Wednesday, February 5, 2025
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श्रीलाल शुक्ल ने एक अंजान लेखक के लिए ‘कथाक्रम सम्मान’ की सिफारिश की


‘आनन्द सागर स्मृति कथाक्रम सम्मान’ के इस 14वें सम्मान समारोह में देशभर से हिंदी के लेखक और साहित्य प्रेमी एकत्रित हुए थे. वरिष्ठ आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव, शिव कुमार मिश्र, गिरिराज किशोर, विजय मोहन सिंह, मैत्रेयी पुष्पा, रवीन्द्र वर्मा, चन्द्रकान्ता, चन्द्रकला त्रिपाठी, महुआ माझी, मदन मोहन, शकील सिद्दकी, मूलचन्द गौतम, जितेन ठाकुर, सुषमा मुनीन्द्र, देवेन्द्र, अखिलेश, वीरेन्द्र यादव, हरिचरण प्रकाश, शिवमूर्ति, गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, नमिता सिंह, अरविन्द त्रिपाठी, वंदना राग, सुशील सिद्धार्थ, रजनी गुप्त, चन्दन पांडे मौजूद थे. लेकिन डॉ. नामवर सिंह, मैंनेजर पांडेय, काशीनाथ सिंह, राजी सेठ, रामधारी सिंह दिवाकर, विष्णु नागर, रवीन्द्र कालिया इस समारोह में पहुंच नहीं पाए .

इस पूरे आयोजन में मैंने एक बात देखी और महसूस की कि जिस तरह की आत्मीयता और मैत्री-भाव सम्मानित लेखक के प्रति नजर आना चाहिए वह इसमें पूरी तरह नदारद था. बल्कि अपने प्रति मैंने बहुत से वरिष्ठ और कनिष्ठों में एक अजीब-सा कुंठा और उपेक्षा का भाव देखा. इसका मुझे एक कारण यह नजर आया कि उस बार का यह सम्मान एकदम चौंकाने वाला था. क्योंकि यह सम्मान जहां दूधनाथ सिंह, असग़र वजाहत, मैत्रेयी पुष्पा, ओमप्रकाश वाल्मीकि, संजीव, चन्द्रकिशोर जायसवाल, शिवमूर्ति जैसे दिग्गजों को दिया जा चुका हो, उनके बरक्स मुझे कैसे सम्मान मिल गया? उस लेखक को जिसका वास्ता न कभी राजेन्द्र यादव स्कूल से रहा, न नामवर सिंह स्कूल से. उन दिनों हिंदी साहित्य में इन्हीं दो स्कूलों का बोलबाला था. ईमानदारी से कहूं इसमें दोष वहां इकट्ठा हुए लेखकों का भी नहीं था. सच्चाई यह है कि जैसे मैं बहुत से लेखकों को नहीं जानता था, वैसे ही वे भी मुझे जानते होंगे, इसकी क्या गारंटी है? उन दिनों हिंदी साहित्य में तरह-तरह के अनुमानों का बाजार गर्म था कि इस आदमी को यह सम्मान मिला तो मिला कैसे? कहां से इसने जुगाड़ लगाया होगा?

जिस दिन मुझे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से शाम को लखनऊ के लिए ट्रेन पकड़नी थी, मैंने देखा जिस कोच में बैठा था, उसी कोच के बाहर वरिष्ठ आलोचक डॉ. विजय मोहन सिंह जी अपने बेटे के साथ खड़े थे. उन्हें भी उसी ट्रेन से लखनऊ जाना था. वे मुझे नहीं जानते थे. हालांकि जानना जरूरी था भी नहीं. एक बार मेरे मन में आया भी कि मैं उन्हें अपना परिचय दूं कि मैं फलां-लेखक हूं और मुझे इस बार का कथाक्रम सम्मान मिला है. परन्तु मैंने ऐसा नहीं किया. यह सोचकर कोच के बाहर खड़ा रहा कि इतनी बड़ी इस दुनिया में यह जरूरी नहीं है कि सब-एक दूसरे को जानें. वैसे भी क्या पता वे क्या कह बैठें. मैं उनके स्वभाव से अच्छी तरह वाकिफ था. क्योंकि वे हर ऐरे-गैरे नत्थू खैरे को लेखक ही नहीं मानते थे. बावजूद इसके कोच से बाहर आकर उनके इर्द-गिर्द इस भ्रम में मैंने कई चक्कर लगाए कि क्या पता वे मुझे जानते हों? लेकिन मेरा अनुमान तब यक़ीन में बदल जब उन्होंने मेरी तरफ देखा तक नहीं. दरअस्ल, डॉ. नामवर सिंह के आलोचकीय ताप ने बहुत से ठाकुर आलोचकों का सूरज सुबह की लालिमा से आगे नहीं चढ़ने दिया.

