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कल्पना कीजिए कि आप एक ऐसे सार्वजनिक शौचालय में जा रहे हों जिसमें हलचल हों, आपके क़दम लोगों की भुनभुनाहट-फुसफुसाहट के कारण सुनाई नहीं देते हैं. छानबीन किये जाने की भावना आपको घेर लेती है और आपको लगता है कि पूरी दुनिया का भार आपके कन्धों को दबा रहा है. ऐसा आपकी वजह से होने वाली किसी अनजान ग़लती के कारण नहीं है, बल्कि आपके प्रमाणित स्व की एक हल्की अभिव्यक्ति है. यह कटु सच्चाई जो किसी मनोरंजक उपन्यास के पैरा की तरह लगती है, LGBTQ+ समुदाय के अनगिनत व्यक्तियों के लिए हर दिन का संघर्ष है, विशेष तौर से उनके लिए जो परलैंगिक (ट्रांसजेंडर) या ग़ैर-बाइनरी हैं.
सार्वजनिक सुविधा का प्रयोग करने का यह साधारण कार्य, जो मानव अस्तित्व की एक ज़रूरत है, एक चिन्ता और घबराहट से भरी हुई कठिन परीक्षा बन जाता है. एक ऐसे समाज में जो 21वीं सदी में छलांग लगा चुका हो, यह पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है कि हम आम धारणाओं से आगे बढ़ें, स्वयं को जानकारी से लैस करें और सार्वजनिक शौचालयों में LGBTQ+ समुदाय के समावेशन के मुद्दे पर फैले धुँधलके को स्पष्ट करें.
मिथकों पर एक क़रीब की नज़र
सिजेंडर व्यक्तियों के सुरक्षा सम्बन्धी चिन्ताएँ
एक मिथक जिसने महत्व पा लिया है वह यह विश्वास है कि अपने लैंगिक पहचान से मेल खाने वाले शौचालयों का इस्तेमाल करने वाले परलैंगिक व्यक्ति सिजेंडर लोगों की सुरक्षि के लिए ख़तरा होते हैं. हालांकि शोध और आँकड़े इस मिथक का भरपूर खंडन करते हैं. वास्तविकता में, परलैंगिक व्यक्तियों के बाथरूम में हिंसा का शिकार होने की सम्भावना अधिक होती है. नेशनल सेंटर फ़ॉर ट्रांसजेंडर इक्वलिटी द्वारा किये गये एक सर्वे में, जिसमें 27,715 लोगों का सर्वे किया गया था, पाया गया कि लगभग 12% परलैंगिक व्यक्तियों का सार्वजनिक सुविधा के स्थानों पर मौखिक शोषण किया गया था, 1% पर शारीरिक हमला किया गया था और 1% पर यौन हमला किया गया था.
परलैंगिक लोगों द्वारा हमले
एक बहुत अधिक नुकसानदेह और आधारहीन मिथक यह है कि परलैंगिक व्यक्ति यौन हमलावर प्रकृति के होते हैं. न केवल यह धारणा निराधार है, बल्कि यह एक ऐसा झूठा आरोप स्थापित कर देती है जिसका परलैंगिक व्यक्तियों के मानसिक स्वास्थ्य पर विनाशकारी प्रभाव हो सकता है.
लैंगिक रूप से उदासीन शौचालय और निजता
इस ग़लत धारणा के विपरीत कि लैंगिक रूप से उदासीन शौचालय का अर्थ निजता रहित खुली जगह होती है, उन्हें वास्तव में अलग-अलग स्टाल का प्रयोग करके बनाया जाता है जो सभी के लिए निजता और सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं. महिलाओं के लिए, इस तरह की जगहों का अर्थ शौचालयों की और अधिक उपलब्धता भी हो सकती है – जैसा कि किसी स्टेडियम बहुत भीड़भाड़ वाले बाथरूम की लाइन में खड़ी कोई भी महिला प्रमाणित कर सकती है, पुरुषों और महिलाओं के शौचालयों के अनुपात में बहुत बड़ा अन्तर है. लैंगिक रूप से उदासीन शौचालयों को अपनाकर, हम सभी को जल्द ही शौचालय प्राप्त हो सकता है.
चुनाव की ग़लत अवधारण
कुछ लोग यह ग़लत विश्वास बनाये रखते हैं कि परलैंगिक या ग़ैर-बाइनरी होना चुनाव का मामला है. सोचिये कि यदि यह चुनाव का मामला होता तो कितना आसान होता – यदि आप पुरुष होते जिन्हें लगता कि वह महिला के शरीर में क़ैद हैं, और आप पुरुष जैसा महसूस करने का ‘चुनाव’ कर सकते, तो क्या इससे दुनिया में आपकी राह बहुत आसान नहीं हो जाती? क्या आप स्वयं को उचित प्रतीत होने पर पुरुष होने का ‘चुनाव’ नहीं करते? विशेष तौर पर तब जब किसी ऐसी बुनियादी चीज़ का चुनाव करना हो कि किस शौचालय में जाना है?
यह सच से बहुत दूर है. लैंगिक पहचान किसी व्यक्ति के स्व की समझ का मूलभूत पहलु है. यह एक वास्तविकता है जिससे हममें से बहुतों की पहचान नहीं होती (या नहीं हो सकती), क्योंकि हमारे पास उस शरीर में जन्म लेने का विशेषाधिकार है जो जैविक रूप से हमारी पहचान की घोषणा करते हैं. हमें कभी ऐसी अपने शारीरिक संरचना से पैदा होने वाली मानसिक परेशानी से नहीं जूझना पड़ता जो आईना में अपना ही प्रतिबिम्ब न देख पाने पर होती है. इसका सम्मान करना और इसे स्वीकार करना मानवीय गरिमा के लिए अनिवार्य है.
परलैंगिक व्यक्ति और दिव्यांग शौचालय
यह सुझाव देना कि परलैंगिक व्यक्तियों को केवल दिव्यांग शौचालयों का प्रयोग करना चाहिए न केवल निन्दनीय है बल्कि उनकी पहचान से जुड़ी सार्वजनिक सुविधाओं का प्रयोग करने के उनके अधिकारों की भी अनदेखी करना है. ट्रांस या ग़ैर-बाइनरी होना दिव्यांगता नहीं है; यह एक पहचान है. हम उन्हें दिव्यांग शौचालय का प्रयोग करने को क्यों कहेंगे?
लागत सम्बन्धी चिन्ताएँ
यह तर्क कि सार्वजनिक शौचालयों में समावेशन करने में अत्यधिक पैसा ख़र्च होता है, अदूरदर्शी है. शौचालय सार्वजनिक वस्तु हैं. भारत जैसे देश में, जहाँ हमने यह सुनिश्चित करना अपना लक्ष्य बना लिया है कि हर एक भारतीय की शौचालय तक पहुँच होनी चाहिए, क़ीमतें सामाजिक अनुप्रयोगों का निर्धारण करती हैं. सुरक्षित शौचालय तक पहुँच होना हम सभी को सुरक्षित रखता है – हमले से, यौनिक आक्रमण से, और बीमारी से.
जब हममें से कोई व्यक्ति खुले में शौच करने जाता है, तो इससे हम सभी को बीमारियाँ हो सकती हैं. जब हममें से किसी एक पर भी यौन हमला होता है, तो यह हममें से सभी के साथ ऐसा ही अपराध होने की सम्भावना पैदा कर देता है. हम इसकी और क्या क़ीमत चुकाना चाहेंगे? शौचालय, या उन परेशानियों का समाधान जो उनके न होने पर होती हैं?
लैंगिक पहचान की प्रमाणिकता
परलैंगिक व्यक्तियों की लैंगिक पहचान पर सवाल उठाना अपमानजनक और नीचा दिखाना है. यह हमें इस ग़लत धारणा तक वापस ले जाता है कि लैंगिक पहचान और जैविकता एक ही होते हैं. यदि आपकी पहचान सिजेंडर की है, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि जन्म से ही आपको बताया गया था कि आप लड़का या लड़की हैं. लड़का या लड़की के रूप में आपकी पहचान इस तरह पहचान किये जाने और पुरजोर तरीके से सत्यापित किये जाने से निर्मित हुई है जो अन्दर से आती है, जिसने आपकी पहचान की पुष्टि की है.
परलैंगिक और ग़ैर-बाइनरी लोगों को एक ही संदेश दिया जाता है, लेकिन आन्तरिक आवाज़ उस पहचान की पुष्टि नहीं करती है. ऐसी दुनिया में खड़े होना आसान नहीं है जो आपकी एकतरफ़ा तरीक़े से पहचान करती है. किसी की पहचान को स्वीकार करने में बहुत साहस लगता है जब आपके सामने ऐसे विरोध हों: सांसारिक, पारिवारिक और सामाजिक. यह ऐसा क़दम नहीं हो जो कोई हल्के में ले सकता है. किसी व्यक्ति को सामने आने और अपने प्रमाणिक स्व को दुनिया के सामने पेश करने में बहुत काम करना पड़ता है. यह एक ऐसा संघर्ष है जिससे हममें से ज़्यादातर नहीं गुज़रे हैं, और इसलिए हमें इसकी झलक नहीं मिलती है.
