चंद्रभूषण
परवेज मुशर्रफ पाकिस्तान के फौजी तानाशाह थे लेकिन उनसे ज्यादा ताकतवर दो और फौजी तानाशाह, जनरल जिया उल हक और मार्शल अय्यूब खां उनके पहले अच्छे-खासे वक्त तक इस मुल्क पर राज कर चुके हैं। जो अकेली बात मुशर्रफ को अपने इन दोनों हमराहियों से ऊपर ले जाती है, वह थी उनकी शातिर कूटनीतिक बुद्धि, जिसमें बाकी दोनों तानाशाह लगभग कोरे थे। अभी 79 साल की उम्र में संयुक्त अरब अमीरात में पूरे शरीर को लुंज-पुंज कर देने वाली किसी अजीब सी बीमारी से उनकी मृत्यु को उनके अतिशय सक्रिय फौजी और राजनीतिक जीवन के साथ नियति के अन्याय की तरह ही देखा जाएगा। लेकिन जैसे करम उन्होंने अपनी सक्रियता के दौरान किए, उसे याद करें तो दक्षिण एशिया में उनके प्रशंसक भी शायद बहुत ज्यादा दुखी न हों।
ऊंचा रुतबा
ठीक है, पाकिस्तानी फौज के एक कमांडो अधिकारी की तरह उन्होंने अपने देश की सेवा की। अपने बेटे का नाम 1971 के भारत-पाक युद्ध में मारे गए अपने अधिकारी बिलाल के नाम पर रखा। एक फौजी अफसर के रूप में इतना बड़ा रुतबा पाकिस्तान में हासिल किया, जो दिल्ली से गए किसी और मोहाजिर के लिए कल्पनातीत ही समझा जाएगा। लेकिन मामले का दूसरा पहलू यह है कि पाकिस्तानी सेना प्रमुख के रूप में उन्होंने वह किया, जिसके बारे में उनका कोई भी पूर्ववर्ती कभी सोच भी नहीं सका था। उन्होंने पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व को पूरी तरह अंधेरे में रखते हुए अपनी एक बड़ी सैनिक टुकड़ी को आतंकी गुटों के साथ मिलकर लेह-लद्दाख को भारत से जोड़ने वाली उस समय की अकेली सड़क को ध्वस्त करके भारत का एक हिस्सा तोड़ लेने के काम में लगा दिया। इस गिरोहबंदी ने जम्मू-कश्मीर के उत्तर-पूर्वी हिस्से से भारत-पाक नियंत्रण रेखा पार की और पहाड़ों पर मजबूत ठिकाने बना लिए।
- मुशर्रफ ने यह कदम ठीक उस समय उठाया, जब थोड़ा ही पहले दोनों देशों ने एटमी परीक्षण किए थे और लाहौर समझौते के जरिए दुनिया के आगे खुद को जिम्मेदार एटमी पड़ोसी की तरह पेश करने में जुटे थे।
- बड़े तामझाम से ‘लाहौर समझौता’ करने वाली तत्कालीन वाजपेयी सरकार के लिए पाकिस्तानी फौज की यह हरकत इस हद तक शर्मिंदगी पैदा करने वाली थी कि आनन-फानन में जवाबी कदम उठाए जाने से पहले तक उसने देश को भनक तक नहीं लगने दी कि करगिल में हो क्या रहा है।
- इस अफरातफरी का अंदाजा लगाने के लिए सिर्फ समय पर ध्यान दें। फरवरी 1999 में लाहौर समझौते पर दस्तखत हुए। फिर फटाफट दोनों देशों की संसदों ने इस पर मोहर लगा दी। लेकिन जुलाई 1999 में ही करगिल युद्ध छिड़ गया, जिसे रोकने में अमेरिका तक के पसीने छूट गए।
