नरेंद्र मोदी के 1969 में अहमदाबाद आने से पहले, विश्व हिंदू परिषद ने जगन्नाथ मंदिर से जुड़ी एक इमारत में ही अपना कार्यालय खोलने का फैसला सोच- समझकर किया था. एक तो यहां किराया ज्यादा नहीं था, दूसरा मंदिर के तत्कालीन महंत और उनके बाद गद्दी संभालने वाले साधु का भी भरपूर सहयोग परिषद की गतिविधियों के लिए था. जगन्नाथ मंदिर ट्रस्ट की ये इमारत मंदिर के मुख्य दरवाजे के ठीक सामने थी, आते- जाते हर व्यक्ति, साधु- संन्यासी को परिषद के कार्यालय से ही देखा जा सकता था, उनसे तुरंत मिला जा सकता था.
कार्यकर्ताओं के लिए भी शहर के जमालपुर इलाके में मौजूद इस कार्यालय में पहुंचना सुविधाजनक था. एक तो परिषद का काम, ऊपर से भगवान जगन्नाथ के दर्शन का मौका भी. परिषद का कार्यालय इमारत की पहली मंजिल के दो कमरों में बनाया गया था, नीचे थी भारत साइकिल नामक दुकान, जो दो सिंधी भाई मिलकर चलाते थे. कार्यकर्ताओं के लिए भी आसानी थी, साइकिल के टायरों से हवा निकल गई या साइकिल बिगड़ गई, तो भी कोई परेशानी नहीं.
जिस समय 19 वर्ष के युवा के तौर पर नरेंद्र मोदी यहां आए, मंदिर के आसपास आबादी घनी नहीं थी, काफी जंगल था. मंदिर परिसर के बाद सीधे साबरमती नदी का पूर्वी किनारा ही आता था. उस समय शहर की ज्यादातर आबादी पूर्वी हिस्से में ही थी, जो वाल्ड सिटी या कोट विस्तार के तौर पर जानी जाती थी. सल्तनत काल में शहर के चारों तरफ दीवारें थीं और बाहर निकलने या अंदर आने के लिए दरवाजों से होकर गुजरना पड़ता था. रात के समय दरवाजे बंद कर दिये जाते थे. बाद के वर्षों में आबादी का दबाव बढ़ने के साथ ही ये दीवारें टूटती, गिरती चली गईं, लोग कोट विस्तार के बाहर बसने लगे और साबरमती नदी के पश्चिमी किनारे की तरफ वाले इलाके भी आबाद होने लगे. ज्यादातर दरवाजे जरूर बचे रह गये.
हिंदुओं की आस्था का बड़ा केंद्र था जगदीश मंदिर
साबरमती नदी के पूर्वी किनारे के नजदीक मौजूद भगवान जगन्नाथ का मंदिर ऐसे ही एक ऐतिहासिक दरवाजे, जमालपुर दरवाजे के ठीक बाहर था. मंदिर को भक्तगण जगदीश मंदिर के तौर पर भी पुकारते थे, मंदिर के दरवाजों पर भी कई जगह यही नाम लिखा था. उस समय ये मंदिर शहर के हिंदुओं की आस्था का बड़ा केंद्र था. साधु- संतों का जमावड़ा हमेशा यहां लगा रहता था. न सिर्फ गुजरात के अलग- अलग हिस्सों से, बल्कि देश के दूसरे हिस्सों से भी साधु- संन्यासी यहां आते थे. दो मशहूर अखाड़ों के प्रमुख भी मंदिर प्रांगण में ही रहा करते थे.
1969 में जगन्नाथ मंदिर का मुख्य द्वार ऐसा दिखता था.
मंदिर का इलाका कोट विस्तार से बाहर था, तीन सौ साल पहले इसके चारों ओर घने जंगल हुआ करते थे. उस वक्त साधु- संन्यासियों के लिए भी ये जगह काफी उपयुक्त हुआ करती थी. जंगल के बीच आराम से साधना कर सकते थे, साबरमती नदी के पवित्र जल में स्नान कर सकते थे.
उन्हीं दिनों की बात है, जब हनुमानदासजी महाराज के तौर पर मशहूर एक साधु यहां आए थे, जो खुद भगवान राम के सबसे बड़े भक्त पवनसुत, मारुतिनंदन की आराधना करते थे. हनुमानजी की आराधना के लिए बड़े पैमाने पर आसपास के हिंदू भक्त आने लगे.
मंदिर में गुरु- शिष्य परंपरा का निर्वाह होता था. हनुमानदासजी महाराज के उत्तराधिकारी बने थे सारंगदास जी. सारंगदास जी भगवान जगन्नाथ के अनन्य भक्त थे, पुरी की यात्रा पर हमेशा जाते रहते थे. कहा जाता है कि ऐसी ही एक यात्रा के दौरान जब वो पुरी में मौजूद थे, उनको भगवान जगन्नाथ ने सपने में दर्शन दिया और कहा कि बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ उनका विग्रह अहमदाबाद में स्थापित किया जाए.
जगन्नाथ मंदिर से हर साल होता है रथ यात्रा का आयोजन.
इसी आधार पर बड़े धूमधाम से हनुमान मंदिर में ही भगवान जगन्नाथ की मूर्ति उनके भाई और बहन के साथ स्थापित की गई, पूजा होने लगी. आगे चलकर मंदिर जगन्नाथ मंदिर के तौर पर ही मशहूर हो गया. सारंगदास जी के बाद बालमुकुंददास जी और उनके बाद नरसिंहदास जी मंदिर के महंत बने.
मंदिर का जीर्णोद्धार और गौशाला
नरसिंहदास जी के समयकाल में ही इस मंदिर ने अहमदाबाद सहित गुजरात के जनमानस में अपनी जगह बना ली. उनके समय में न सिर्फ मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ, बल्कि गौशाला भी खड़ी की गई, जिसमें सैकड़ों की तादाद में गायें रहा करती थीं. सदाव्रत चलने लगा मंदिर में, सालों भर. साधु- संन्यासी या आम आदमी, कोई भी यहां से भूखा नहीं जा सकता था. दूध- दही, छाछ, खीर लगातार बंटा करती थी. अकाल के समय में भी मंदिर की तरफ से भरपूर मदद पहुंचाई जाती थी, घास- चारे से लेकर अन्न तक.
जब अनाज सीज करने में नाकाम रहे अंग्रेज
आजादी के पहले से ही नरसिंहदास जी मंदिर के महंत थे. ब्रिटिश काल में भी अधिकारी उनका सम्मान करते थे. उनका व्यक्तित्व काफी चमत्कारिक था. कहा जाता है कि अन्न नियंत्रण के ब्रिटिश दौर में जब अधिकारी मंदिर प्रांगण में रखे अनाज के जत्थे को सीज कर बाहर ले जाने की कोशिश कर रहे थे, उसमें कामयाब नहीं हुए थे वो. 1957 में हुए प्रयाग के महाकुंभ में उनको साधु समाज ने महामंडलेश्वर भी बना दिया था. उनके समाधिस्थ होने के बाद मंदिर के महंत की गद्दी संभाली सेवादास जी ने.
मोदी जब 1969 में विश्व हिंदू परिषद के काम को आगे बढ़ाते हुए जगन्नाथ मंदिर के प्रांगण में ज्यादा समय बिताने लगे थे, उस वक्त मंदिर के महंत सेवादास जी ही थे. सेवादास जी ने अपना उत्तराधिकारी भी घोषित कर रखा था, इनका नाम था रामहर्षदास जी. रामहर्षदास जी गौसेवी संत और दीनबंधु के तौर पर मशहूर थे.
मंदिर की गौशाला 1969 तक और बड़ी हो गई थी, हजार से भी अधिक गायें थीं. मंदिर प्रांगण में ही ये गायें रहती थीं, साधु- संत और भक्त ही इनकी देखभाल करते थे. गायें चरने के लिए रोजाना सुबह सुएज फार्म की तरफ जाती थीं और शाम में वापस मंदिर लौट आती थीं.
गोहत्या विरोधी कानून: गोलवलकर ने राष्ट्रपति को सौंपा ज्ञापन
यही वो दौर था, जब देश के अलग- अलग हिस्सों में गोहत्या विरोधी कानून बनाने और गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध के लिए आंदोलन चल रहा था, अलग- अलग संतों की तरफ से. इस आंदोलन में विश्व हिंदू परिषद ने भी अपने को झोंक दिया था. संघ तो काफी पहले से इसमें लगा हुआ था. खुद संघ प्रमुख माधव सदाशिव गोलवलकर ने देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को 8 दिसंबर 1952 को एक ज्ञापन सौंपा था, जिसमें देश भर के लोगों के हस्ताक्षर वाले कागजों का बंडल भी था, गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने की मांग के साथ.
गो हत्या पर प्रतिबंध लगाने के खिलाफ थे नेहरू
1966-67 में भी गोहत्या पर प्रतिबंध को लेकर एक के बाद एक कई संतों ने अनशन किया था. प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, शंकराचार्य निरंजनदेव तीर्थ, मुनी सुशील कुमार जैसे बड़े संत इसमें शामिल हुए थे. जयप्रकाश नारायण ने भी इसे लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखा था. खास बात ये थी कि इंदिरा के पिता और 1947 से लेकर 1964 में हुई अपनी मौत तक देश के पहले प्रधानमंत्री रहे जवाहरलाल नेहरू गो हत्या पर प्रतिबंध लगाने के सख्त खिलाफ थे.
इसका अंदाजा खुद नेहरू के भाषणों और पत्रों से लग जाता है. नेहरू की आधिकारिक तौर पर जीवनी लिखने वाले सर्वपल्ली गोपाल अपनी पुस्तक ‘जवाहरलाल नेहरू- एक जीवनी’ में बताते हैं कि नेहरू की इच्छा नहीं थी कि गोहत्या पर प्रतिबंध का उल्लेख राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में हो. नेहरू गोहत्या पर प्रतिबंध को हिंदू पुनरुत्थानवाद का प्रतीक मानते थे.
नेहरू की इस मुद्दे पर सोच क्या थी, इसका अंदाजा 2 अप्रैल, 1955 को लोकसभा में दिये गये उनके भाषण से भी लग जाता है. नेहरू ने कहा था – “मैं प्रारंभ में ही साफ कर देना चाहूंगा कि मैं गो- वध बंदी विधेयक के सर्वथा विरुद्ध हूं और इस सदन से कहना चाहता हूं कि इस विधेयक को बिल्कुल रद्द कर दें. राज्य सरकारों से मेरा अनुरोध है कि ऐसे विधेयक पर न तो विचार करें, न कोई कार्रवाई.” ये विधेयक हिन्दू महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष और संसद सदस्य निर्मलचंद्र चटर्जी की तरफ से पेश किया गया था.
जैसा गोपाल ने इशारा किया है, नेहरू के लिए गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने का मामला कुछ वैसा ही था, जैसा देश में राष्ट्रभाषा के तौर पर हिंदी को लागू करना या फिर आजादी के बाद सोमनाथ के मंदिर का निर्माण. इन सभी मुद्दों को नेहरू हिंदू पुनरुत्थान का प्रतीक मानते थे, जिससे जुड़ना उन्हें मंजूर नहीं था.
बावजूद इसके देश के कई बड़े राज्यों में जब गोहत्या पर प्रतिबंध लगा, उस वक्त वहां कांग्रेस की सरकारें थीं, नेहरू जिंदा थे. मसलन असम और पश्चिम बंगाल में 1950 में, तत्कालीन बंबई प्रांत में 1964 में, तो उत्तर प्रदेश, पंजाब और बिहार में 1955 में गोहत्या प्रतिबंध संबंधी कानून बनाये गये. इसी तरह तमिलनाडु में 1958 में, मध्यप्रदेश में 1959 में, ओडीशा में 1960 में और कर्नाटक में 1964 में संबंधित कानूनों को लागू किया गया. उस वक्त भी उन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें थीं.