और फ़िर, हम जानते हैं कि हम कौन हैं. तो यह इतना आश्चर्यजनक क्यों है कि पारलैंगिक और ग़ैर-बाइनरी लोग भी यह जानते हैं कि वे कौन हैं?
शौचालय जो जीवन बदल देता है
भारत पिछले 5-8 वर्षो में स्वच्छता के क्षेत्र में बहुत प्रगति का साक्षी रहा है. स्वच्छ भारत मिशन इस बदलाव का नेतृत्वकर्ता रहा है, जिसनें पूरे देश में लाखों शौचालयों का निर्माण यह सुनिश्चित करने के लिए किया है कि गरिमा और स्वच्छता केवल बातें नहीं हैं बल्कि भारत को अपना घर कहने वाले हर व्यक्ति के लिए एक भौतिक सच्चाई है.
इस बदलाव से शक्ति प्राप्त करने वाली आवाज़ों के समुन्दर में, LGBTQ+ समुदाय की आवाज़ एक अलग स्वर में गूँजती है. उनके लिए, सार्वजनिक शौचालय न केवल सुविधाजनक हैं, बल्कि उनकी सुरक्षा के लिए आरक्षित क्षेत्र और उनके अस्तित्व की स्वीकार्यता भी हैं. हृदय ऐसे समय की प्रतीक्षा करता है जब परलैंगिक और ग़ैर-बाइनरी लोग इस स्थानों पर बिना किसी चिन्ता और मूल्यांकन किये बग़ैर जा सकें. लेकिन बदलाव की हर यात्रा की तरह, इसके अपने उतार चढ़ाव हैं.
सारी तैयारियाँ हो चुकी हैं, लेकिन उन्हें स्वीकार करने के लिए जिन खुले दिलों की ज़रूरत हैं, वे अभी तैयार नहीं हैं.
Harpic, एक ब्रांड जिसने भारतीय परिवारों के दिन में स्वच्छता के पर्यायवाचारी के रूप में घर कर लिया है, ने बदलाव की इस मुहिम का अगुवा बनने का निर्णय कर लिया है. समावेशन और स्वच्छता दोने के महत्व को समझते हुए, Harpic ऐसे उत्पाद बनाता है जो हमारे विविधतापूर्ण और खूबसूरत देश में सभी की सेवा कर सकें, जिसमें LGBTQ+ समुदाय भी शामिल है.
Harpic ने यह भी महसूस किया कि साथ मिलकर काम करने से बदलाव और मजबूत होता है. इसीलिए, तीन साल पहले, Harpic ने News18 से मिशन स्वच्छता और पानी शुरु करने के लिए हाथ मिलाया. यह परियोजना बस शौचालयों को साफ़-सुथरा रखने के लिए नहीं है; यह एक-दूसरे के प्रति प्रेम, स्वीकार्यता और सहयोग दर्शाने के लिए है. परलैंगिक और ग़ैर-बाइनरी समुदाय की वकालत के माध्यम से, मिशन स्वच्छता और पानी समावेशी सार्वजनिक शौचालयों के महत्व को प्रकाश में ला रहा है.
निष्कर्ष
और इस प्रकार, स्वीकार्यता की लहरें पूर्वाग्रह की चट्टानों से पार पा रही हैं, आइये पतवार उठायें और ऐसे तट की ओर चलें जहाँ सम्पूर्ण अर्थों में स्वीकार्यता हो. वार्तालाप और शैक्षणिक अभियानों जैसे मिशन स्वच्छता और पानी के माध्यम से, आइये एक ऐसा समाज बनायें जो ‘अन्य’ नहीं जानता हो, बल्कि सिर्फ़ ‘हम’ जानता हो.
इस बारे में और अधिक जानकारी के लिए आप इस राष्ट्रीय परिचर्चा में कैसे शामिल हो सकते हैं, यहाँ हमसे जुड़ें.
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Tags: Health, Mission Paani, Mission Swachhta Aur Paani, News18 Mission Paani
FIRST PUBLISHED : July 05, 2023, 17:21 IST
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