Friday, March 14, 2025
Google search engine
HomeNationalवैलेंटाइन डे पर पढ़ें रवीश कुमार की लघु प्रेम कथा 'इश्क में...

वैलेंटाइन डे पर पढ़ें रवीश कुमार की लघु प्रेम कथा ‘इश्क में शहर होना’


बारापुला फ्लाईओवर से हुमायूं के मकबरे की पीठ, निजामुद्दीन की छतें, उन पर सूखते कपड़े, कार से उतरते ही वह कहने लगी― आसमान और छत के बीच होने जैसा लगता है यहां, ऊंचाई पर होने के बाद भी दिल्ली और तुम्हारे प्यार के बीच की जमीन लगती है ये जगह.

आंखों से कैमरा उतार कर मुस्कुरा दिया. इतना ही कहा― दिल्ली का यह कोना सुकून जैसा है न! बिल्कुल तुम्हारे जैसा…

दोनों की मुलाकात छत्तरपुर के मन्दिर में हुई. मगर अच्छा लगता था उन्हें जामा मस्जिद में बैठना. इतिहास से साझा होने के बहाने वर्तमान का यह एकान्त ‘करीम’ से खाकर दोनों मस्जिद की मीनार पर जरूर चढ़ते. भीतर के संकरे रास्ते से होते हुए ऊंचाई से दिल्ली देखने का डर और हाथों को पकड़ लेने का भरोसा. स्पर्श की यही ऊर्जा दोनों को शहरी बना रही थी. चलते-चलते टकराने की जगह भी तो बहुत नहीं दिल्ली में!

सेक्टर–18 मार्केट में मेट्रो की पटरी छतरी बन गई. मोटे खम्भे के पीछे वह देर तक खड़ी रही. बाइक को बारिश से बचाने के बहाने दोनों खुद को जमाने की नजरों से बचा रहे थे. सामने खम्भे के पीछे से पार्किंगवाले की घूरती निगाह ने उनके अकेलेपन को तोड़ दिया. अब उन्हें ऊपर से गुजरती मेट्रो का शोर सुनाई देने लगा. हॉर्न की आवाज से कान फटने लगे. मुश्किल से एक कोना ढूंढा मगर निगाहों ने उसे चौराहा बना दिया.

दोस्तों को बताया कि जस्ट फ्रेंडशिप है. वैसी नहीं है वह. मिलते ही सफाई देने लगता. हम दोनों आर्ट्स फैकल्टी गए थे. हेड से मिलने. सेंट्रल लाइब्रेरी में साथ-साथ किताबों को ढूंढ़ना और उसकी छत पर जाकर चाय पीना. दिल्ली यूनिवर्सिटी में चाय की इससे अच्छी जगह नहीं थी.
कुछ रिश्ते ऐसे ही होते हैं, नई-नई जगहें उभर आती हैं. नए-नए बहाने बनने लगते हैं. वह जानती थी. यह वैसा नहीं है. पर इसे ही नहीं मालूम था कि वह वैसा ही है.

बात तो पूरी हो गई थी, अधूरी रह जाने का बहाना था. पता है, रैलियों से उड़ती धूल से कभी आंधी का डर नहीं लगता.
सही कहती हो तुम. हम तो उस धूल के छंटते ही रामलीला मैदान में बिखरे पर्चों की तरह इधर से उधर होते रह जाएंगे. तो अब हम कहां मिलेंगे? तुम बताओगे या मैं पता करूं…. कर लो, लेकिन रामलीला जैसा कोई मैदान मिल जाए वही ठीक रहेगा.
क्यों? यार, ब्रेक में कुछ पोलिटिक्स जमती है अपने को. मैं पूछती हूं, हम प्रेम में हैं या पोलिटिक्स में? कहीं नहीं हैं हम. तो?

हम दिल्ली में हैं, सनम. कहीं मिलें, क्या फर्क पड़ता है!

Tags: Books, Hindi Literature, Literature, Love Story, Valentines day



Source link

RELATED ARTICLES
- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments