श्रीलाल शुक्ल ऐसे उपन्यासकार रहे, जिन्हें नई पीढ़ी भी सबसे ज़्यादा पढ़ती है. शुक्ल नई पीढ़ी के बीच सबसे अधिक समझने और पढ़ने वाले वरिष्ठ रचनाकारों में से एक हैं. उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की और ब्रिटेन, जर्मनी, पोलैंड, सूरीनाम, चीन, यूगोस्लाविया जैसे देशों की यात्रा में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया. श्रीलाल शुक्ल का विधिवत लेखन 1954 से शुरू होता है और इसके साथ ही हिंदी गद्य का एक गौरवशाली अध्याय सामने आता है. उनका पहला प्रकाशित उपन्यास ‘सूनी घाटी का सूरज’ तथा पहला प्रकाशित व्यंग ‘अंगद का पांव’ है. उनकी प्रमुख कृतियां में ‘सूनी घाटी का सूरज’, ‘आओ बैठ लें कुछ देर’, ‘अंगद का पांव’, ‘रागदरबारी’, ‘अज्ञातवास’, ‘आदमी का ज़हर’, ‘इस उम्र में’, ‘उमराव नगर में कुछ दिन’, ‘कुछ ज़मीन पर कुछ हवा में’, ‘ख़बरों की जुगाली’, ‘विश्रामपुर का संत’, ‘मकान’, ‘सीमाएं टूटती हैं’, ‘संचयिता’, ‘जहालत के पचास साल’ और ‘यह घर मेरा नहीं है’ जैसी रचनाएं शामिल हैं. गौरतलब है, कि ‘विश्रामपुर का संत’ को स्वतंत्र भारत में सत्ता के खेल की सशक्त अभिव्यक्ति कहा गया था.
1949 में राज्य सिविल सेवा- पीसीएस में चयनित हुए और 1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा- आईएएस से सेवानिवृत्त हो गए. अपनी लोकप्रिय कृतियों पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, यश भारती, पद्मभूषण, ज्ञानपीठ आदि जैसे शीर्ष सम्मान मिले. उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, यश भारती, पद्मभूषण, ज्ञानपीठ सम्मान, लोहिया सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान और शरद जोशी सम्मान समेत अनेकों सम्मान व पुरस्कार मिले. श्रीलाल शुक्ल अपनी जिस कालजयी रचना के लिए विश्वप्रसिद्ध हुए, वो है ‘रागदरबारी’. ये एक अदभुत व्यंग्य कृति है जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया. ये किताब आज भी लोगों के बीच उसी पुरानी शिद्दत और लगाव से पढ़ी जाती है, पाठ चाहे कितना भी नया हो. शायद ही ऐसा कोई साहित्य प्रेमी हो, जिसने इसे न पढ़ा हो. वे जब तक हमारे बीच रहे, एक से एक रचनाएं हिंदी साहित्य को दीं और हर रचना अपने आप में ख़ास रही. गंभीर रूप से अस्वस्थ हो जाने के बाद उन्होंने पढ़ना-लिखना छोड़ दिया और 28 अक्टूबर 2011 को 86 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया. अब वे भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन हिंदी साहित्य की दुनिया में उनका नाम अमर रहेगा और उद्देशयपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा.
आइए पढ़ते हैं श्रीलाल शुक्ल की मार्मिक रचना, जिसका नाम है ‘एक चोर की कहानी’. कहानी खत्म होते होते आंखों को नम भी कर देती है, लेकिन इन सबके बीच बहुत गहरा संदेश भी देती है.