इससे भी बड़ा कमाल यह कि करगिल में बुरी तरह मुंह की खाने और चार सौ से ज्यादा पाकिस्तानी फौजी कटवा देने, फिर उन्हें पहचानने से भी इनकार कर देने के बावजूद पाकिस्तान में परवेज मुशर्रफ की गुड्डी और चढ़ गई। पाकिस्तानी फौज और वहां की जनता में करगिल युद्ध से बढ़ी अपनी लोकप्रियता का फायदा मुशर्रफ ने इस रूप में उठाया कि पहला मौका मिलते ही नवाज शरीफ सरकार का तख्ता पलट दिया। अक्टूबर 1999 में पूरा देश उनकी मुट्ठी में था। बहरहाल, ‘भारत-पाक और मुशर्रफ’ के किस्से में सबसे बड़ा कमाल अभी होना बाकी था।
- करगिल युद्ध को दो साल भी नहीं बीते थे, जब परवेज मुशर्रफ ऐसी भव्यता के साथ ‘आगरा समझौते’ का ढोल पीटते हुए दिल्ली तशरीफ लाए, जो किसी भी पाकिस्तानी शासक को यहां कभी नसीब नहीं हुई थी।
- यह समझौता लाहौर समझौते की ही भावना के तहत दोनों देशों में स्थायी शांति कायम करने, आतंकवाद समाप्त करने और कश्मीर समस्या के हल के लिए होना था, लेकिन ऐन मौके पर दस्तखत नहीं हो पाए।
- दोनों देशों को 1972 का शिमला समझौता ही याद रहा, आगरा के साथ ही लाहौर समझौते का नाम भी बिसर गया।
- कुछ ऐसा ही महीन खेल परवेज मुशर्रफ ने अमेरिका के साथ भी खेला। 11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला हुआ।
- आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई की शुरुआत अमेरिका ने अफगानिस्तान से करने का फैसला किया और अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश का बयान आया कि इस लड़ाई में जो भी उनके साथ नहीं है, वह उनके खिलाफ है।
- ऐसे में हीलाहवाली दिखाना मुशर्रफ के लिए स्वाभाविक था, लेकिन कुछ साल बाद उन्होंने ही दुनिया को बताया कि उन्हें अमेरिकी उप विदेशमंत्री रिचर्ड आर्मिटेज ने फोन किया था कि अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों की तैनाती के दौरान अगर उन्होंने हर संभव सहयोग नहीं दिया तो बमों की मार से पाकिस्तान को पाषाण युग में पहुंचा दिया जाएगा।
- इस स्वीकारोक्ति के जरिए परवेज मुशर्रफ ने अपनी अवाम को यह संदेश देना चाहा कि मजबूरी में ही उन्हें अमेरिका के साथ खड़ा होना पड़ा है।
- फिर भी इसका भरपूर फायदा उन्होंने न सिर्फ डॉलर टर्म में उठाया, बल्कि डबल क्रॉस करते हुए अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को अपना संरक्षण भी दिया।
सऊदी अरब का सहारा
गजब बात यह कि इस तरह के खेल मुशर्रफ ने ठेठ इस्लामी दुनिया में भी करके दिखा दिए। वे नैशनलिस्ट हैं, वाइट हाउस और लाल किले पर हरा झंडा फहराने के दावे करने वाले लोग उनसे नरमी की कोई उम्मीद न करें, ऐसा उन्होंने कई बार कहा। शरियत वाले सऊदी अरब के बजाय तुर्की के आधुनिक राष्ट्रवाद को वह हमेशा अपना और पाकिस्तान का आदर्श बताते थे। लेकिन पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सत्ता छोड़ने के बाद भुट्टो और शरीफ परिवार ने एकजुट होकर जब बड़ी सजा की ओर उन्हें धकेला तो मुशर्रफ ने लपक कर सऊदी अरब का पल्लू पकड़ा, जिसने फांसी या जेल के बजाय यूएई में आराम की जिंदगी, और फिर वैसी ही मौत के दरवाजे उनके लिए खोल दिए।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं