Friday, April 18, 2025
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मोहन राकेश की दिलचस्प कहानी ‘सीमाएं’


8 जनवरी 1925 को अमृतसर (पंजाब) के एक सुसंस्कृत परिवार में जन्मे हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध कहानीकार मोहन राकेश का असली नाम मदन मोहन गुगलानी था, ‘राकेश’ उपनाम उन्होंने बाद में अपनाया. राकेश स्वतंत्र विचारों के हिमायती थे और अपनी शर्तों पर जीवन जीने के पक्षधर थे. जिसके चलते उन्होंने कई नौकरियां कीं और छोड़ीं भी. उनका पारिवारिक जीवन भी उधल-पुथल भरा ही रहा. 47 वर्ष की अल्पआयु में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन उनकी साहित्यिक यात्रा आधुनिक हिंदी साहित्य का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है.

अपनी कहानियों के बारे में मोहन राकेश लिखते हैं, “नए दौर की मेरी अधिकांश कहानियां अकेलापन झेलते लोगों की कहानियां हैं, जिनमें हर इकाई के माध्यम से उसके परिवेश को अंकित करने का प्रयत्न है. यह अकेलापन समाज से कटकर व्यक्ति का अकेलापन नहीं, समाज के बीच होने का अकेलापन है और उसकी परिणति भी किसी तरह के सिनिसिज़्म में नहीं, झेलने की निष्ठा में है.”

‘दस प्रतिनिधि कहानियां’ सीरीज़ किताबघर प्रकाशन की एक ऐसी सीरीज़ है, जिसमें हिन्दी कथा साहित्य जगत के सभी शीर्षस्थ कथाकारों को प्रस्तुत किया गया है. कहानीकारों ने संपूर्ण कथा-दौर से उन दस कहानियों का चयन किया जो पाठकों, समीक्षकों और संपादकों के लिए मील का पत्थर रहीं और ऐसी कहानियां जिन्होंने स्वयं रचनाकार के कहानीकार होने के अहसास को जीवंत रखा हो. ‘किताबघर’ की इस सीरीज़ का महत्त्वपूर्ण हिस्सा कथाकार मोहन राकेश भी रहे.

‘मोहन राकेश की दस प्रतिनिधि कहानियां’ संग्रह में जिन कहानियों को शामिल किया गया, वे हैं- ‘सीमाएं’, ‘मलबे का मालिक’, ‘उसकी रोटी’, ‘अपरिचित’, ‘क्लेम’, ‘आर्दा’, ‘रोज़गार’, ‘सुहागिनें’, ‘गुनाह बेलज्जत’ तथा ‘एक ठहरा हुआ चाकू’. प्रस्तुत है इसी कहानी-संग्रह से मोहन राकेश की एक दिलचस्प कहानी ‘सीमाएं’… कहानी एक अकेली लड़की के अकेलेपन के दु:ख को तो बयां करती ही है, लेकिन उसकी मूर्खता से भी परिचय करवाती है, कि किस तरह प्रेम की उम्मीद में एक लड़की आकर्षण का शिकार होती है और अपनी बहुत प्रिय चीज़ गवां बैठती है. खतम होते-होते कहानी एक ऐसा दिलचस्प मोड़ लेती है, जिसकी पाठक उम्मीद भी नहीं कर सकता…

सीमाएं : मोहन राकेश
इतना बड़ा घर था, खाने-पहनने और हर तरह की सुविधा थी, फिर भी उमा के जीवन में बहुत बड़ा अभाव था जिसे कोई चीज़ नहीं भर सकती थी.

उसे लगता था, वह देखने में सुंदर नहीं है. वह जब भी शीशे के सामने खड़ी होती तो उसके मन में झुंझलाहट भर आती. उसका मन होता कि उसकी नाक लंबी हो, गाल ज़रा हलके हों, ठोड़ी आगे की ओर निकली हो और आंखें थोड़ा और बड़ी हों. परंतु अब यह परिवर्तन कैसे होता? उसे लगता कि उसके प्राण एक गलत शरीर में फंस गए हैं, जिससे निस्तार का कोई चारा नहीं, और वह खीझकर शीशे के सामने से हट जाती.