एक चोर की कहानी : श्रीलाल शुक्ल
माघ की रात. तालाब का किनारा. सूखता हुआ पानी. सड़ती हुई काई. कोहरे में सब कुछ ढंका हुआ. तालाब के किनारे बबूल, नीम, आम और जामुन के कई छोटे-बड़े पेड़ों का बाग. सब सर झुकाए खड़े हुए. पेड़ों के बीच की जमीन कुशकास के फैलाव में ढंकी हुई. उसके पार गन्ने का खेत. उसका आधा गन्ना कटा हुआ. उस पर गन्ने की सूखी पत्तियां फैली हुईं. उन पर जमती हुई ओस. कटे हुए गन्ने की ठूंठियां उन्हें पत्तियों में ढंकी हुईं. आधे खेत में उगा हुआ गन्ना, जिसकी फुनगी पर सफेद फूल आ गए थे. क्योंकि वह पुराना हो रहा था.
रात के दो बजे. पास की अमराइयों में चिडि़यों ने पंख फटकारे. कोई चमगादड़ ‘कैं कैं’ करता रहा. एक लोमड़ी दूर की झाडि़यों में खांसती रही. पर रात के सन्नाटे के अजगर ने अपनी बर्फीली सांस की एक फुफकार से इन सब ध्वनियों को अपने पेट में डाल लिया और रह-रहकर फुफकारता रहा.
तभी, जैसे गन्ने के सुनसान घने खेत से अकस्मात बनैले सुअरों का कोई झुण्ड बाहर निकल आए, बड़े जोर का शोर मचा, ‘चोर! चोSSSर. चोSSSर!’
गांव की ओर से लगभग पच्चीस आवाजें हवा में गूंज रही थीं :
‘चोर! चोर! चोSSSर. चोSSSर!’
‘चारों ओर से घेर लो. जाने न पाए.’
‘ठाकुर बाबा के बाग की तरफ गया है…’
‘भगंती के खेत की तरफ देखना.’
‘हां, हां गन्ने वाला खेत…’
‘चोSSSर. चोSSSर!’
देखते-देखते गांव वाले ठाकुर के बाग में पहुंच गए. चारों ओर से उन्होंने बाग को और उससे मिले हुए गन्ने के खेत को घेर लिया. लालटेनों की रोशनी में एक-एक झाड़ी की तलाशी ली जाने लगी. सब बोल रहे थे. कोई भी सुन नहीं रहा था.
तभी एक आदमी ने टॉर्च की रोशनी फेंकनी शुरू की. भगंती के खेत में उसने कुछ गन्नों को हिलते देखा. फिर वह धीरे-धीरे खेत के किनारे तक गया. दो-तीन कोमल गन्ने जमीन पर झुके पड़े थे. उसी की सीध में कुछ गन्ने ऐसे थे जिन पर से पाले की बूंदें नीचे ढुलक गई थीं. टॉर्च की रोशनी में और पौधों के सामने ये कुछ अधिक हरे दिख रहे थे.
टॉर्च की रोशनी को खेत की गहराइयों में फेंकते हुए उस आदमी ने चिल्लाकर कहा, ‘होशियार भाइयो, होशियार! चोर इसी खेत में छिपा है. चारों ओर से इसे घेर लो. जाने न पाए!’
फिर शोर मचा और लोगों ने खेत को चारों ओर से घेर लिया. उस आदमी ने मुंह पर दोनों हाथ लगाकर जोर-से कहा, ‘खेत में छिपे रहने से कुछ नहीं होगा. बाहर आ जाओ, नहीं तो गोली मार दी जाएगी.’
वह बार-बार इसी बात को कई प्रकार से आतंक-भरी आवाज में कहता रहा. भीड़ में खड़े एक अधबैसू किसान ने अपने पास वाले साथी से कहा, ‘नरैना है बड़ा चाईं. कलकत्ता कमाकर जब से लौटा है, बड़ा हुसियार हो गया है.’
उसके साथी ने कहा, ‘बड़े-बड़े साहबों से रफ्त-जब्त रखता है. कलकत्ते में इसके ठाठ हैं. मैं तो देख आया हूं. लड़का समझदार है.’
‘जान कैसे लिया कि चोर खेत में है?’
तभी किसी ने कहा, ‘यह चोट्टा खेत से नहीं निकलता तो आग लगा दो खेत में. तभी बाहर जाएगा.’
