Home National सावित्रीबाई फुले क्यों पेशवा राज को बताती थीं खराब और शोषक

सावित्रीबाई फुले क्यों पेशवा राज को बताती थीं खराब और शोषक

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सावित्रीबाई फुले क्यों पेशवा राज को बताती थीं खराब और शोषक

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हाइलाइट्स

जब देश के कई हिस्सों में प्लेग फैला हुआ था. सावित्री बाई ने स्कूल छोड़कर बीमारों की मदद शुरू कर दी
वह स्कूल जातीं, तो रास्ते में विरोधी उनपर कीचड़ या गोबर फेंक दिया करते थे ताकि वह स्कूल नहीं पहुंच सकें
पति ज्योतिराव गोविंदराव फुले के साथ मिलकर स्त्री अधिकारों एवं शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम किया

हममें से अधिकतर लोग सावित्रीबाई फुले को आधुनिक भारत की पहली शिक्षिका के रूप में जानते हैं. वह अंग्रेजी शासन और अंग्रेजी शिक्षा की बड़ी हिमायती थीं. हालांकि इसकी वजह भी थी. क्योंकि अंग्रेजों के शासन के बाद ही इस देश में दलितों, पिछड़ों और महिलाओं को शिक्षा का अवसर मिला.

सावित्रीबाई फुले इसी वजह से अंग्रेजी शासन का समर्थन करती थीं और पेशवा राज को खराब बताती थीं, क्योंकि उनके राज में दलितों और स्त्रियों को बुनियादी अधिकार तक प्राप्त नहीं थे.

साल 1831 में महाराष्ट्र के सतारा में जन्मी इस महान महिला ने केवल 17 बरस की उम्र में देश का पहला कन्या विद्यालय खोला था ताकि अभिभावक अपनी बच्चियों को पढ़ाई-लिखाई से न रोकें.

दलित परिवार में जन्मी सावित्री बाई का बहुत कम उम्र में ज्योतिबा फुले से विवाह हो गया था. हालांकि उस समय की रीत से अलग ज्योतिबा ने अपनी पत्नी की रुचि देखकर उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया. बेहद कुशाग्रबुद्धि सावित्री बाई पाश्चात्य शिक्षा की ओर आकर्षित हुईं और जल्द ही सीखने-पढ़ने लगीं.

केवल 17 साल में प्रिंसिपल बन गईं
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुई थी. उनका और ज्योतिबा फुले का बाल विवाह हुआ था. ज्योतिबा के सहयोग से सावित्रीबाई ने पाश्चात्य शिक्षा हासिल की और मात्र 17 साल की उम्र में ही ज्योतिबा द्वारा खोले गए लड़कियों के स्कूल की शिक्षिका और प्रिंसिपल बनीं.

पढ़-लिखकर स्कूल खोलना सुनने में आसान लगता है लेकिन उस दौरान ये आसान नहीं था. दलित लड़कियों को समान स्तर की शिक्षा दिलाने के खिलाफ समाज के लोगों ने सावित्री बाई का काफी अपमान किया. यहां तक कि वे स्कूल जातीं, तो रास्ते में विरोधी उनपर कीचड़ या गोबर फेंक दिया करते थे ताकि कपड़े गंदे होने पर वे स्कूल न पहुंच सकें. एकाध बार ऐसा होने के बाद सावित्री रुकी नहीं, बल्कि इसका इलाज खोज निकाला. वे अपने साथ थैले में अतिरिक्त कपड़े लेकर चलने लगीं.

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वर्ष 1998 में डाक विभाग ने सावित्री बाई फुले पर टिकट जारी किया

सावित्रीबाई के लेखन से साफ है कि वे अंग्रेजी शिक्षा को महिलाओं और शूद्रों की मुक्ति के लिए जरूरी मानती थीं. अपनी कविता ‘अंग्रेजी मैय्या’ में वे लिखती हैं:

अंग्रेजी मैय्या, अंग्रेजी वाणई शूद्रों को उत्कर्ष करने वाली पूरे स्नेह से.
अंग्रेजी मैया, अब नहीं है मुगलाई और नहीं बची है अब पेशवाई, मूर्खशाही.
अंग्रेजी मैया, देती सच्चा ज्ञान शूद्रों को देती है जीवन वह तो प्रेम से.
अंग्रेजी मैया, शूद्रों को पिलाती है दूध पालती पोसती है माँ की ममता से.
अंग्रेजी मैया, तूने तोड़ डाली जंजीर पशुता की और दी है मानवता की भेंट सारे शूद्र लोक को.

छत्रपति शिवाजी की प्रशंसक सावित्रीबाई पेशवाओं के शासन की घोर विरोधी थीं. इसकी मुख्य वजह थी कि पेशवाओं के शासन में शूद्रों और महिलाओं को बुनियादी अधिकार नहीं थे. पेशवाओं के राज में शूद्रों की दयनीय स्थिति का वर्णन अपनी एक कविता में करते हुए लिखती हैं:

पेशवा ने पांव पसारे उन्होंने सत्ता, राजपाट संभाला और अनाचार, शोषण अत्याचार होता देखकर शूद्र हो गए भयभीत थूक करे जमा गले में बँधे मटके में और रास्तों पर चलने की पाबंदी चले धूल भरी पगडंडी पर, कमर पर बंधे झाड़ू से मिटाते पैरों के निशान

असल में सावित्रीबाई ने सदियों से ब्राह्मणवाद और जातिवाद के कारण ‘गुलामगिरी’ में पड़े शूद्रों और महिलाओं की मुक्ति के लिए अंग्रेजी शासन और शिक्षा को एक अवसर के रूप में देखा.

तब उन्होंने महारों की वीरता पर कविताएं लिखीं
आज जिस 1857 के ‘सिपाही विद्रोह’ को खासकर उत्तर भारत में प्रथम स्वाधीनता संग्राम के रूप में देखा जाता हैं. उसी समय सावित्रीबाई फुले ने अंग्रेजों की तरफ से लड़ने वाले महारों की वीरता की तारीफ में कविताएं लिखीं. वे मानती थीं कि अंग्रेजों ने हमें नहीं बल्कि उन ब्राह्मणों को गुलाम बनाया है, जिन्होंने सदियों से शूद्रों को गुलाम बनाया हुआ है.

कोरेगांव में जिस जीत के जश्न को मनाने को लेकर दलितों पर हमले हुए, उस जीत के ऊपर भी सावित्री बाई फुले ने महारों की वीरता को सराहा है. वो एक जनवरी, 1818 को पेशवा की सेना पर जीत को अंग्रेजों से अधिक महारों की जीत के रूप में वे देखती थीं.

‘शिक्षित हो, संगठित हो और संघर्ष करो’ का जो नारा भीमराव अंबेडकर ने दलितों के लिए दिया था, उस नारे की पृष्ठभूमि सावित्रीबाई फुले ने अपनी कविताओं से बहुत पहले तैयार कर दी थी. इसी वजह से अंबेडकर भी फुले दंपत्ति को अपना आदर्श मानते थे.

सावित्रीबाई फुले ने शूद्रों से शिक्षित होने और मेहनत करने का आह्वान करते हुए लिखा:
स्वाबलंबन का हो उद्यम, प्रवृत्ति ज्ञान-धन का संचय करो मेहनत करके
बिना विद्या जीवन व्यर्थ पशु जैसा निठल्ले ना बैठे रहो करो विद्या ग्रहण
शूद्र-अतिशूद्रों के दुख दूर करने के लिए मिला है कीमती अवसर अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने का

जिस अंग्रेजी शासन को अधिकतर जनसमुदाय हिकारत की नजर से देखता है. उसकी तारीफ करने की सावित्रीबाई फुले के पास अपनी जमीनी वजह थी. इस जमीनी हकीकत को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि शूद्रों और महिलाओं के भीतर शिक्षा का जो प्रसार हुआ उसमें ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले का नाम सबसे ऊपर होगा.

Tags: Education, INS Savitri, Maharashtra

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