उसकी मां हर रोज़ गीता का पाठ करती थी. वह बैठकर गीता सुना करती थी : कभी मां कथा सुनने जाती तो वह साथ चली जाती थी. रोज-रोज पंडित की एक ही तरह की कथा होती थी, ‘नाना प्रकार कर-करके नारद जी कहते भए हे राजन्…’ पंडित जो कुछ सुनाता था, उसमें उसकी ज़रा भी रुचि नहीं रहती थी. उसकी मां कथा सुनते-सुनते ऊंघने लगती थी. वह दरी पर बिखरे हुए फूलों को हाथों में लेकर मसलती रहती थी.

घर में मां ने ठाकुरजी की मूर्ति रखी थी, जिसकी दोनों समय आरती होती थी. उसके पिता रात को रोटी खाने के बाद ‘चौरासी बैष्णवों की वार्ता’ में से कोई वार्ता सुनाया करते थे. वार्ता के अतिरिक्त जो चर्चा होती, उसमें सतियों के चरित्र और दाल आटे का हिसाब, निराकार की महिमा और सोने चांदी के भाव, सभी तरह के विषय आ जाते. वह पिता द्वारा दी गई जानकारी पर कई बार आश्चर्य प्रकट करती, पर उस आश्चर्य में उत्साह नहीं होता.

उसे मिडिल पास किए चार साल हो गए थे. तब से अब तक वह उस संधिकाल में से गुजर रही थी जब सिवा विवाह की प्रतीक्षा करने के जीवन का और कोई ध्येय नहीं होता. माता पिता जिस दिन भी विवाह कर दें, उस दिन उसे पत्नी बनकर दूसरे घर में चली जाना था. यह महीने दो महीने में भी संभव हो सकता था, और दो तीन साल और भी प्रतीक्षा में निकल जा सकते थे.

उमा कुछ कर नहीं रही थी, फिर भी अपने में व्यस्त थी. बैठी थी, लेट गई. फिर उठकर कमरे में टहलने लगी. फिर खिड़की के पास खड़ी होकर गली की ओर देखने लगी और काफी देर तक देखती रही.

सवेरे रक्षा उसे सरला के ब्याह का बुलावा दे गई थी. वह कह गई थी कि वह साढ़े पांच बजे तैयार रहे, वह उसे आकर ले जाएगी. पहले रक्षा ने उसे बताया था कि सरला का किसी लड़के से प्रेम चल रहा है, जो उसे चिट्ठियों में कविता लिखकर भेजता है और जलती दोपहर में कॉलेज के गेट के पास उसकी प्रतीक्षा में खड़ा रहता है. आज वह प्रेम फलीभूत होने जा रहा था.

प्रेम यह शब्द उसे गुदगुदा देता था. राधा और कृष्ण के प्रेम की चर्चा तो रोज़ ही घर में हुआ करती थी. परंतु उस दिव्य और अलौकिक प्रेम के बखान से वह विभोर नहीं होती थी. परंतु यह प्रेम… उसकी सहेली का किसी लड़के से प्रेम… यह और चीज़ थी. इस प्रेम की चर्चा होने पर पर मलमल के जामे-सा हलका आवरण स्नायुओं को छू लेता था.

“उम्मी !” मां खिड़की में उसके पास आकर खड़ी हो गई.

उमा ने जरा चौंककर मां की ओर देखा.

“तुझे अभी तैयार नहीं होना?” मां ने पूछा.

“अभी तैयार हो जाऊंगी, ऐसी क्या जल्दी है?” और उमा की आंखें गली की ओर ही लगी रहीं.

“जाना है तो अब कपड़े-अपड़े बदल ले, “मां ने कहा, “बता साड़ी निकाल दूं कि सूट?”

“जो चाहे निकाल दो…” उमा अन्यमनस्क भाव से बोली.

तेरी अपनी कोई मर्जी नहीं?”

“उसमें मर्जी का क्या है? जो निकाल दोगी, पहन लूंगी.”

उसे अपने शरीर पर साड़ी और सूट दोनों में से कोई चीज़ अच्छी नहीं लगती थी. कीमती से कीमती कपड़े उसके अंगों को छूकर जैसे मुरझा जाते थे. रक्षा सवेरे साधारण खादी के कपड़े पहनकर आई थी, फिर भी बहुत सुंदर लग रही थी. उमा खिड़की से हटकर शीशे के सामने चली गई. मन में फिर वही झुंझलाहट उठी. आज वह इतने लोगों के बीच जाकर कैसी लगेगी? मां ने सुबह मना कर दिया होता तो कितना अच्छा था? अब भी यदि वह रक्षा से ज्वर या सिरदर्द का बहाना कर दे…?

वह अपने मन की दुर्बलता को तरह-तरह से सहारा दे रही थी. कभी चाहती कि रक्षा उसे लेने आना ही भूल जाए. कभी सोचती कि शायद यह सपना ही हो और आंख खुलने पर उसे लगे कि वह यूं ही डर रही थी. मगर सपना होता तो कहीं से टूटता या बदलता. सुबह से अब तक इतना एकतार सपना कैसे हो सकता था?

मां ने सफेद साटिन का सूट लाकर उसके हाथ में दे दिया. उमा ने उसे शरीर से लगाकर देखा. उसे अच्छा नहीं लगा. मगर उसका नया सूट वही था. उसने सोचा कि एक बार पहनकर देख ले, पहनने में क्या हर्ज है?

सूट की फिटिंग बिलकुल ठीक थी. उसे लगा कि उससे उसके अंगों का भद्दापन और व्यक्त हो आया है. यदि उसकी कमर कुछ पतली और नीचे का हिस्सा ज़रा भारी होता तो ठीक था. यदि उसकी होश में ही उसका पुनर्जन्म हो जाए और उसे रक्षा जैसा शरीर मिले तो वह सूट में कितनी अच्छी लगे?

मां वह लकड़ी का डिब्बा ले आई जो कभी उसकी फूफी ने उपहार में दिया. उसमें पाउडर क्रीम, लिपस्टिक और नेलपॉलिश, कितनी ही चीजें थीं. उसने उन्हें कई बार सूंघा तो था, पर अपने शरीर पर उनके प्रयोग की कल्पना नहीं की थी. उसने मां की ओर देखा. मां मुस्करा रही थी.

“यह किसके लिए लाई हो?” उमा ने पूछा.

“तेरे लिए और किसके लिए?” मां बोली, “ब्याह वाले घर नहीं जाएगी?”

“तो उसके लिए इस सबकी क्या जरूरत है?”

“वैसे जाना लोगों को बुरा लगेगा. घड़ी दो घड़ी की ही तो बात है.”

“लालाजी ने देख लिया तो…?”

“वे देर से घर आएंगे. तू लौटकर साबुन से मुंह धो लेना.”

“परंतु…”

उसके मन का परंतु नहीं निकला. पर वह मना भी नहीं कर सकी. उसकी इच्छा न हो, ऐसी बात नहीं थी, पर मन में आशंका भी थी. वह उन चीजों को अनिश्चित-सी देखती रही. मां दूसरे कमरे में चली गई.

लिपस्टिक उसने होठों के पास रखकर देखी. फिर मन हुआ कि हलका सा रंग चढ़ाकर देख ले. चाहेगी. तो पल भर में तौलिए से पोंछ देगी.

ज्यों ज्यों होंठों का रंग बदलने लगा, उसके मन की उत्सुकता बढ़ने लगी. तौलिए से होंठ छिपाए हुए वह जाकर खिड़की के किवाड़ बंद कर आई. फिर शीशे के सामने आकर वह तौलिए से होठों को रगड़ने लगी. उससे रंग कुछ फीका तो हो गया, पर पूरी तरह नहीं उतरा. फिर तौलिया रखकर उसने पाउडर की डिबिया उठा ली. मन ने प्रेरणा दी कि तौलिया है, पानी है, एक मिनट में चेहरा साफ हो सकता है, और वह पफ से चेहरे पर पाउडर लगाने लगी.

पफ रखकर जब उसने चेहरे को हाथ से मलना आरंभ किया तभी सीढ़ियों पर पैरों की खट्-खट् सुनाई दी. इससे पहले कि वह तौलिए में मुंह छिपा पाती, रक्षा दरवाजा खोलकर कमरे में आ गई. उमा के लिए अपना आप भारी हो गया.

“तैयार हो गई, परी रानी?” रक्षा ने मुसकराकर पूछा.

‘परी रानी’ शब्द उमा को खटक गया. उसे लगा कि उस शब्द में चुभती हुई चोट है.

“साढ़े पांच बज गए?”

उसने कुंठित स्वर में पूछा.

“अभी दस बारह मिनट बाकी हैं.” रक्षा ने कहा.