इस प्रस्ताव के समर्थन में कई लोग एक साथ बोलने लगे. किसी ने इसी बीच में दियासलाई भी निकाल ली.
भगंती ने आकर नरायन उर्फ नरैना से हाथ जोड़कर कहा, ‘हे नरायन भैया, एक चोर के पीछे हमारा गन्ना न जलवाओ. सैकड़ों का नुकसान हो जाएगा. कोई और तरकीब निकालो.’
नरायन ने कहा, ‘देखते जाओ भगंती काका, खेत का गन्ना जलेगा नहीं, पर कहा यही जाएगा.’
उसने तेजी से चारों ओर घूमकर कुछ लोगों से बातें कीं और खेत के आधे हिस्से में गन्ने की जो सूखी पत्तियां पड़ी थीं. उनके छोटे-छोटे ढेरों में आग लगा दी. बहुत-से लोग आग तापने के लिए और भी नजदीक सिमट आए. सब तरह का शोर मचता रहा.
खेत के बीच में गन्ने के कुछ पेड़ हिले. नरायन ने उत्साह से कहा, ‘शाबाश! इसी तरह चले आओ.’
पास खड़े हुए भगंती से उसने कहा, ‘चोर आ रहा है. दस-पन्द्रह आदमियों को इधर बुला लो.’
चारों ओर से उठने वाली आवाजें शांत हो गईं. लोगों ने गर्दन उठा-उठाकर खेत के बीच में ताकना शुरू कर दिया.
चोर के निकलने का पता लोगों को तब चला जब वह नरायन के पास खड़ा हो गया.
सहसा चोर को अपने पैरों से लिपटा हुआ देख वह उछलकर पीछे खड़ा हो गया जैसे सांप छू लिया हो. एक बार फिर शोर मचा, ‘चोर! चोSSSर!’
चोर घुटनों के बल जमीन पर गिर पड़ा.
न जाने आसपास खड़े लोगों को क्या हुआ कि तीन-चार आदमी उछलकर चोर के पास गए और उसे लातों-मुक्कों से मारना शुरू कर दिया. पर उसे ज्यादा मार नहीं खानी पड़ी. मारने वालों के साथ ही नरायन भी उसके पास पहुंच गया. उनको इधर-उधर ढकेलकर वह चोर के पास खड़ा हो गया और बोला, ‘भाई लोगो, यह बात बेजा है. हमने वादा किया है कि मारपीट नहीं होगी, यह शरनागत है. इसे मारा न जाएगा.’
एक बुड्ढे ने दूर से कहा, ‘चोट्टे को मारा न जाएगा तो क्या पूजा जाएगा.’
पर नरायन ने कहा, ‘अब चाहे जो हो, इसे पुलिस के हाथों में देकर अपना काम पूरा हो जाएगा. मारपीट से कोई मतलब नहीं.’
लोग चारों ओर से चोर के पास सिमट आए थे. नरायन ने टॉर्च की रोशनी उस पर फेंकते हुए पूछा, ‘क्यों जी, माल कहां है?’
पर उसकी निगाह चोर के शरीर पर अटकी रही. चोर लगभग पांच फुट ऊंचा, दुबला-पतला आदमी था. नंगे पैर, कमर से घुटनों तक एक मैला-सा अंगोछा बांधे हुए. जिस्म पर एक पुरानी खाकी कमीज थी. कानों पर एक मटमैले कपड़े का टुकड़ा बंधा था. उमर लगभग पचास साल होगी. दाढ़ी बढ़ रही थी. बाल सफेद हो चले थे. जाड़े के मारे वह कांप रहा था और दांत बज रहे थे. उसका मुंह चौकोर-सा था. आंखों के पास झुर्रियां पड़ी थीं. दांत मजबूत थे. मुंह को वह कुछ इस प्रकार खोले हुए था कि लगता था कि मुस्कुरा रहा है.
उसे कुछ जवाब ने देते देख कुछ लोग उसे फिर मारने को बढ़े पर नरायन ने उन्हें रोक लिया. उसने अपना सवाल दोहराया, ‘माल कहां है?’