इस 14वें कथाक्रम सम्मान मिलने के बाद मैं अरसे तक यह जानने-समझने की कोशिश करता रहा कि आखिर इस सम्मान के लिए मेरे नाम की सिफारिश की तो किसने की? मेरी तो कोई रचना कभी ‘कथाक्रम पत्रिका’ में प्रकाशित भी नहीं हुई. शैलेन्द्र सागर को मैं तब भी उतना ही जानता था जितना आज जानता हूं. हालांकि मई, 2001 में मैंने ‘कथाक्रम’ के लिए एक कहानी जरूर भेजी थी जिसका शीर्षक तब मैंने ‘स्वप्न मुक्ति’ रखा था. जिसकी प्राप्ति सूचना भी पत्रिका के कार्यालय के दिनांक 31 मई, 2001 के इस पोस्ट कार्ड द्वारा जून की 3 तारीख को मिल गई थी.

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लेकिन 6 महीने तक जब कहानी के बारे कोई सूचना प्राप्त नहीं हुई, तब मैंने खुद ही पत्र डालकर पूछ लिया. जिसका तुरन्त उत्तर आ गया. 6 दिसम्बर, 2001 को लिखी और कथाक्रम, 4, ट्रांजिट हॉस्टल, वायरलेस चौराहे के पास, महानगर, लखनऊ के पते से चले इस पोस्ट कार्ड के माध्यम से इस कहानी के सम्बन्ध में जो सूचना दी गई, उसे कृपया आप भी देख लें-

प्रिय मोरवाल जी,
आपका पत्र प्राप्त हुआ, धन्यवाद. आपकी कहानी सम्पादक मंडल द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाने के कारण ‘कथाक्रम’ में नहीं प्रकाशित हो सकी. यदि इसके साथ पर्याप्त डाक टिकट लगा लिफाफा मिला होता तो अस्वीकृत रचना आपको लौटाई जा सकती थी. वैसे अस्वीकृत रचनाएं हम ज़्यादा दिन संभालकर नहीं रख पाते. नष्ट कर देते हैं. आशा है आप सानंद होंगे.
भवदीय
ललितेन्द्र
कृत सम्पादक

मैंने यह सन्दर्भ इसलिए दिया कि जिस लेखक की कहानी ‘कथाक्रम’ पत्रिका में प्रकाशन योग्य ना हो, वह पांच साल बाद ‘कथाक्रम सम्मान’ के योग्य हो जाए, तो इसका अर्थ है उस लेखक ने लेखन के बाज़ार में जबरदस्त उछाल मारा है. बाद में यह कहानी वर्तमान साहित्य के नवम्बर 2001 के अंक में प्रकाशित हुई थी. एक के बाद एक कहानी कभी ‘हंस’ द्वारा, तो कभी ‘कथ’न द्वारा बल्कि अब ‘कथाक्रम’ द्वारा अस्वीकृत होने के कारण मेरा मन कहानियों से उचटने लगा था. कहानियों में मुझे अपना साहित्यिक भविष्य अब असुरक्षित नज़र आने लगा. कहानी लेखन की जो मेरी गति नब्बे के दशक में थी, वह एकदम मंद पड़ गई. इस मंदी का आप इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि 2001 से लेकर 2006 तक मैंने मात्र ग्यारह कहानियां लिखीं. अन्तिम कहानी मेरी वही ‘मोक्ष’ कहानी थी जिसे 14वें कथाक्रम सम्मान वाले साल 2006 के एकदम शुरू में मैंने लिखा था, और रवीन्द्र कालिया ने जिसके साथ अश्लील हरकत की थी. इसलिए यह तो हो नहीं सकता कि मेरे नाम की सिफारिश कथाक्रम की तरफ से हुई होगी. अब बचे कथाक्रम सम्मान-2006 के संरक्षक श्रीलाल शुक्ल जी. मेरा उनसे परिचय तो दूर रहा, इससे पहले मैंने सिर्फ उन्हें एक बार देखा था. पहली बार जब श्रीलाल शुक्ल जी को देखा या कहिए उनसे मिला था, तब वह अवसर बिलकुल अलग था. यह अवसर था 1998 में प्रकाशित इनके उपन्यास ‘बिश्रामपुर का संत’ पर के.के.बिड़ला फाउंडेशन द्वारा नौवें व्यास सम्मान (1999) समारोह का दिन.