संविधान के अनुच्छेद 48 में गोहत्या पर प्रतिबंध की बात
संविधान के अंदर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच अधिकारों का जो वितरण है, उसमें गौ संवर्धन या फिर गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने संबंधी कानून बनाने की जिम्मेदारी मूल तौर पर राज्यों की है. हालांकि संविधान के निर्माता गोरक्षा को लेकर कितने संवेदनशील थे, इसका अंदाजा इस बात से लग जाता है कि राज्य के नीति-निर्देशक तत्व, जिसकी व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 48 में है, उसमें गोहत्या पर प्रतिबंध की बात की गई है.
सवाल ये उठता है कि खुद गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने की मुखालफत करने वाले नेहरू कांग्रेस की अगुआई वाली कई राज्य सरकारों की तरफ से ही बनाये गये गोहत्या प्रतिबंध वाले कानूनों को रोक क्यों नहीं पाए. ये मसला वैसा ही था, जैसा देश के राष्ट्रपति के तौर पर राजेंद्र प्रसाद का चुनाव, सोमनाथ मंदिर का नये सिरे से निर्माण या फिर हिंदी को राजभाषा के तौर पर संवैधानिक स्वीकृति दिलाने की कोशिश.
आजादी के शुरुआती वर्षों में मनमानी नहीं कर पाए नेहरू
देश को आजादी मिलने के शुरुआती वर्षों में कांग्रेस पर नेहरू का ऐसा प्रभुत्व नहीं था कि वो हर मामले में अपनी मनमानी कर सकें. यही वजह थी कि उनकी इच्छा के विरुद्ध जहां राजेंद्र प्रसाद देश के प्रथम राष्ट्रपति बने, वहीं सोमनाथ मंदिर का नये सिरे से निर्माण भी हुआ. यही बात राज्यों में बने गोहत्या प्रतिबंध संबंधी कानूनों पर लागू होती है.
जिस दौर में ये कानून बने, उस समय उत्तर प्रदेश में जहां गोविंद वल्लभ पंत मुख्यमंत्री थे, तो पश्चिम बंगाल में विधानचंद्र राय, बिहार में श्रीकृष्ण सिन्हा. तत्कालीन बंबई प्रांत के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई हुआ करते थे, तो मध्यप्रदेश में कैलाशनाथ काटजू, कर्नाटक में एस निजलिंगप्पा, ओडीशा में हरेकृष्ण मेहताब और तमिलनाडु में के कामराज.
ये सभी कांग्रेसी नेता ऐसे थे, जो नेहरू की इच्छा के खिलाफ जाकर काम करने का साहस कर सकते थे, उनके मुंह पर जवाब दे सकते थे. विधानचंद्र राय की वरिष्ठता और ताकत तो इस कदर थी कि वो नेहरू को जवाहर के तौर पर संबोधित करते थे. यही वजह थी कि नेहरू के न चाहते हुए भी देश के इन तमाम बड़े राज्यों में गोहत्या पर प्रतिबंध जैसे कानून बने.
नेहरू की मौत और लालबहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री बनने के बाद गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने वाले कानूनों की मांग ने एक बार फिर से जोर पकड़ा. कुछ ही राज्यों में तब तक गोहत्या के खिलाफ कानून बने थे. ये आंदोलन शास्त्री की मौत के बाद और इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के शुरुआती वर्षों में भी जोर से चलते रहे. तब इंदिरा गूंगी गुड़िया मानी जाती थीं, कांग्रेस में सिंडिकेट मजबूत था, जिसके सदस्य सनातन मूल्यों और इसकी प्रतीकों की रक्षा के खिलाफ नहीं थे.
गुजरात में भी चला गोहत्या पर रोक लगाने का आंदोलन
इसी दौर में गुजरात में भी गोहत्या पर रोक लगाने को लेकर आंदोलन चला. ये हुआ शंभूजी महाराज की अगुआई में, जो गोभक्त संत के तौर पर ही जाने जाते थे और कथावाचक के तौर पर गुजरात ही नहीं, गुजरात के बाहर भी काफी लोकप्रिय थे. गोरक्षा के लिए शंभूजी महाराज ने 21 दिनों का उपवास किया था अहमदबाद में. 1967 में उनके उपवास को तुड़वाने के लिए खुद अटलबिहारी वाजपेयी आए थे और पारणा करवाया था.
मोदी जब अहमदाबाद आकर विश्व हिंदू परिषद की गतिविधियों से जुड़े, परिषद ने भी गोरक्षा को अपने एजेंडे में वरीयता दे रखी थी. इसके जरिये परिषद हिंदू समाज के दिल में जगह भी बना रही थी, आखिर सनातन संस्कृति में गौ को मां का दर्जा हासिल है, जन्म से लेकर मरण तक गाय हिंदू जीवन से जुड़ी है, जीवन का अंत होते समय भी गोदान की पंरपरा है.
गोरक्षा अभियान से पहले, गुजरात में जब विश्व हिंदू परिषद की गतिविधियों की शुरुआत हुई, उस वक्त संगठन का ज्यादातर काम बूढ़े- बुजुर्गों के बीच था. हर गुरुवार को अलग- अलग इलाकों में, बूढ़े- बुजुर्गों को इकट्ठा किया जाता था, प्रार्थना की जाती थी, कुछ भजन होते थे और लोग निकल जाते थे. कांग्रेस की मजबूती और संघ के खिलाफ गांधीवादियों, समाजवादियों और साम्यवादियों के घनघोर दुष्प्रचार की वजह से आम लोग संघ या संघ से जुड़े संगठनों को संदेह की निगाहों से देखते थे, हिंदूवादी होना तब संकीर्णता का सूचक था. इस तरह की मानसिकता के बीच संघ और संबंधित संस्थाओं का काम आगे बढ़ाने का काम काफी चुनौतीपूर्ण था.
उस दौर में कम ही साधु- संन्यासी, संत- महंत ऐसे थे, जो हिंदुओं से जुड़े मुद्दों पर अपनी बात आक्रामक ढंग से रख सकते थे. जगन्नाथ मंदिर के तत्कालीन महंत सेवादास जी ऐसे ही गिने- चुने साधुओं में से एक थे. सेवादास जी खुद बढ़चढ़ कर धार्मिक गतिविधियों में हिस्सा लेते थे, हिंदू धर्म से जुड़े मामलों में मुखर थे. उनके शिष्य रामहर्षदास जी उनसे भी ज्यादा आक्रामक. शंभू महाराज भी गोरक्षा और हिंदू धर्म से जुड़े अन्य मुद्दों को लेकर काफी सक्रिय रहते थे.
मोदी ने विश्व हिंदू परिषद को काफी आगे बढ़ाया
इन सबके बीच रहते, राय- परामर्श करते, मोदी ने विश्व हिंदू परिषद के काम को काफी आगे बढ़ाया. ज्यादा समय उनका इस नये नये संगठन के लिए काम करते ही बीतता था, इसलिए कई लोग उन्हें परिषद का पूर्णकालिक कार्यकर्ता भी मान लेते थे. गोसंवर्धन और गोरक्षा का अभियान विश्व हिंदू परिषद के एजेंडे में जगह पा चुका था, इसलिए आम जनता को वीएचपी के इस अभियान से जोड़ने के लिए मोदी ने एक अनूठा तरीका अख्तियार किया.
मोदी ने गोसेवा- संवर्धन के काम से आम लोगों को जोड़ा
उस वक्त वीएचपी की बागडोर संभाल रहे डॉक्टर विश्वनाथ वणिकर के साथ ही केका शास्त्री, लक्ष्मीकांत सेठ और हरिश्चंद्र पंचाल जैसे परिषद से जुड़े महत्वपूर्ण लोगों से बातचीत करके मोदी ने अहमदाबाद शहर के चाय- पान की दुकानों पर छोटे- छोटे डिब्बे रखने की योजना बनाई. इन डिब्बों का इस्तेमाल कलेक्शन- बॉक्स के तौर पर होना था. डिब्बों के ऊपर ही स्टिकर लगा दिया गया था, गोसेवा- संवर्धन के काम के लिए इसमें लोगों से मदद की अपील की गई थी.
केका शास्त्री और डॉक्टर वणीकर विश्व हिंदू परिषद के संस्थापक सदस्य थे, जिनके मार्गदर्शन में मोदी ने वीएचपी का काम शुरुआती वर्षों में किया.
ये अनूठा प्रयोग काफी सफल रहा. पान के गल्लों या फिर चाय की दुकान पर, सुबह से शाम तक चुस्की लगा रहे, गपशप कर रहे आम आदमी की निगाह इन डिब्बों पर जाती थी और मामला चूंकि गायों से जुड़ा था, लोग अपनी जेब से एक पैसा, दो पैसे, पांच पैसे, दस पैसे, बीस पैसे, यहां तक कि चवन्नी, अठन्नी और रुपये के सिक्के भी डालने लगे.
उस जमाने में ये सभी किस्म के सिक्के चलते थे, नये भी, पुराने भी. चार आने का सिक्का चवन्नी के तौर पर जाना जाता था, तो आठ आने का सिक्का अठन्नी के तौर पर, सोलह आने का एक रुपया होता था. चवन्नी की वैल्यू पचीस नये पैसे होती थी, तो अठन्नी मतलब पचास नये पैसे. पांच पैसे में भी लेमनचूस मिल जाता था उन दिनों. नये पैसे वाले सिक्के 1957 में लाये गये थे और 1957 से 1964 के बीच ये नये सिक्के के तौर ही जाने जाते थे. एक जून 1964 के बाद ढाले जाने वाले सिक्कों से ही नया शब्द हटा.
नये और पुराने दोनों ही सिक्के काफी समय तक सर्कुलेशन में रहे. विश्व हिंदू परिषद के कामकाज को आगे बढ़ाने में नये- पुराने सिक्कों से काफी मदद मिली. एक तो लोगों ने इस संगठन के बारे में जाना- समझा, दूसरे डिब्बों की शक्ल में जो कलेक्शन बॉक्स था, दानपेटी थी, उसमें छोटा से छोटा दान भी सिक्कों के तौर पर डालकर लोग वीएचपी के मिशन से अपने को जोड़ रहे थे.
दान के पैसों से चलाये गये गोरक्षा से जुड़े कार्यक्रम
उस दौर में मोदी और उनके सहयोगी साइकिल पर सवार होकर, शहर के अलग- अलग हिस्सों में, चाय- पान की दुकानों, गुमटियों- गल्लों पर रखे दानपेटियों से सिक्कों को निकालकर इकट्ठा करते थे और फिर वीएचपी के कामकाज में इस फंड का इस्तेमाल होता था. लोगों के बीच जागरुकता को फैलाने से लेकर गोसंवर्धन, गोरक्षा से जुड़े कार्यक्रम करने और संबंधित साहित्य तैयार करने में भी लोगों के इस दान से काफी मदद मिली. छोटे- छोटे डिब्बों ने काफी बड़ी तादाद में आम आदमी को परिषद से जोड़ा, वो अलग.
गोरक्षा के साथ-साथ अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रम चलाया
उसी दौर में हिंदू समाज के सभी हिस्सों को आपस में जोड़ने के लिए विश्व हिंदू परिषद ने एक और कार्यक्रम लिया. ये कार्यक्रम था अस्पृश्यता निवारण का. कर्मप्रधान हिंदू, सनातन व्यवस्था, जो पूरी दुनिया को प्राचीन काल से ही रास्ता दिखा रही थी, कालांतर की सामाजिक परिस्थितियों के कारण जातियों में बंटी और हिंदू समाज का एक हिस्सा अस्पृश्य, दलित, शोषित, अछूत बन गया. इसी हिस्से को इस्लामी शासकों- सूफियों और ईसाई मिशनरियों ने भांति- भांति के प्रलोभन, भय या फिर समानता का दर्जा देने का आश्वासन देते हुए अपने में मिला लिया था, धर्मांतरित कर लिया था. हजार वर्षों की गुलामी से लेकर 1947 में आजादी के बाद भी ये सिलसिला चल रहा था.
हिंदू मंदिरों में दलितों को प्रवेश दिलाया
इसी को रोकने के लिए पहले संघ और फिर खास तौर पर विश्व हिंदू परिषद ने अस्पृश्यता निवारण को अपने एजेंडे में महत्वपूर्ण स्थान दिया. हिंदू मंदिरों में दलितों के प्रवेश और पूजा का मार्ग प्रशस्त किया जाने लगा. इस सिलसिले में गुजरात में भी डॉक्टर वणिकर, केका शास्त्री जैसे वरिष्ठ लोगों के मार्गदर्शन में मोदी ने काम शुरु किया.
जगन्नाथ मंदिर में रहते हुए न सिर्फ अहमदाबाद शहर के प्रमुख संतों से मोदी का गहरा परिचय हुआ, बल्कि गुजरात के दूसरे हिस्सों के संतों से भी. गुजरात के बाहर के संत, साधु- संन्यासी भी जगन्नाथ मंदिर आते ही रहते थे, इन सबसे मोदी ने घनिष्ठता बढ़ाई. जगन्नाथ मंदिर में शाम में कथा- प्रवचन की परंपरा थी, इस दौरान अस्पृश्यता निवारण को लेकर भी चर्चा होते रहती थी.
मोदी ने दलित बस्तियों में भी जाना शुरू किया
शहर की दलित बस्तियों में भी मोदी ने जाना शुरू कर दिया, महात्मा गांधी का दिया हुआ हरिजन शब्द भी उन दिनों काफी प्रचलित था. पक्के सनातनी गांधी ने भी अस्पृश्यता की इसी कुरीति को दूर करने के लिए दलित- अस्पृश्य हिंदुओं के लिए हरिजन शब्द का प्रयोग किया था और मौका मिलते ही दिल्ली से लेकर कोलकाता तक वो हरिजन बस्तियों में समय गुजारा करते थे.
मोदी और उनके साथियों ने अस्पृश्यता निवारण के मिशन के तहत न सिर्फ दलित बस्तियों में विभिन्न प्रकार के सेवा प्रकल्प चलाए, बल्कि संतों की पदयात्राएं भी वहां करवाईं. साधु- संतों ने दलितों के घर जाकर भोजन करने की पहल की, इससे पूरे हिंदू समाज में ये संदेश गया कि कोई अस्पृश्य नहीं है, सब एक ही सनातन व्यवस्था के हिस्से हैं, छुआछूत की बीमारी समाप्त होनी चाहिए.
इन सारे प्रयासों से दलितों की सामाजिक- मानसिक स्थिति में भी बदलाव आया. सदियों से उपेक्षा का दंश भोग रहे दलित समाज के लोगों का आत्मविश्वास बढ़ा. तमाम हिंदू त्यौहारों और पर्वों में वो उत्साह से भाग लेने लगे. अहमदाबाद के जगन्नाथ मंदिर से निकलने वाली रथयात्रा ने भी इसमें काफी बड़ी भूमिका निभाई. यात्रा की तैयारी से लेकर प्रसाद तैयार करने और अखाड़ों में भी दलित समाज के लोग बड़ी तादाद में शामिल होने लगे. जगन्नाथ मंदिर की परंपरा पहले से भी सर्वग्राही थी, सबका स्वागत होता था, परिषद के संगठित प्रयासों से इसे और बल मिला.
साधु- संत जगन्नाथ मंदिर के इस भवन में रहते हैं.