“मैं समझ रही थी, अभी पांच भी नहीं बजे”, उमा ने किसी तरह मुस्कराकर कहा. उसकी आंखें रक्षा के शरीर पर स्थिर हो रही थीं. आसमानी साड़ी के साथ हीरे के टॉप्स और सोने की चूड़ियां पहनकर रक्षा बहुत सुंदर लग रही थी.

मां ने अंदर से पुकारा तो उमा को जैसे वहां से हटने का बहाना मिल गया. अंदर गई तो मां वह मखमली डिबिया लिए खड़ी थी, जिसमें सोने की ज़ंजीर रखी रहती थी. वह ज़ंजीर मां के ब्याह में आई थी और उमा के ब्याह में दी जाने के लिए संदूक में संभालकर रखी हुई थी. मां ने जंजीर उसके गले में पहना दी तो उमा को बहुत अजीब लगने लगा. रक्षा इधर आवाज़ दे रही थी इसलिए वह मां के साथ बाहर कमरे में आ गई. उसके बाहर आते ही रक्षा ने चलने की जल्दी मचा दी.

जब वह चलने लगी तो मां ने पीछे से कहा, “रात को मंदिर में उत्सव भी है. हो सके तो आती हुई दर्शन करती आना.”

वह सीढ़ियों से उतरकर रक्षा के साथ गली में चलने लगी.

ब्याह वाले घर में पहुंच कर रक्षा बहुत जल्दी इधर उधर लोगों से उलझ गई. वह यहां से वहां जाती, वहां से उसके पास और उसके पास से और किसी के पास. उमा सोफे के एक कोने में सिमटकर बैठी रही. जब उसकी रक्षा से आंख मिल जाती तो रक्षा मुसकराकर उसे उत्साहित कर देती. जब रक्षा दूर जाती तो उमा बहुत अकेली पड़ने लगती. वह बत्तियों से जगमगाता हुआ घर उसके लिए बहुत पराया था. वहां फैली हुई महक अपनी दीवारों की गंध से बहुत भिन्न थी. खामोश अकेलेपन के स्थान पर चारों ओर खिलखिलाता हुआ शोर सुनाई दे रहा था. वह एक प्रवाह था जिसमें निरंतर लहरें उठ रही थीं. पर वह लहरों में लहर नहीं, एक तिनके की तरह थी-अकेली और एक ओर को हटी हुई.

रक्षा कुछ और लड़कियों को लिए हुए बाहर से आई और उसने उन्हें उसका परिचय दिया, “यह हमारी उमा रानी है, तुम लोगों की तरह चंट नहीं है, बहुत सीधी लड़की है.”

उमा को इस तरह अपना परिचय दिया जाना अच्छा नहीं लगा, फिर भी वह मुसकरा दी. रक्षा दूसरी लड़कियों का परिचय कराने लगी “यह कांता है, इंटर में पढ़ती है. अभी-अभी इसने कॉलेज के नाटक में जूलिएट का अभिनय किया था, बहुत अच्छा अभिनय रहा… यह कंचन है, आजकल कला भवन में नृत्य सीख रही है… और मनोरमा… यह कॉलेज के किसी भी लड़के को मात दे सकती है…

परिचय पाकर उमा अपने को उनसे और भी दूर अनुभव करने लगी. उन सबके पास करने के लिए अपनी बातें थीं. ‘वह’ ‘उस दिन’, ‘वह बात’ आदि संकेतों से वे बरबस हंस देती थीं. उमा के विचार कभी फर्श पर अटक जाते, कभी छत से टकराने लगते और कभी सफेद सूट पर आकर सिमट जाते.

रक्षा कांता को एक फोटो दिखा रही थी. और कह रही थी कि इस लड़के से ललिता की शादी हो रही है.

“अच्छी लॉटरी है !” कांता तसवीर हाथ में लेकर बोली, “एक दिन की भी जान-पहचान नहीं, और कल को ये पतिदेव होंगे और ललिता जी ‘हमारे वे’ कहकर इनकी बात करेंगी-धन्य पतिदेव.”

कांता की बात पर और सबके साथ उमा भी हंस दी. पर वह बेमतलब की हंसी थी, उसे हंसने के लिए आतंरिक गुदगुदी का ज़रा भी अनुभव नहीं हुआ था. उसके स्नायु जैसे जकड़ गए थे. खुलना चाहते थे, लेकिन खुल नहीं पा रहे थे.

बात में से बात निकल रही थी. कभी कोई बात स्पष्ट कही जाती और कभी सांकेतिक भाषा में. सहसा बात बीच में ही छोड़कर रक्षा एक नवयुवक को लक्षित करके बोली, “आइए, भाई साहब ! लाए हैं आप हमारी चीज़?”

“भई, माफ कर दो,” नवयुवक पास आता हुआ बोला, “तुम्हारी चीज़ मुझसे गुम हो गई.”

“हां, गुम हो गई ! साथ आप नहीं गुम हो गए?” रक्षा धृष्टता के साथ बोली.

“अपना भी क्या पता है?” नवयुवक ने कहा, “इंसान को गुम होते देर लगती है?”

नवयुवक लंबा और दुबला-पतला था और देखने में काफी अच्छा लग रहा था. उमा ने एक नज़र देखकर आंखें हटा लीं.

“चलो उधर, सरला बुला रही है,” नवयुवक ने फिर रक्षा से कहा.

“उससे कहो मैं अभी आती हूं,” रक्षा बोली.

“चलो भी, अभी आती हूं.” कहकर उसने रक्षा का हाथ पकड़कर खींचा. रक्षा उसके साथ चली गई. कांता कंचन को बताने लगी कि उस लड़के का नाम मोहन है और वह सरला का चचेरा भाई है. एम.ए. फाइनल में पढ़ रहा है. उमा ने इससे अधिक कुछ सुनने की आशा की, पर कांता वह बात छोड़कर मनो की प्रशंसा करने लगी.

मनो का फीता बहुत सुंदर था. उसके बालों में सोने का क्लिप और नीले रंग के फूल भी बहुत अच्छे लग रहे थे. उसके ब्लाउज़ का पारदर्शक कपड़ा बिजली के प्रकाश में किरणें छोड़ रहा था. कंचन मनो के कंधे पर झुककर उसके कान में कुछ फुसफुसाने लगी. उमा की आंखें झट दूसरी ओर को हट गयीं.

उसके सामने जो दो स्त्रियां बैठी थीं, वे उसी की ओर देखकर कोई बात कर रही थीं. उमा को लगा कि वे उसी की बात कर रही हैं- शायद उसके कपड़ों की आलोचना कर रही हैं. उसने बांहें समेट लीं और हाथ से गले की जंज़ीर को सहलाने लगी.

“बाहर चल रही हो?” मनो ने उससे पूछा.

“रक्षा किधर गई है?” यह पूछकर उमा और संकुचित हो गई.

“बाहर गई है, अभी देखकर भेजती हूं,” कहकर मनो कंचन और कांता के साथ उठ खड़ी हुई और वे सब बाहर चली गईं.

उमा फिर बिल्कुल अकेली पड़ गई तो उसके मन का बोझ बढ़ने लगा. वहां इतने अपरिचित लोगों की उपस्थिति, चहल-पहल और सजावट, सब कुछ उसे बेगाना लग रहा था. यदि सहसा उसे सुनसान अंधेरे जंगल में पहुंचा दिया जाता, जहां चारों ओर बिल्कुल नीरवता होती तो उसे निश्चय ही अब से अच्छा लगता. परंतु वहां उस चुलबुलाहट, छेड़छाड़ और दौड़-धूप में उसकी तबीयत उखड़ रही थी…

सहसा कमरा कहकहों से गूंज उठा. उमा चौक गई. कोई ऐसी बात हुई थी जिस पर सब लोग हंस रहे थे. उसने सोचा कि वह भी हंस दे, परंतु वह चुप रही कि हो सकता है उसी के बारे में कोई बात हुई हो… लेकिन जब हंसी का स्वर बैठ गया तो उसे अपने चुप रहने के लिए खेद हुआ क्योंकि उसकी चुप्पी सबने लक्षित की थी. वह पश्चाताप से भर गई.

बाजों का स्वर दूर से पास आ रहा था, इससे लोगों ने अनुमान लगाया कि बारात आ रही है. कमरे की हलचल बढ़ गई. उमा को उस समय बहुत ही व्यर्थ-सा प्रतीत होने लगा. उसके कानों में बाजे का स्वर गूंज रहा था और आसपास कुछ वाक्यों के टुकड़े मंडरा रहे थे.

-आओ बाहर.

-माधवी, ओ माधवी!

-हाय, मेरा लाल रूमाल!