यह वही 1999 का साल था जब मेरा पहला उपन्यास ‘काला पहाड़’ प्रकाशित होकर आया था. मैं किसी काम से दरियागंज आया हुआ था, तो वहीं भारत यायावर और कवि-कथाकार मित्र श्याम बिहारी श्यामल से मुलाक़ात हो गई. पता चला वे दोनों इंडिया गेट के जनपथ मार्ग स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय जा रहे हैं. मैंने पूछा कि वे किसलिए वहां जा रहे हैं तो भारत यायावर जी ने बताया कि आज वहां ‘राग दरबारी’ के लेखक श्रीलाल शुक्ल को के.के.बिड़ला फाउंडेशन द्वारा ‘व्यास सम्मान’ दिया जा रहा है. मैंने कहा कि मैं भी चलता हूं. इतना कह मैं उनके साथ चल दिया.

इस तरह हम तीनों जनपथ मार्ग पर स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय आ गए. अभी समारोह शुरू होने में काफी समय हुआ था इसलिए हम तीनों संग्रहालय के बगल में जनपथ मार्ग के किनारे घास के लॉन में बैठ गए और बतियाने लगे. इसी बीच अचानक भारत यायावर बोले, “सुनो श्रीलाल जी तो ये रहे. हमारी तरफ ही आ रहे हैं.”

चौंककर हमने देखा तो पाया सड़क के किनारे खड़ी सफेद अम्बेसडर कार से उतरकर श्रीलाल शुक्ल सचमुच हमारी तरफ बढ़े आ रहे हैं. उन्होंने अपनी कार से हमें देख लिया था और भारत यायावर जी को उन्होंने पहचान लिया था. जहां तक मुझे याद है उनकी कार में उनके परिवार के भी कुछ लोग थे.

भारत यायावर जी ने ऐसे ही पूछ लिया कि अभी आ रहे हैं? इस पर श्रीलाल जी बोले कि आ तो हम बहुत पहले गए थे. अभी काफी समय है तो सोचा बच्चों को आइसक्रीम खिला लाऊं. भारत यायावर ने श्याम बिहारी श्यामल और मेरा परिचय श्रीलाल शुक्ल जी से कराया. लगभग दस मिनट बात करने के बाद श्रीलाल जी वापस अपनी कार की तरफ लौट गए.

श्रीलाल शुक्ल जी को मैंने पहली बार उस दिन देखा या कहिए उनसे पहली बार मिला. मगर यह रहस्य, रहस्य ही बना रहा कि कथाक्रम सम्मान के योग्य मुझे किसने पाया?

अन्ततः इस रहस्य को कई महीने बाद जिस व्यक्ति ने उद्घाटित किया वह था सुशील सिद्धार्थ. वही सुशील सिद्धार्थ जो आनन्द सागर स्मृति कथाक्रम सम्मान-2006 की संयोजन समिति का सदस्य भी था. मैंने एक बार जब उनके सामने यह जिज्ञासा प्रकट की कि इस सम्मान के लिए मेरा नाम कैसे आया, तब वे मुस्कराते हुए बोले, “अरे गुरु, आपको नहीं पता इस सम्मान के लिए किसने आपका नाम रखा था?”
“किसने रखा था?” मैंने प्रतिप्रश्न किया.
“आपका नाम ख़ुद श्रीलाल जी ने प्रस्तावित किया था. जब सम्मान समिति का संरक्षक ही किसी के नाम का प्रस्ताव रख रहा हो तो किसी की क्या मजाल जो उनसे बहस करता.”

मेरे लिए सचमुच यह सूचना किसी आठवें आश्चर्य से कम नहीं थी. मुझे आज भी और तब भी सुशील सिद्धार्थ के कहे पर यक़ीन नहीं हो रहा है. मगर सुशील ने एक बार नहीं दो बार यह बात दोहराई थी. एक समय कथाक्रम सम्मान के लिए बड़ी-बड़ी पैरवियां और जुगत भिड़ाए जाते थे. पहले आठ-दस कथाक्रम सम्मानों और दो दिन तक चलने वाले इस आयोजन की हिंदी जगत में महीनों चर्चा होती थी. आयोजन से अधिक चर्चाएं तो देर रात तक चलनेवाली पार्टियों और उनसे जुड़े किस्सों की होती थीं. राजेन्द्र यादव के जीवित रहने तक इस तरह की दो पार्टियां बड़ी बदनाम थीं. एक खुद राजेन्द्र यादव जी के जन्मदिवस पर आयोजित होने वाली पार्टी और दूसरी ‘कथाक्रम सम्मान’ समारोह वाली रात्रि पार्टी. इसका एक कारण यह था कि इन दोनों पार्टियों के किरदार लगभग एक से थे, बस दिन और जगह बदली हुई होती.

Tags: Books, Hindi Literature, Hindi Writer, Literature



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