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वॉशिंगटन/बीजिंग: अमेरिका और यूक्रेन एक ऐतिहासिक खनिज समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत यूक्रेन अपने दुर्लभ खनिज (REE) संसाधन अमेरिका को देगा. अमेरिकी ट्रेजरी सचिव स्कॉट बेसेन्ट ने इसे ‘शांति और समृद्धि की दिशा में एक कदम’ करार दिया, जबकि यूक्रेन के प्रधानमंत्री डेनिस श्मिगल ने इसे ‘समान और लाभकारी’ बताया. सत्ता में आने के बाद से ही डोनाल्ड ट्रंप इस डील को करना चाहते थे. उनका कहना था कि यूक्रेन को अमेरिका ने अरबों डॉलर के हथियार दिए हैं, जिसके बदले यूक्रेन को यह डील करना चाहिए. हालांकि इस डील के पीछे की असली वजह चीन है. क्योंकि दुनिया में दुर्लभ खनिजों पर उसका कब्जा है.
चीन का दुर्लभ खनिजों पर कब्जा
दुर्लभ खनिज, जैसे लैंथेनम, सेरियम, नियोडिमियम, और डिस्प्रोसियम, आधुनिक टेक्नोलॉजी, रक्षा, और क्लीन एनर्जी उद्योगों की रीढ़ हैं. ये खनिज स्मार्टफोन, इलेक्ट्रिक वाहन की बैटरी, पवन टरबाइन, मिसाइल सिस्टम, और लेजर तकनीकों में उपयोग होते हैं. वैश्विक स्तर पर इन खनिजों की आपूर्ति श्रृंखला पर चीन का लगभग एकाधिकार है.
2024 की रिपोर्ट के मुताबिक चीन विश्व के 60-70% REE का खनन करता है और 85-92% रिफाइनिंग कंट्रोल करता है. भारी REE, जैसे डिस्प्रोसियम और टर्बियम, की प्रोसेसिंग में तो उसका 100% नियंत्रण है. इसके अलावा, चीन 90% REE-आधारित स्थायी मैग्नेट यानी चुंबक का उत्पादन करता है, जो रक्षा और ऑटोमोटिव उद्योगों के लिए महत्वपूर्ण हैं.
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चीन वैश्विक REE निर्यात का 70-80% हिस्सा नियंत्रित करता है. अमेरिका अपनी जरूरतों का 70% और जापान 50-60% चीन से आयात करते हैं. म्यांमार जैसे देशों से कच्चे खनिजों का आयात भी अंततः चीन में रिफाइनिंग के लिए जाता है. चीन ने अपने देश में ही नहीं बल्कि विदेश की खदानों पर भी कंट्रोल किया हुआ है. चीन म्यांमार, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो और ऑस्ट्रेलिया/दक्षिण अमेरिका में भी निवेश के जरिए खनन को प्रभावित करता है.
हथियार के रूप में दुर्लभ खनिज
अमेरिका की यूक्रेन से डील करना इसलिए भी मजबूरी थी, क्योंकि चीन ने बार-बार REE को भू-राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है. चीन वैश्विक सप्लाई चेन में अपना शक्ति प्रदर्शन दिखाता रहा है. इसका एक उदाहरण 2010 में देखने को मिला. दक्षिण चीन सागर में मछली पकड़ने के एक विवाद के बाद, चीन ने जापान को REE निर्यात अस्थायी रूप से रोक दिया. इससे जापान के ऑटोमोटिव और इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योगों में हड़कंप मच गया, और जापान को वैकल्पिक स्रोतों की तलाश शुरू करनी पड़ी.
अमेरिका और चीन के बीच चल रहे व्यापार युद्ध (टैरिफ वार) में भी चीन ने रेयर अर्थ मिनिरल्स इस स्थिति को और गंभीर बना दिया है. अप्रैल 2025 में, चीन ने सात भारी REE (समैरियम, गैडोलिनियम, टर्बियम, डिस्प्रोसियम, ल्यूटेटियम, स्कैंडियम, और यट्रियम) और संबंधित मैग्नेट पर निर्यात प्रतिबंध लागू किए. इन खनिजों का उपयोग अमेरिकी रक्षा उद्योग में F-47 लड़ाकू जेट, मिसाइल सिस्टम, और लेजर तकनीकों में होता है. इस प्रतिबंध से अमेरिकी डिफेंस और ऑटोमोटिव उद्योगों में सप्लाई चेन में अस्थिरता की आशंका बढ़ गई है.
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इतना ही नहीं चीन विदेशों से खनिजों का आयात करके उनका भंडारण करता है ताकि कीमतों को नियंत्रित किया जा सके. चीन की इन्हीं ताकतों को देखते हुए अमेरिका को अपनी रक्षा, ऊर्जा, और तकनीकी उद्योगों के लिए वैकल्पिक स्रोतों की तलाश करने के लिए मजबूर होना पड़ा है.
यूक्रेन से डील मजबूरी या रणनीति?
यूक्रेन के पास दुनिया का 5 परसेंट खनिज संसाधन है, जिनमें यूरोप के सबसे बड़े लिथियम भंडार, 20 परसेंट ग्रेफाइट, और टाइटेनियम और मैंगनीज के बड़े भंडार शामिल हैं. ये खनिज इलेक्ट्रिक बैटरी, रक्षा उपकरण, और रिन्युएबल ऊर्जा तकनीकों के लिए महत्वपूर्ण हैं. हालांकि, यूक्रेन के 53% खनिज भंडार रूस के नियंत्रित क्षेत्रों में हैं, जिससे यह डील मुश्किल हो जाती है. यूक्रेन के लिए यह डील मजबूरी थी, क्योंकि ट्रंप के आने के बाद इस बात का डर है कि यूक्रेन को हथियारों की सप्लाई रुक जाएगी.
अमेरिका के लिए मुश्किलें
यह समझौता अमेरिका के लिए एक रणनीतिक कदम है, लेकिन कई चुनौतियां बाकी हैं. दरअसल यूक्रेन के 20% क्षेत्र और 53% खनिज भंडार रूस के नियंत्रण में हैं, जिससे खनन गतिविधियां जोखिम भरी हैं. इसके अलावा अमेरिका के पास स्वदेशी रिफाइनिंग क्षमता सीमित है. 2026-2027 तक नई सुविधाएं विकसित करने की योजना है, लेकिन तब तक वह चीन पर निर्भर रहेगा.
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