लगा कि उसके चेहरे की मुस्कान बढ़ गई है. उसने हाथ जोड़कर खेत की ओर इशारा किया. इस बार नरायन को गुस्सा आ गया. अपनी टॉर्च उसकी पीठ पर पटककर उसने डांटकर कहा, ‘माल ले आओ.’
दो आदमी लालटेनें लिए हुए चोर के साथ खेत के अंदर घुसे. पाले और ईख की नुकीली पत्तियों की चोट पर बार-बार वे चोर को गाली देते रहे. थोड़ी देर बाद जब वे बाहर आए तो चोर के हाथ में एक मटमैली पोटली थी. पोटली लाकर उसने नरायन के पैरों के पास रख दी.
नरायन ने कहा, ‘खोलो इसे. क्या-क्या चुरा रक्खा है?’
उसने धीरे-धीरे थके हाथों से पोटली खोली. उसमें एक पुरानी गीली धोती, लगभग दो सेर चने और एक पीतल का लोटा था. भीड़ में एक आदमी ने सामने आकर चोर की पीठ पर लात मारी. कुछ गालियां दीं और कहा, ‘यह सब मेरा माल है.’
लोग चारों ओर से चोर के ऊपर झुक आए थे. वह नरायन के पैरों के पास चने, लोटे और धोती को लिए सर झुकाए बैठा था. सर्दी के मारे उसके दांत किटकिटा रहे थे और हाथ हिल रहे थे. नरायन ने कहा, ‘इसे इसी धोती में बांध लो और थाने ले चलो.’
दो-तीन लोगों ने चोर की कमर धोती से बांध ली और उसका दूसरा सिरा पकड़कर चलने को तैयार हो गए.
चोर के खड़े होते ही किसी ने उसके मुंह पर तमाचा मारा और गालियां देते हुए कहा, ‘अपना पता बता वरना जान ले ली जाएगी.’
चोर जमीन पर सर लटकाकर बैठ गया. कुछ नहीं बोला. तब नरायन ने कहा, ‘क्यों उसके पीछे पड़े हो भाइयों! चोर भी आदमी ही है. इसे थाने लिए चलते हैं. वहां सब कुछ बता देगा.’
किसी ने पीछे से कहा, ‘चोर-चोर मौसेरे भाई.’
नरायन ने घूमकर कहा, ‘क्यों जी, मैं भी चोर हूं? यह किसकी शामत आई!’
दो-एक लोग हंसने लगे. बात आई-गई हो गई.
वे गांव के पास आ गए. तब रात के चार बज रहे थे. चोर की कमर धोती से बांधकर, उसका एक छोर पकड़कर दीना चौकीदार थाने चला. साथ में नरायन और गांव के दो और आदमी भी चले.
चारों में पहले वाला बुड्ढा किसान रास्ता काटने के लिए कहानियां सुनाता जा रहा था, ‘तो जुधिष्ठिर ने कहा कि बामन ने हमारे राज में सोने की थाली चुराई है. उसे क्या दंड दिया जाए? तो बिदुर बोले कि महाराज, बामन को दंड नहीं दिया जाता. तो राजा बोले कि इसने चोरी की है तो दंड तो देना ही पड़ेगा. तब बिदुर ने कहा कि महाराज, इसे राजा बलि के पास इंसाफ के लिए भेज दो. जब राजा बलि ने बामन को देखा तो उसे आसन पर बैठाला…’
चौकीदार ने बात काटकर कहा, ‘चोर को आसन पर बैठाला? यह कैसे?’
बुड्ढा बोला, ‘क्या चोर, क्या साह! आदमी आदमी की बात! राजा ने उसे आसन दिया और पूरा हाल पूछा. पूछा कि आपने चोरी क्यों की तो बामन बोला कि चोरी पेट की खातिर की.’
चौकीदार ने पूछा, ‘तब?’
‘तब क्या?’ बुड्ढा बोला, ‘राजा बलि ने कहा कि राजा युधिष्ठिर को चाहिए कि वे खुद दंड लें. बामन को दंड नहीं होगा. जिस राजा के राज में पेट की खातिर चोरी करनी पड़े वह राजा दो कौड़ी का है. उसे दंड मिलना चाहिए. राजा बलि ने उठकर….’
चौकीदार जी खोलकर हंसा. बोला, ‘वाह रे बाबा, क्या इंसाफ बताया है राजा बलि का. राजा विकरमाजीत को मात कर दिया.’
वे हंसते हुए चलते रहे. चोर भी अपनी पोटली को दबाए पंजों के बल उचकता-सा आगे बढ़ता गया.
पूरब की ओर घने काले बादलों के बीच से रोशनी का कुछ-कुछ आभास फूटा. चौकीदार ने धोती का छोर नरायन को देते हुए कहा, ‘तुम लोग यहीं महुवे के नीचे रूक जाओ. मैं दिशा मैदान से फारिग हो लूं.’
साथ के दोनों आदमी भी बोल उठे. बुड्ढे ने कहा, ‘ठीक तो है नरायन भैया, यहीं तुम इसे पकड़े बैठे रहो. हम लोग भी निबट आवें.’
वे चले गए. नरायन थोड़ी देर चोर के साथ महुवे के नीचे बैठा रहा. फिर अचानक बोला, ‘क्यों जी, मुझे पहचानते हो?’
दया की भीख-सी मांगते हुए चोर ने उसकी ओर देखा. कुछ कहा नहीं. नरायन ने फिर धीरे-से कहा, ‘हम सचमुच मौसेरे भाई हैं.’
इस बार चोर ने नरायन की ओर देखा. देखता रहा. पर इस सूचना पर नरायन जिस आश्चर्य-भरी निगाह की उम्मीद कर रहा था, वह उसे नहीं मिली. बढ़ी हुई दाढ़ी वाला एक दुबला-पतला चौकोर चेहरा उससे दया की भीख मांग रहा था. नरायन ने धीरे-से रूक-रूककर कहा, ‘कलकत्ते के शाह मकसूद का नाम सुना है? उन्हीं के गोल का हूं.’
जैसे किसी को किसी अनजाने जाल में फंसाया जा रहा हो, चोर ने उसी तरह बिंधी हुई निगाह से उसे फिर देखा. नरायन ने फिर कहा, ‘कलकत्ते के बड़े-बड़े सेठ मेरे नाम से थर्राते हैं. मेरी शक्ल देखकर तिजोरियों के ताले खुल जाते हैं, रोशनदान टूट जाते हैं.’
वह कुछ और कहता. लगातार बात करने का लालच उसकी रग-रग में समा गया था. अपनी तारीफ में वह बहुत कुछ कहता. पर चोर की आंखों में न आनंद झलका, न स्नेह दिखाई दिया. न उसकी आंखों में प्रशंसा की किरण फूटी, न उनमें आतंक की छाया पड़ी. वह चुपचाप नरायन की ओर देखता रहा.
सहसा नरायन ने गुस्से में भरकर उसकी देह को बड़े जोर-से झकझोरा और जल्दी-जल्दी कहना शुरू किया, ‘सुन बे, चोरों की बेइज्जती न करा. चोरी ही करनी है तो आदमियों जैसी चोरी कर. कुत्ते, बिल्ली, बंदरों की तरह रोटी का एक-एक टुकड़ा मत चुरा. सुन रहा है बे?’
मालूम पड़ा कि वह सुन रहा है. उसकी चेहरे पर हैरानी का उतार-चढ़ाव दीख पड़ने लगा था. नरायन ने कहा, ‘यह सेर-आध सेर चने और यह लोटा चुराते हुए तुझे शर्म भी नहीं आई? यही करना है तो कलकत्ते क्यों नहीं आता?’
