फ इसीलिए करता है, क्योंकि वह बाकी लड़कियों से अलग होती है, लेकिन प्रेम विवाह के बावजूद शिखा पति और बच्चों की गुलामी करने को मजबूर की जाती है. वैसे तो गुलामी किसी भी तरह की शादी में स्वीकार्य नहीं है, फिर वह चाहे प्रेम विवाह हो या फिर घरवालों की पसंद से हुई शादी. शिखा जैसी नजाने कितनी कहानियां आम जीवन में भी घटित होती हुई दिख जाती हैं.

ममता कालिया की यह कहानी स्त्री की अभिव्यक्ति के अवसर पर लगाई जाने वाली पाबंदियों को बखूबी बयां करती है और यही इस कहानी का मुख्य उद्देश्य भी है. कहानी ममता जी की प्रतिनिधि कहानी है. कहानी के माध्यम से लेखिका कई ज़रूरी सवालों को उठाती हैं, जो सवाल की तरह नहीं बल्कि कहानी की तरह चलते हैं, लेकिन कई ज़रूरी सवाल खड़े करते हैं. ऐसे स्त्री के अस्तित्व को बचाने के लिए हल करने जरूरी हैं। पुरुष को स्त्री को एक मशीन से अधिक एक इंसान समझने की आवश्यकता है । ये कहानियाँ हमारी दुनिया और उसकी समाजी सच्चाइयों का ऐसा बयान हैं जिनकी कड़वाहट पर भरोसा किया जा सकता है। इनके माध्यम से हम आज की उस जद्दोजहद से वाबस्ता होते हैं जो इनसानी वजूद और इनसानियत के हक़ में सबसे ज़्यादा ज़रूरी है।

बोलनेवाली औरत : ममता कालिया
“यह झाडू सीधी किसने खड़ी की?” बीजी ने त्योरी चढ़ाकर विकट मुद्रा में पूछा. जवाब न मिलने पर उन्होंने मीरा को धमकाया, “इस तरह फिर कभी झाडू की तो…”

वे कहना चाहती थीं कि मीरा को काम से निकाल देंगी पर उन्हें पता था नौकरानी कितनी मुश्किल से मिलती है. फिर मीरा तो वैसे भी हमेशा छोडूं-छोडूं मुद्रा में रहती थी.

“मैंने नहीं रखी,” मीरा ने ऐंठकर जवाब दिया.

“क्यों रखी थी! तुझे इतना नहीं मालूम कि झाडू खड़ी रखने से घर में दलिद्दर आता है, क़र्ज़ बढ़ता है, रोग जड़ पकड़ लेता है.”

“यह तो मैंने कभी नहीं सुना.”

“जाने कौन गांव की है तू. मां के घर से कुछ भी तो सीखकर नहीं आई. काके का काम वैसे ही ढीला चल रहा है, तू और झाडू खड़ी रख, यही सीख है तेरी!”

“मेरा ख़याल है झाडू ग़ुसलख़ाने के बीचोबीच भीगती हुई, पसरी हुई छोड़ देने से दलिद्दर आ सकता है. तीलियां गल जाती हैं, रस्सी ढीली पड़ जाती है और गंदी भी कितनी लगती है.

“आज तो मैंने माफ़ कर दिया, फिर भी कभी झाडू खड़ी न मिले, समझी!

इस बात में कोई तुक नहीं है बीजी, झाडू कैसे भी रखी जा सकती है.

बीजी झुंझला गई. कैसी जाहिल और ज़िद्दी लड़की ले आया है काका. लाख बार कहा था इस कुदेसिन से ब्याह न कर, पर नहीं, उसके सिर पर तो भूत सवार था.

शिखा को हंसी आ गई. बीजी अपने को बहुत सही और समझदार मानती हैं, जबकि अकसर उनकी बातों में कोई तर्क नहीं होता.

उसे हंसते देखकर बीजी का ख़ून खौला गया.