सुबह से शाम तक मोदी इन्हीं कामों में लगे रहते थे, संतों से मुलाकात, गोसेवा का काम, अस्पृश्यता निवारण के प्रकल्प, इन सबसे समय मिले तो संघ या फिर बाकी संगठनों के कामकाज में भी हाथ बंटाना. मोदी प्रफुल्ल रावल, अंबालाल कोष्ठी जैसे साथियों के साथ दिन में प्रचार- प्रसार के लिए जाते थे, कार्यक्रम करते थे, बाकी समय कार्यालय में बैठकर आगे की योजना तय करते थे.
व्यस्त दिनचर्या और पूरे समय भागदौड़ की वजह से मोदी शाम तक थककर चूर हो जाते थे. उस वक्त जगन्नाथ मंदिर ट्रस्ट से वीएचपी के लिए किराये पर लिये गये दो कमरों में से एक का इस्तेमाल ऑफिस की तरह किया जाता था, दूसरे का इस्तेमाल प्रचारकों, कार्यकर्ताओं के रहने के लिए. रात में मोदी कभी इस कमरे में सोते, कभी जगन्नाथ मंदिर के ठीक बगल वाली इमारत की छत पर.
मोदी छत पर सोना ज्यादा पसंद करते थे, क्योंकि गर्मी के दिनों में कमरे में एसी तो लगा नहीं होता था, मुश्किल से खटारा किस्म के पंखे होते थे उस दौर में. कमरे के अंदर रात में पसीने से लथपथ होने से बेहतर बाहर छत पर सोना होता था, जहां शीतल हवा रात में चलती थी, गर्मी कम लगती थी, आराम से नींद आ सकती थी.
सीएम रहते मुख्यमंत्री आवास की छत पर सो जाते थे मोदी
छत पर सोने की जो आदत मोदी को जगन्नाथ मंदिर कैंपस में रहते हुए वर्ष 1969 में पड़ी, वो लंबे समय तक जारी रही. आगे के वर्षों में संघ के प्रचारक के तौर पर जब वो गुजरात के अलग- अलग हिस्सों में प्रवास पर जाते, तब भी गर्मी के दिनों में छत पर चादर डालकर सो जाते थे. यहां तक कि वर्ष 2001 के अक्टूबर महीने में गुजरात का मुख्यमंत्री बन जाने पर भी उनकी इस आदत में ज्यादा बदलाव नहीं आया. मुख्यमंत्री के तौर पर शुरुआती महीनों में वो बड़े आराम से मुख्यमंत्री आवास की छत पर जाकर सो जाते थे.
अक्षरधाम मंदिर पर हमले के बाद मोदी को बदलनी पड़ी अपनी आदत
मोदी के छत पर जाकर सोने का ये सिलसिला तब बंद हुआ, जब मुख्यमंत्री आवास के नजदीक ही, सड़क के ठीक दूसरी तरफ, गांधीनगर के अक्षरधाम मंदिर पर 24 सितंबर 2002 को आतंकियों ने हमला किया. अमूमन शांत रहने वाले गांधीनगर में वो शाम आंतक की रात में तब्दील हो गई. पाकिस्तान से आए दो आतंकवादियों के हमले में कुल 29 लोगों की जान गई, बड़े पैमाने पर लोग घायल हुए. इसके बाद ही सुरक्षा अधिकारियों की सलाह पर मोदी ने मुख्यमंत्री आवास की छत पर सोना बंद कर दिया.
हालांकि 1969 के उस दौर में अहमदाबाद में भी शांति भंग होने वाली थी, शहर में उथल- पुथल होनी थी. लेकिन न तो मोदी को इसका अंदाजा था और न ही शहर में उस समय रहने वाले करीब 17 लाख लोगों को. उस समय तो मोदी संतों के जरिये रामायण के प्रवचन और गोसंरक्षण के अभियान से हिंदू समाज को जोड़ने में लगे थे, ये कहां पता था कि गाय और रामायण के कारण ही अहमदाबाद शहर नई करवट लेने वाला है, हिंदू समाज लंबी- गहरी नींद से जगने वाला है.
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FIRST PUBLISHED : January 9, 2024, 18:37 IST