-रोती है तो रोने दे.

-नीना रानी, ले बिस्कुट.

-मौली मिल गई, पंडित जी?

-देख, पीछे कितने लोग हैं?

-रूई, फूल, धूप, मेवा.

-मोहनलाल! मोहनलाल!

-देखा, कैसा है?

-कुछ लंबा लगता है.

-आ मुट्ठू, आ बेटा.

-जान ले ले तू बाबूजी की!

एक-एक करके सब लोग कमरे से बाहर चले गए. कुछ अपने-आप आग्रह से चले गए और कुछ को दूसरे आकर अनुरोध के साथ ले गए. केवल उमा अपने अकेलेपन में घिरी हुई वहां बैठी रह गई.

पहले क्षण तो उसे अकेली रह जाने में अच्छा लगा. दूसरे क्षण उपेक्षित होने की टीस का अनुभव हुआ. फिर आत्मीय दीप्त हुई कि उसे भी बाहर जाना चाहिए. परंतु अगले क्षण वह इस अनुभूति से मुरझा गई कि बाहर जाकर भी वह अकेली होगी… उस भीड़ में उसके होने-न-होने से कोई अंतर नहीं पड़ता.

बैंड का स्वर बहुत पास आ गया था और बाहर कोलाहल बढ़ रहा था. अंदर उमा के लिए समय के क्षण लंबे होते जा रहे थे और उसके हृदय की धड़कन मद्धम पड़ रही थी. तभी अचानक रक्षा बाहर से वहां आ गई.

“क्यों रानी रूठ गई है क्या?” रक्षा ने आते ही पूछा.

“नहीं, मैं…” उमा ने सिरदर्द का बहाना करना चाहा, लेकिन उसकी बात पूरी होने से पहले ही रक्षा ने उसका हाथ पकड़कर उठा दिया.

“बाहर चल, यहां क्यों बैठी है?” वह बोली, “बाहर अभी हम लोग दूल्हा के साथ एक तमाशा करने जा रही हैं.”

और कुछ कह सकने से पहले ही उमा बाहर भीड़ में पहुंच गई. यहां कंचन, मनो और कांता मिल गईं. वे सब उसे साथ सरला के कमरे में ले गईं. सरला दुल्हिन के बेश में बिल्कुल और ही लग रही थी. फूलदार जारजेट की साड़ी के साथ मोतियों के गहने उसकी गुलाब-सी त्वचा पर बहुत खिल रहे थे. सरला उसकी ओर देखकर मुस्कराई तो वह उसके होंठों की सलवटें देखती रह गईं. सरला ने साथ कुछ शब्द भी कहे, परंतु वे शब्द कोलाहल में उसे सुनाई नहीं दिए. वह उत्तर में यूं ही मुस्करा दी हालांकि अपनी वह व्यर्थ सी मुस्कराहट उसके हृदय में चुभ-सी गई…

दो घंटे बाद जब रक्षा उसके घर की गली के बाहर छोड़कर आगे चली गई तब भी उमा के हृदय में वह चुभता हुआ अनुभव उसी तरह था, जैसे कोई कांटा अंदर टूट कर रह गया हो. वह अपनी स्थिति का निर्णय नहीं कर पा रही थी. एक तरफ जैसे रक्षा, सरला, कांता, कंचन और मनोरमा खिलखिलाकर हंस रही थीं. दूसरी तरफ वे दीवारें थीं, जिनमें सटी हुई खिड़की के पास सवेरे धूप आती थी और दोपहर ढलते ही अंधेरा होने लगता था और जिनके साए में पूर्णिमा और एकादशी के व्रत रखने होते थे. वह जैसे दोनों ओर से दब रही थी और टूट रही थी.

गली में आकर उसने मंदिर की घंटियां सुनीं तो उसे मां की बात याद हो आई कि आज मंदिर में उत्सव है. उसके पैर अनायास मंदिर की सीढ़ियों की ओर बढ़ गए. वह अंदर पहुंचकर स्त्रियों की पंक्ति में हाथ बांधकर खड़ी हो गई.