इसे तो बिलकुल अक़ल नहीं, उन्होंने मीरा से कहा.

बीजी चाय पिएंगी? शिखा ने पूछा.

बीजी उसकी तरफ़ पीठ करके बैठी रहीं. शिखा की बात का जवाब देना वे ज़रूरी नहीं समझतीं. वैसे भी उनका ख़याल था कि शिखा के स्वर में ख़ुशामद की कमी रहती है.

शिखा ने चाय का गिलास उनके आगे रखा तो वे भड़क गईं, वैसे ही मेरा क़ब्ज़ के मारे बुरा हाल है, तू चाय पिला-पिलाकर मुझे मार डालना चाहती है.

शिखा ने और बहस करना स्थगित किया और चाय का गिलास लेकर कमरे में चली गई.

शिखा का शौहर, कपिल अपने घरवालों से इन अर्थों से भिन्न था कि आमतौर पर उसका सोचने का एक मौलिक तरीक़ा था. शादी के ख़याल से जब उसने अपने आस-पास देखा, तो कॉलेज में उसे अपने से दो साल जूनियर बीएससी में पढ़ती शिखा अच्छी लगी थी. सबसे पहली बात यह थी कि वह उन सब औरतों से एकदम अलग थी जो उसने परिवार और अपने परिवेश में देखी थीं. शिखा का पूरा नाम दीपशिखा था लेकिन कोई नाम पूछता तो वह महज नाम नहीं बताती, मेरे माता-पिता ने मेरा नाम ग़लत रखा है. मैं दीपशिखा नहीं, अग्निशिखा हूं.

अग्निशिखा की तरह ही वह हमेशा प्रज्वलित रहती, कभी किसी बात पर, कभी किसी सवाल पर. तब उसकी तेज़ी देखने लायक़ होती. उसकी वक्तृता से प्रभावित होकर कपिल ने सोचा वह शिखा को पाकर रहेगा. पढ़ाई के साथ-साथ वह पिता के व्यवसाय में भी लगा था, इसलिए शादी से पहले नौकरी ढूंढ़ने की उसे कोई ज़रूरत नहीं थी. बिना किसी आडंबर, दहेज या नख़रे के एक सादे समारोह में वे विवाह-सूत्र में बंध गए. शिखा उसकी आत्मनिर्भरता, ख़ूबसूरती और स्वतंत्र सोच से प्रभावित हुई. तब उसे यह नहीं पता था कि प्रेम और विवाह दो अलग-अलग संसार हैं. एक में भावना और दूसरे में व्यवहार की ज़रूरत होती है. दुनिया भर में विवाहित औरतों का केवल एक स्वरूप होता है. उन्हें सहमति-प्रधान जीवन जीना होता है. अपने घर की कारा में वे क़ैद रहती हैं. हर एक की दिनचर्या में अपनी-अपनी तरह का समरसता रहती है. हरेक के चेहरे पर अपनी-अपनी तरह की ऊब. हर घर का एक ढर्रा है जिसमें आपको फिट होना है. कुछ औरतें इस ऊब पर श्रृंगार का मुलम्मा चढ़ा लेती हैं पर उनके श्रृंगार में भी एकरसता होती है. शिखा अंदाज़ लगाती, सामने वाले घर की नीता ने आज कौन-सी साड़ी पहनी होगी और प्रायः उसका अंदाज़ ठीक निकलता. यही हाल लिपिस्टक के रंग और बालों के स्टाइल का था. दुःख की बात यही थी कि अधिकांश औरतों को इस ऊब और क़ैद की कोई चेतना नहीं थी. वे रोज़ सुबह साढ़े नौ बजे सासों, नौकरों, नौकरानियों, बच्चों, माली और कुत्तों के साथ घरों में छोड़ दी जातीं, अपना दिन तमाम करने के लिए. वहीं लंच पर पति का इंतिज़ार, टी.वी. पर बेमतलब कार्यक्रमों का देखना और घर -भर के नाश्ते, खाने— नखरों की नोक पलक संवारना. चिकनी महिला पत्रिकाओं के पन्ने पलटना, दोपहर को सोना, सजे हुए घर को कुछ और सजाना, सास की जी-हुज़ूरी करना और अंत में रात को एक जड़ नींद में लुढ़क जाना.

कपिल के घर आते ही बीजी ने उसके सामने शिकायत दर्ज की, तेरी बीवी तो अपने को बड़ी चतुर समझती है. अपने आगे किसी की चलने नहीं देती. खड़ी-खड़ी जबाब टिकाती है.”

कपिल को ग़ुस्सा आया. शिखा को एक अच्छी पत्नी की तरह चुप रहना चाहिए, ख़ासतौर पर मां के आगे. इसने घर को कॉलेज का डिबेटिंग मंच समझ रखा है और मां को प्रतिपक्ष का वक्ता. उसने कहा, मैं उसे समझा दूंगा, आगे से बहस नहीं करेगी.

“उलटी खोपड़ी की है बिलकुल. वह समझ ही नहीं सकती” मां ने मुंह बिचकाया.

रात, उसने कमरे में शिखा से कहा, तुम मां से क्यों उलझती रहती हो दिन-भर!

“इस बात का विलोम भी उतना ही सच है.”

“हम विलोम-अनुलोम में बात नहीं कर रहे हैं, एक संबंध है जिसकी इज़्ज़त तुम्हें करनी होगी.”

“ग़लत बातों की भी!”

“मां की कोई बात ग़लत नहीं होती.”

“कोई भी इंसान परफेक्ट नहीं हो सकता.”

कपिल तैश में आ गया, “तुमने मां को इम्परफ़ेक्ट कहा. तुम्हें शर्म आनी चाहिए. तुम हमेशा ज़ियादा बोल जाती हो और ग़लत भी.”

“तुम मेरी आवाज़ बंद करना चाहते हो.”

मैं एक शांत और सुरुचिपूर्ण जीवन जीना चाहता हूं.

शिखा अंदर तक जल गई इस उत्तर से क्योंकि यह उत्तर हज़ार नए प्रश्नों को जन्म दे रहा था. उसने प्रश्नों को होठों के क्लिप से दबाया और सोचा, अब वह बिलकुल नहीं बोलेगी, यहां तक कि ये सब उसकी आवाज़ को तरस जाएंगे.

लेकिन यह निश्चय उससे निभ न पाता. बहुत जल्द कोई-न-कोई ऐसा प्रसंग उपस्थित हो जाता कि ज्वालामुखी की तरह फट पड़ती और एक बार फिर बदतमीज़ और बदजुबान कहलाई जाती. तब शिखा बेहद तनाव में आ जाती. उसे लगता घर में जैसे टॉयलेट होता है ऐसे एक टॉकलेट भी होना चाहिए जहां खड़े होकर वह अपना ग़ुबार निकला ले, जंजीर खींचकर बातें बहा दे और एक सभ्य शांत मुद्रा से बाहर आ जाए. उसे यह भी बड़ा अजीब लगता है कि वह लगातार ऐसे लोगों से मुख़ातिब है जिन्हें इसके इस भारी-भरकम शब्दकोश की ज़रूरत ही नहीं है. घर को सुचारू रूप से चलाने के लिए सिर्फ़ दो शब्दों की दरकार थी-जी और हांजी.

“कल छोले बनेंगे?”

“जी छोले बनेंगे. “

“पाजामों के नाड़ें बदले जाने चाहिए.”

“हां जी, पाजामों के नाड़े बदले जाने चाहिए.”

उसने अपने जैसी कई स्त्रियों से बात करके देखा, सबमें अपने घरबार के लिए बेहद संतोष और गर्व था.

हमारे तो ये ऐसे हैं. हमारे तो ये वैसे हैं जैसा कोई नहीं हो सकता.

हमारे बच्चे तो बिलकुल लव-कुश की जोड़ी है. हमारा बेटा तो पढ़ने में इतना तेज़ है कि पूछो ही मत. शिखा को लगता उसी में शायद कोई कमी है जो वह इस तरह संतोष में लबालब भरकर मेरा परिवार महान के राग नहीं अलाप सकती. रातों को बिस्तर में पड़े-पड़े वह देर तक सोती नहीं, सोचती रहती, उसकी नियति क्या है. न जाने कब कैसे एक फुलटाइम गृहिणी बनती गई जबकि उसने ज़िंदगी की एक बिलकुल अगल तस्वीर देखी थी. कितना अजीब होता है कि दो लोग बिलकुल अनोखे, अकेले अंदाज़ में इसलिए नज़दीक आएं कि वे एक-दूसरे की मौलिकता की क़द्र करते हों, महज़ इसलिए टकराएं क्योंकि अब उन्हें मौलिकता बरदाश्त नहीं.

दरअसल वे दोनों अपने-अपने खलनायक के हाथों मार खा रहे थे. यह खलनायक था रूटीन जो जीवन की ख़ूबसूरती को दीमक की तरह चाट रहा था. कपिल चाहता था कि शिखा एक अनुकूल पत्नी की तरह रूटीन का बड़ा हिस्सा अपने ऊपर ओढ़ ले और उसे अपने मौलिक सोच-विचार के लिए स्वतंत्र छोड़ दे. शिखा की भी यही उम्मीद थी. उनकी ज़िंदगी का रूटीन या ढर्रा उनसे कहीं ज़ियादा शक्तिशाली था. अलस्सुबह वह कॉलबेल की पहली कर्कश ध्वनि के साथ जग जाता और रात बारह के टन-टन घंटे के साथ सोता. बीजी घर में इस रूटीन की चौकीदार तैनात थीं. घर की दिनचर्या में ज़रा-सी भी देर-सबेर उन्हें बर्दाश्त नहीं थी. शिखा जैसे-तैसे रोज़ के काम निपटाती और जब समस्त घर सो जाता, हाथ-मुंह धो, कपड़े बदल एक बार फिर अपना दिन शुरू करने की कोशिश करती. उसे सोने में काफ़ी देर हो जाती और अगली सुबह उठने में भी. उसके सभी आगामी काम थोड़े पिछड़ जाते. बीजी का हिदायतनामा शुरू हो जाता, “यह आधी-आधी रात तक बत्ती जलाकर क्या करती रहती है तू. ऐसे कहीं घर चलता है!” ससुर 194 में सीखा हुआ मुहावरा टिका देते, “अर्ली टु बेड एंड अर्ली टू राइज़” वग़ैरह-वग़ैरह. हिदायतें सही होती पर शिखा को बुरी लगतीं. वह बेमन से झाडू-झाड़न पोचे का रोज़नामचा हाथ में उठा लेती जबकि उसका दिमाग़ किताब, काग़ज़ और कलम की मांग करता रहता. कभी-कभी छुट्टी के दिन कपिल घर के कामों में उसकी मदद करता. बीजी उसे टोक देतीं, “ये औरतों वाले काम करता तू अच्छा लगता है. तू तो बिलकुल जोरू का ग़ुलाम हो गया है.”

घर में एक सहज और सघन संबंध को लगातार ठोंक-पीठकर यांत्रिक बनाया जा रहा था. एकांत में जो भी तंमयता पति-पत्नी के बीच जन्म लेती, दिन के उजाले में उसकी गर्दन मरोड़ दी जाती. बीजी को संतोष था कि वे परिवार का संचालन बढ़िया कर रही हैं. वे बेटे से कहतीं, “तू फ़िकर मत कर. थोड़े दिनों में मैं इसे ऐन पटरी पर ले आऊंगी.”

पटरी पर शिखा तब भी नहीं आई अब दो बच्ची की मां हो गई. बस इतना भर हुआ कि उसने अपने सभी सवालों का रुख़ अन्य लोगों से हटाकर कपिल और बच्चों की तरफ़ कर लिया. बच्चे अभी कई सवालों के जवाब देने लायक़ समझदार नहीं हुए थे, बल्कि लाड-प्यार में दोनों के अंदर एक तर्कातीत तुनकमिजाज़ी आ बैठी थी. स्कूल से आकर वे दिन-भर वीडियो देखते, गाने-सुनते, आपस में मार-पीट करते और जैसे-तैसे अपना होमवर्क पार लगाकर सो जाते. कपिल अपने व्यवसाय से बचा हुआ समय अख़बारों, पत्रिकाओं और दोस्तों में बिताता. अकेली शिखा घर की कारा में क़ैद घटनाहीन दिन बिताती रहती. वह जीवन के पिछले दस सालों और अगले बीस सालों पर नज़र डालती और घबरा जाती. क्या उसे वापस अग्नि शिखा की बजाय दीपशिखा बनकर ही रहना होगा, मद्धिम और मधुर-मधुर जलना होगा. वह क्या करे अगर उसके अंदर तेल की जगह लावा भरा पड़ा है.

उसे रोज़ लगता कि उन्हें अपना जीवन नए सिरे से शुरू करना चाहिए. इसी उद्देश्य से उसने कपिल से कहा, क्यों नहीं हम दो-चार दिन को कहीं घूमने चलें.

“कहां?”

“कहीं भी. जैसे जयपुर या आगरा.”

वहां हमें कौन जानता है. फ़िज़ूल में एक नई जगह जाकर फंसना.

“वहां देखने को बहुत कुछ है. हम घूमेंगे, कुछ नई और नायाब चीज़ें ख़रीदेंगे, देखना, एकदम फ़्रेश हो जाएंगे.”

“ऐसी सब चीज़ें यहां भी मिलती हैं, सारी दुनिया का दर्शन जब टी.वी. पर हो जाता है तो वहां जाने में क्या तुक है?”

“तुक के सहारे दिन कब तक बिताएंगे?”

बच्चों ने इस बात का मज़ाक बना लिया “कल को तुम कहोगी, अंडमान चलो, घूमेंगे.”

“इसका मतलब अब हम कहीं नहीं जाएंगे, यहीं पड़े-पड़े एक दिन दरख़्त बन जाएंगे.”

तुम अपने दिमाग़ का इलाज कराओ, मुझे लगता है तुम्हारे हॉरमोन बदल रहे हैं. “

“मुझे लगता है, तुम्हारे भी हॉरमोन बदल रहे हैं.”

“तुम्हारे अंदर बराबरी का बोलना एक रोग बनता जा रहा है. इन ऊलजलूल बातों में क्या रखा है?”

शिखा याद करती वे प्यार के दिन जब उसकी कोई बात बेतुकी नहीं थी. एक इंसान को प्रेमी की तरह जानना और पति की तरह पाना कितना अलग था. जिसे उसने निराला समझा वहीं कितना औसत निकला. वह नहीं चाहता जीवन के ढर्रे में कोई नयापन या प्रयोग. उसे एक परंपरा चाहिए जी-हुज़ूरी की. उसे एक गांधारी चाहिए जो जानबूझकर न सिर्फ़ अंधी हो बल्कि गूंगी और बहरी भी.

बच्चों ने बात दादी तक पहुंचा दी. बीजी एकदम भड़क गईं, “अपना काम-धंधा छोड़ कर काका जयपुर जाएगा, क्यों, बीवी को सैर कराने. एक हम थे, कभी घर से बाहर पैर नहीं रखा.”

“और अब जो आप तीर्थ के बहाने घूमने जाती हैं वह? शिखा से नहीं रहा गया.

“तीरथ को तू घूमना कहती है! इतनी ख़राब जुबान पाई है तूने, कैसे गुज़ारा होगा तेरी गृहस्थी का!”

