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Lalu Prasad expels elder son Tej Pratap Yadav Over ‘Relationship Post’ : पटना से आई एक खबर ने पूरे देश को चौंका दिया है. राष्ट्रीय जनता दल (RJD) सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने अपने बेटे तेज प्रताप यादव को पार्टी और परिवार से बेदखल कर दिया है और वजह बताई जा रही है अनुष्का यादव के साथ उनका रिश्ता. तेजप्रताप और अनुष्का यादव की तस्वीरें और वीडियो सामने आने के बाद बिहार की राजनीति से लेकर लालू यादव परिवार तक, हर जगह उठा-पटक मची हुई है. यह फैसला महज एक सियासी कदम नहीं, बल्कि एक पिता की अपने बेटे से नाराजगी का ऐलान भी है. राजनीतिक हितों को देखते हुए लालू का ये फैसला भले ही स्टंड के तौर पर देखा जाए, लेकिन सवाल उठता है, क्या यह एक पिता का सही व्यवहार है? क्या पैरेंटिंग का यही तरीका होना चाहिए?
किसी भी समाज में जब बाप-बेटे के रिश्ते सियासत की भेंट चढ़ते हैं, तो केवल एक परिवार नहीं टूटता, बल्कि टूटते हैं उन मूल्यों के धागे, जो इंसान को इंसान बनाते हैं.
तेज प्रताप ने 1 साल पहले एक यूट्यूबर को दिए इंटरव्यू में बताया था कि वो एक कमर्शियल पायलेट हैं और इसकी ट्रेनिंग भी ले चुके हैं. लेकिन तभी पापा का फोन आया और उन्होंने कहा ‘महुआ से चुनाव लड़ना है’. ऐसे तेज प्रताप राजनीति में उतार गए. वहीं उनकी शादी के समय भी ये खबरें थीं कि ऐश्वर्या से शादी उनकी मर्जी से नहीं हुई थी.
भावनाओं की जड़ से जुड़ी कहानी
हम सभी भारतीय परिवारों में भावनाओं का बड़ा महत्व है. हम सीखते हैं कि मां-बाप का सम्मान करना ज़रूरी है, लेकिन वहीं यह भी सीखते हैं कि हर रिश्ता संवाद और समझदारी से चलता है. तेज प्रताप ने भले ही पिता की इच्छा के खिलाफ जाकर कोई फैसला लिया हो, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि उसका हर रिश्ता, हर पहचान उससे छीन ली जाए? एक पिता का अपने बेटे से नाराज़ होना स्वाभाविक है, पर उस गुस्से को रिश्तों पर हावी कर देना, क्या यह सही है?
क्या है सही पैरेंटिंग?
सही पैरेंटिंग का मतलब है अपने बच्चों की बात सुनना, उन्हें समझना, और उनके फैसलों में भागीदार बनना, भले ही आप उनसे सहमत न हों. बच्चों से संवाद की बजाय उन्हें परिवार से अलग कर देना, केवल जख्म ही देता है, समाधान नहीं. आज की पीढ़ी यह चाहती है कि मां-बाप उनके दोस्त बनें, उनके जज नहीं. जहां उन्हें सही-गलत बताने वाला साथ चाहिए, वहीं यह भी ज़रूरी है कि मां-बाप अपने बच्चों को अपनी ज़िंदगी के फैसले लेने की आजादी दें.
सामाजिक दबाव या संवेदनहीनता?
कई बार पारिवारिक फैसले सामाजिक दबाव में लिए जाते हैं—‘लोग क्या कहेंगे’—इस सोच ने न जाने कितने रिश्तों को तोड़ा है. अगर प्यार और रिश्ते सामाजिक टैग से ज़्यादा भारी हो जाएं, तो वहां संवेदनशीलता मर जाती है और बचती है सिर्फ सख्ती. लालू यादव जैसे बड़े नेता का यह फैसला केवल पारिवारिक नहीं, एक सार्वजनिक संदेश बन जाता है. और यही बात इसे और भी तकलीफदेह बना देती है. एक रिश्ते को चलाना जितना कठिन है, उतना ही सरल है उसे तोड़ देना. लेकिन क्या यह तोड़ने की प्रक्रिया वाकई समाधान देती है? जब परिवार में संवाद बंद हो जाए, तब कोई भी रिश्ता नहीं टिकता—ना राजनीति में, ना निजी जीवन में.
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