आरती समाप्त होने पर स्तोत्र पाठ आरंभ हुआ. उमा आंखें मूंदकर लय में शब्दों का अनुकरण करने लगी, जय सीतावर वर सुंदर, जय जग सुख दाता. जय जय जग सुखदाता…

परंतु मूंदी हुई आंखों के आगे रक्षा का खिलखिलाता हुआ चेहरा आ गया, फिर मोहन की बड़ी-बड़ी आंखे, और फिर एक के बाद एक कितनी ही आकृतियां सामने आने लगीं, व्यंग्यपूर्ण मुस्कराहटें, उपेक्षा-भरी भौंहें, सोफे का खाली कोना, ज़ोर-ज़ोर से बजता हुआ बाजा… उसने अपने आपको झटका दिया… दीनबंधु करुणामय, सब जग के त्राता!… फिर हिलता हुआ पर्दा, पर्दे के पीछे बिजलियां, बिजलियों के प्रकाश में रक्षा, मोहन सरला और दूल्हा के खिलखिलाते हुए चेहरे.

उमा ने आंखें खोल लीं. स्तोत्र का स्वर चारों ओर गूंज रहा था. बरसों से वह इस स्वर को सुनती आई थी, लेकिन फिर भी आज उसे यह स्वर कुछ अपरिचित-सा लग रहा था. जैसे उसके अंतर की गहराई में कहीं कुछ थोड़ा बदल गया था.

सहसा उसकी आंखें एक जगह टकराकर लौट आईं. भीड़ में एक नवयुवक उसकी ओर देख रहा था.

उमा के शरीर में लहू का दबाव बढ़ गया. हृदय की गति बहुत तेज़ हो गई. उसकी आंखे केले के खंभों पर से हटकर सजी हुई सामग्री पर से फिसलती हुई फिर वहीं टकरायीं. वह अब भी उसी तरह देख रहा था.

उमा के लिए पैरों का संतुलन बनाए रखना कठिन हो गया. उसकी आंखें ठाकुर जी की मूर्ती पर पड़ीं और जल्दी से हट गईं. उसके पास से कुछ लोग चलने लगे तो वह भी साथ चल दी. पुजारी से चरणामृत लेकर वह ड्योढ़ी की ओर बढ़ी. सहसा भीड़ में किसी का हाथ उससे छुआ. उमा ने घूरकर देखा. वही दो आंखें थीं… काली डोरेदार आंखें.

स्तोत्र का स्वर मशीन के घर्र-घर्र स्वर जैसा हो गया. आसपास की भीड़ पत्थ की गोपियां, मिट्टी के आम व कपड़े के तोते, हर चीज़ धुंधली होने लगी. आकाश बोझिल हो गया और धरती समतल नहीं रही. दिशाएं एक-दूसरे में मिलकर ओझल होने लगीं. प्रकाश रंग बदलने लगा. वह भीड़ में कुछ यूं हो गई, जैसे रुके हुए पानी में अस्त-व्यस्त हाथ-पैर मार रही हो. केवल एक ज्ञान था कि एक हाथ उसे छू रहा है. यहां बाजू के पास, यहां कंधे के पास, यहां…

वह बाहर से आती हुई दो स्त्रियों के साथ उलझ गई. किसी तरह संभलकर जब वह बाहर पहुंची तो उसे हवा का स्पर्श कुछ विचित्र-सा लगा. लहू जो तेज़ी के साथ नाड़ियों में सरसरा रहा था, वह अब कुछ ठंडा पड़ने लगा तो शरीर में सिहरन भर गई. उसके कंधे के पास उस हाथ का स्पर्श जैसे अभी तक सजीव था.

उसका मन हुआ कि वह जल्दी से घर पहुंच जाए और एक बार खिलखिलाकर हंस दे. वे असाधारण क्षण बिल्कुल नई-सी अनुभूति छोड़ गए थे. यदि रक्षा उस समय उसके पास होती तो वह हंसती हुई उसके गले में बांहे डाल देती और उसे घसीटती हुई अपने साथ घर ले जाती.

उस स्पर्श को एक बार छू लेने के लिए उमा का हाथ अपने कंधे के उसी भाग की ओर उठ गया. वह स्पर्श जैसे वहां अपनी निश्चित छाप छोड़ गया था.

अचानक उसका पैर लड़खड़ा गया और वह रुक गई. उसका शरीर पसीने से भीग गया. अंधेरे गहरे-गहरे रंग फैल गए.

उस स्पर्श का आभास तो वहां था, पर सोने की ज़ंजीर गले में नहीं थी.

Tags: Book, Hindi Literature, Hindi Writer, Literature



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