“काश गोदरेज कम्पनी का कोई ताला होता मुंह पर लगानेवाला, तो ये लोग उसे मेरे मुंह पर जड़कर चाबी सेफ़ में डाल देते, शिखा ने सोचा, “सच ऐसे कब तक चलेगा जीवन.

बच्चे शहजादों की तरह बर्ताव करते. नाश्ता करने के बाद जूठी प्लेटें कमरे में पड़ी रहतीं मेज़ पर. शिखा चिल्लाती, “यहां कोई रूम सर्विस नहीं चल रही है, जाओ, अपने जूठे बर्तन रसोई में रखकर आओ.”

“नहीं रखेंगे, क्या कर लोगी,” बड़ा बेटा हिमाक़त से कहता.

न चाहते हुए भी शिखा मार बैठती उसे.

एक दिन बेटे ने पलटकर उसे मार दिया. हल्के हाथ से नहीं, भरपूर घूंसा मुंह पर. होठ के अंदर एक तरफ़ का मांस बिलकुल चिथड़ा हो गया. शिखा सन्न रह गई. न केवल उसके शब्द बंद हो गए, जबड़ा भी जाम हो गया. बर्तन बेटे ने फिर भी नहीं उठाए, वे दोपहर तक कमरे में पड़े रहे. घर भर में किसी ने बेटे को ग़लत नहीं कहा.

बीजी एक दर्शक की तरह वारदात देखती रहीं. उन्होंने कहा, “हमेशा ग़लत बात बोलती हो, इसी से दूसरे का ख़ून खौलता है. शुरू से जैसी तूने ट्रेनिंग दी, वैसा वह बना है. ये तो बचपन से सिखानेवाली बातें हैं. फिर तू बर्तन उठा देती तो क्या घिस जाता.”

उन्हीं के शब्द शिखा के मुंह से निकल गए, “अगर ये रख देता तो इसका क्या घिस जाता.”

“बदतमीज़ कहीं की, बड़ों से बात करने की अक़ल नहीं है.” बीजी ने कहा.

ससुर ने सारी घटना सुनकर फिर एक मुहावरा टिका दिया, एज यू सो, सो शैल यू रीप

कपिल ने कहा, “पहले सिर्फ़ मुझे सताती थीं, अब बच्चों का भी शिकार कर रही हो.”

शिकार तो मैं हूं, तुम सब शिकारी हो, शिखा कहना चाहती थी पर जबड़ा एकदम जाम था. होंठ अब तक सूज गया था. शिखा ने पाया, परिवार में परिवार की शर्तों पर रहते-रहते न सिर्फ़ वह अपनी शक्ल खो बैठी है वरन अभिव्यक्ति भी. उसे लगा वह ठूस ले अपने मुंह में कपड़ा या सी डाले इसे लोहे के तार से. उसके शरीर से कहीं कोई आवाज़ न निकले. बस, उसके हाथ-पांव परिवार के काम आते रहें. न निकलें इस वक़्त मुंह से बोल लेकिन शब्द उसके अंदर खलबलाते रहेंगे. घर के लोग उसके समस्त रंध्र बंद कर दें फिर भी ये शब्द अंदर पड़े रहेंगे, खौलते और खदकते. जब मृत्यु के बाद उसकी चीर-फाड़ होगी, तो ये शब्द निकल भागेंगे शरीर से और जीती-जागती इबारत बन जाएंगे. उसके फेफड़ों से, गले की नली से, अंतड़ियों से चिपके हुए ये शब्द बाहर आकर तीखे, नुकीले, कंटीले, ज़हरीले असहमति के अग्रलेख बनकर छा जाएंगे घर भर पर. अगर वह इन्हें लिख दे तो एक बहुत तेज़ एसिड का आविष्कार हो जाए. फिलहाल उसका मुंह सूजा हुआ है, पर मुंह बंद रखना चुप रहने की शर्त नहीं है. ये शब्द उसकी लड़ाई लड़ते रहेंगे.

Tags: Hindi Literature, Hindi Writer, Literature, Married woman



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