न जाने क्यों, चोर की आंखों से आंसू बह रहे थे. उसके होंठ इतना फैल गए थे कि लग रहा था, वह हंस पड़ेगा. पर आंसू बहते ही जा रहे थे. वह अपने पेट पर दोनों हाथों से मुक्के मारने लगा. आंसुओं का वेग और बढ़ गया.
नरायन ने बात करनी बंद कर दी. कुछ देर रूककर कहा, ‘भाग जो. कोई कुछ न कहेगा. जब तू दूर निकल जाएगा तभी मैं शोर मचाऊंगा.’
जब इस पर भी चोर ने कुछ जवाब न दिया तो उसे आश्चर्य हुआ. फिर कुछ रूककर उसने कहा, ‘बहरा है क्या बे?’
फिर भी चोर ने कुछ नहीं कहा.
नरायन ने उसे बांधने वाली धोती का छोर उसकी ओर फेंका, उसे ढकेलकर दूर किया और हाथ से उसे भाग जाने का इशारा किया. पर चोर भागा नहीं. थका-सा जमीन पर औंधे मुंह पड़ा रहा.
इतने में दूसरे लोग आते हुए दिखाई पड़े. नरायन ने गंभीरतापूर्वक उठकर चोर को जकउ़ने वाली धोती पकड़ ली. उसे हिला-डुलाकर खड़ा कर दिया. एक-एक करके वे सब लोग आ गए.
सवेरा होते-होते वे थाने पहुंच गए. थाना मुंशी ने देखते ही कहा, ‘सबेरे-सबेरे किस का मुंह देखा!’
पर मुंह देखते ही वह फिर बोला, ‘अजब जानवर है! चेहरा तो देखो, लगता है हंस पड़ेगा.’
दिन के उजाले में सबने देखा कि उसका चेहरा सचमुच ऐसा ही है. छोटी-छोटी सूजी हुई आंखों और बढ़ी हुई दाढ़ी के बावजूद चौकोर चेहरे मे फैल हुआ मुंह, लगता था, हंसने ही वाला है.
थाना मुंशी ने पूछा, ‘क्या नाम है?’
चोर ने पहले की तरह हाथ जोड़ दिए. तब उसने उसके मुंह पर दो तमाचे मारकर अपना सवाल दोहराया. चोर का मुंह कुछ और फैल गया. उसने-दो-चार तमाचे फिर मारे.
इस बार उसकी चीख से सब चौंक पड़े. मुंह जितना फैल सकता था, उतना फैलाकर चोर बड़ी जोर-से रोया. लगा, कोई सियार अकेले में चांद की ओर देखकर बड़ी जोर-से चीख उठा है.
मुंशी ने उदासीन भाव से पूछा, ‘माल कहां है?’
नरायन ने चने, लोटे और धोती को दिखाकर कहा, ‘यह है.’
न जाने क्यों सब थके-थके से, चुपचार खड़ रहे. चोर अब सिसक रहा था. सहसा एक सिपाही ने अपनी कोठरी से निकलकर कहा, ‘मुंशी जी, यह तो पांच बार का सजायाफ्ता है. इसके लिए न जेल में जगह है, न बाहर. घूम-फिरकर फिर यहीं आ जाता है.’
मुंशी ने कहा, ‘कुछ अधपगला-सा है क्या?’
सिपाही ने मुंशी के सवाल का जवाब स्वीकार में सिर हिलाकर दिया. फिर पास आकर चोर की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘क्यों गूंगे, फिर आ गए. कितने दिन के लिए जाओगे छह महीने कि साल-भर?’
चोर सिसर रहा था, पर उसकी आंखों में भय, विस्मय और जड़ता के भाव समाप्त हो चले थे. सिपाही की ओर वह बार-बार हाथ जोड़कर झुकने लगा, जैसे पुराना परिचित हो.
चौकीदार ने साथ के बुड्ढे को कुहनी से हिलाकर कहा, ‘साल-भर को जा रहा है. समझ गए बलि महाराज?’
पर कोई भी नहीं हंसा.
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FIRST PUBLISHED : June 08, 2023, 21:28 IST