अधिकांश मामलों में देखा जाये तो अकेला जीवन सुखद नहीं होता, लेकिन किसी के साथ रहते हुए जीवन यदि क़ैद बन जाए, तो उस क़ैद से बाहर निकल जाने में ही समझदारी होती है, ताकि खुद को थोड़े दिन और जीवित रखने का साहस उठाया जा सके और वो किया जा सके जो करने का सपना लेकर एक लड़की बड़ी होती है, लड़की से औरत बनती है और फिर औरत से मां बन जाती है. सपने कभी रिश्तों से बड़े नहीं हो सकते, लेकिन कोई भी रिश्ता यदि घुटन दे, पहरे दे, पाबंदियां दे, तो उनका क्या? आंखों के उन ख़्वाबों का क्या, जिन्हें कभी सच होना था? सारे ख़्वाब कहीं पीछे छूट जाते हैं और अंत में या तो औरत खत्म हो जाती है या फिर खत्म कर दी जाती है, या फिर तीसरा रास्ता चुनती है उस क़ैद से बाहर आने का. ऐसे में अकेला जीवन यदि औरत के हिस्से आता है, तो वो क्या झेलती है, क्या महसूस करती है, खुद को चुनौतियों से लड़ने के काबिल किस तरह बनाती, उससे बाहर निकल पाती है या उसी में उलझ कर रह जाती है, इन्हीं सबका जवाब है लेखिका-पत्रकार गीताश्री का नया उपन्यास ‘क़ैद बाहर’. जिसमें गीताश्री ने अपने हर चरित्र के साथ न्याय करने की कोशिश की है, हालांकि उनके पाठक इस बात को किस तरह लेते हैं वो एक अलग चर्चा का विषय है. लेखक जो लिख रहा है, उससे हर व्यक्ति सहमत हो, ऐसा ज़रूरी नहीं, लेकिन कही जा रही कहानी यदि किसी एक को भी जीने और लड़ने का साहस दे जाये, तो उसकी सार्थकता अपने आप ही सिद्ध हो जाती है.
क़ैद-बंधन-पहरे कभी खूबसूरत नहीं हो सकते. ये औरत के सामने चुनौती की तरह आते हैं. ठीक वैसे ही, जैसे क़ैद-बंधन-पहरों के खत्म होने के बाद पूरी की पूरी दुनिया औरत के सामने एक चुनौती बनकर खड़ी हो जाती है. असल में लड़ाई खत्म तो कभी नहीं होती, किसी भी परिस्थिति में लड़ते रहना ही पड़ता है, लेकिन लड़ाई जब अपने वजूद को बचाने के लिए लड़ी जाती है, तो वो स्वयं को जीवित रखती है, मरने नहीं देती. गीताश्री के लेखन में साहस और साफगोई साफ तौर पर नज़र आता है. जो जैसा है उसे वैसा ही लिख देना, हर किसी के बस की बात नहीं, लेकिन एक साहित्यकार के तौर पर अपनी कहानियों में गीताश्री ने इस बात का खयाल हमेशा रखा है, कि वे अपनी नायिकाओं और उनकी कहानियों के साथ न्याय कर सकें.
‘क़ैद बाहर’ राजकमल पेपरबैक्स से प्रकाशित गीताश्री का नवीनतम उपन्यास है, जो अपनी कथानक की वजह से इन दिनों चर्चा में है. इसका आवरण चित्र अनुप्रिया द्वारा खींचा गया है. उपन्यास का कवर देखकर ही उपन्यास को पढ़ने की जिज्ञासा छटपटा उठती है. उपन्यास में प्रेम और विवाह को लेकर जो द्वंद्व है उसे केंद्र में रखते हुए पांच अलग-अलग वर्ग, अलग-अलग उम्र और अलग दुनिया की स्त्रियों की कथा कही गई है. हर स्त्री की अपनी कहानी है. पांचों किसी न किसी रूप में एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं. प्रेम में हारी हुई स्त्री विवाह के कैदखाने में जाकर खत्म हो जाती है. मध्यवर्गीय अधिकतर स्त्रियों के लिए विवाह एक ऐसा फंदा है जिसमें से रिहाई आसान नहीं होती. कई बार प्रेम भी छलिया साबित होता है. स्त्री की मुक्ति किसी भी हाल में संभव नहीं. दोनों मिल कर उसकी अस्मिता छीनना चाहते हैं.
लेखिका-पत्रकार गीताश्री
कुछ प्रतिभाशाली स्त्रियों के लिए विवाह एक तरह से प्रेम की हत्या है, लेकिन अलग उम्र और अलग समाज की स्त्री पर प्रेम और विवाह का अलग-अलग असर दिखाई देता है. विवाह से प्रताड़ित स्त्रियां विवाह का विकल्प नहीं ढूंढ पाती हैं. वे प्रेम के सामंतवाद से जूझती हैं और अंत में फिर उसी की क़ैद में सहर्ष चली जाती हैं. अपनी स्वतंत्र सत्ता की मांग करती हुई स्त्रियां सुरक्षा का घेरा भी चाहती हैं, जो उन्हें प्रेम और विवाह दोनों से उपलब्ध होता है और इन दोनों का विकल्प नहीं और इन्हीं दोनों में, यानी कि प्रेम और विवाह में वे लंबे समय तक ‘क़ैद बाहर’ होती रहती हैं, और कभी-कभी तो सारी उम्र भी.
गौरतलब है, कि पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक तस्वीर खासा वायरल हुई, जिसमें एक लड़की ने अपने तलाक के बाद जश्न मनाते हुए कुछ तस्वीरें साझा कीं और भारतीय समाज में भूचाल आ गया. लड़की को सोशल मीडिया पर काफी ट्रोल किया गया. एक कुंद दिमाग वर्ग तलाक के बाद स्त्री को जश्न मनाते नहीं, रोते-बिसूरते देखना चाहता है. जबकि आज के समय में तलाक या ब्रेकअप कोई बड़ी बात नहीं. प्रेमी आए दिन ब्रेकअप करते हैं और विवाह टूट रहे हैं. जरा-जरा सी बात पर परिवार बिखर रहे हैं, लेकिन पहले की तरह ये बात मातम मनाने की नहीं, बल्कि नये सिरे से अपनी ज़िंदगी शुरू करने और अपने सपनों को पूरा करने की है. उपन्यास ‘क़ैद बाहर’ में संबंधों की इसी जटिलता को अच्छे से डील किया गया है, जिसे माया के माध्यम से सामने रखने की कोशिश की गई है. माया इस उपन्यास की सूत्रधार है, जो एक चरित्र को दूसरे चरित्र से जोड़ने का काम करती है. उपन्यास के सारे महिला चरित्र अपने आप में हीरो हैं, जो कहीं ना कहीं उम्र के किसी ना किसी मोड़ पर बहादुरी से लड़ रहे हैं और खुद को ज़िंदा रखने के साथ-साथ जीने की कोशिश कर रहे हैं.
क्या विवाह नामक संस्था प्रतिभाशाली स्त्रियों के लिए क़ब्रगाह है? क्या इस संस्था में रहते हुए उनकी अपनी पहचान दम तोड़ देती है? एक तरह से देखा जाये, तो ये दोनों सवाल ही बेहद ज़रूरी हैं, लेकिन इनके जवाब क्या हों? ये तो उपन्यास पढ़ने के बाद ही समझ में आयेगा. इस उपन्यास पर वरिष्ठ लेखकों और पाठकों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएं सोशल मीडिया पर पढ़ने को मिल रही हैं, जिसके कथानक ने एक अलग बहस को हवा दे दी है. हमारे समय के जाने-माने साहित्यकार इस उपन्यास पर क्या कह रहे हैं, आइये उनकी फेसबुक पोस्ट्स से समझने की कोशिश करते हैं;
जानी-मानी लेखिका एवं वरिष्ठ पत्रकार जयंती रंगनाथन लिखती हैं, “गीताश्री एक बार फिर अपने ओरिजनल अवतार में हैं. इस गीताश्री को मैं अच्छी तरह जानती हूं. उनकी इस भाषा और तेवर को भी. गीताश्री का नया उपन्यास ‘कैद बाहर’ स्त्रियों की कैद छूटती ख्वाहिशों का सच, जैसा कि नाम से तय है. उपन्यास ऐसी स्त्रियों के बारे में है, जो बनी-बनाई अवधारणाएं तोड़ रही हैं, अपने लिए अलग परिभाषा गढ़ रही हैं और रास्ते बना रही हैं. उनकी राह आसान नहीं. यह भी सच है कि पुरुष सत्ता के बीच से निकल कर राह बनाना आसान भी नहीं, तब तो और भी नहीं जब आपको परिवार के बने-बनाए ढांचे में आर्थिक, दैहिक सुरक्षा मिलती हो. कौन हैं ये लड़कियां? हममें से एक ही. अगर अपने दम पर जीने के लिए निकली हैं, तो वजह दमदार होगी. कैद बाहर के केंद्र में है एक महिला पत्रिका की संपादक माया, जो गोआ की अपनी एक मित्र के गुज़र जाने से बेहद संतप्त है. फिर उसकी जिंदगी में आती है मुंबई की मालविका. मालविका के जरिए कई आजाद ख्याल और अपनी सोच का दम रखने वाली और भी कई लड़कियां माया की जिंदगी में आती हैं. माया उन सबकी फ्रेंड फिलासफर और गाइड है. उपन्यास में माया के जरिए, पुरुष-स्त्री के बीच के पेचीदे उठापठक वाले संबंध, महत्वाकांक्षा और एकाकीपन के दुख पर भी लंबी बात हुई है. इस उपन्यास में रवानगी है, मनोरंजन है और लगभग सभी किरदार जिंदगी से जुड़े और पहचाने हुए हैं. थोपा हुआ स्त्री विमर्श नहीं है.“
साथ ही वरिष्ठ लेखिका उषाकिरण खान अपनी फेसबुक वॉल पर लिखती हैं, “स्त्रियों की जद्दोजहद कैद से बाहर आने की. यह उपन्यास बहुआयामी औपन्यासिक लेखन की माहिर गीताश्री का संभवतः पांचवां उपन्यास है. नाम बेहद सटीक है- कैद बाहर! स्त्री सबसे पहले अपनी देह में कैद होती है, फिर मन की गिरफ्त में चली जाती है. यह उपन्यास गीताश्री के सभी उपन्यासों से भिन्न है. गीताश्री के बाकी चार उपन्यास भी चार भावभूमि के हैं. यह पांचवां आधुनिक समय का, अभी की समस्या का है, जो स्त्रियों का अस्तित्व तलाश रहा है. जैसा कि मैंने समझा है यह सार्वभौम सर्वकालिक स्त्रियों की कथा है जो सांसारिक भूल भुलैया में रास्ता ढूंढ़ रही हैं. रास्ते मिल नहीं रहे क्योंकि वे पुरुषों के समान निर्मम हो नहीं सकती. छली भी इसी कारण जाती हैं. सतयुग की सुकन्या की व्यथा कथा हो या मालविका की, एक बात कॉमन है कि सभी स्त्रियों की रीढ़ सीधी तनी हुई है. वे हीरो नहीं तलाशती अब; अपनी हीरो वे खुद ही हैं. पूरी कथा में डिलाइला की मौत का अवसाद पसरा है. वह रूई के फाहे सा निरभ्र आकाश में तैरता हुआ दुःख स्त्रियों की जिजीविषा क्षीण होने के बदले सुदृढ़ करता है. यह उपन्यास लगभग घोषणा कर देता है कि अब कोई औरत एक पल भी कैद में गुजारने को अभिशप्त नहीं होगी. मुक्त होकर सांस लेगी। कैद बाहर अत्याधुनिक भाषा शैली भाव में लिखी गई कृति है. यह निहायत विरल है कि इस शाश्वत समस्या की ओर ध्यान जाये किसी का, वह लिख पाये और सफलतापूर्वक प्रकाशित प्रशंसित हो जाये.“
गीताश्री का नवीनतम उपन्यास ‘क़ैद बाहर’
वरिष्ठ लेखक धीरेन्द्र अस्थाना लिखते हैं, “गीताश्री के अंदर एक तूफान है. यह तूफान उनके हाव-भाव, आचरण, बातचीत और लेखन में अपना पता देता रहता है. इस तूफान का एकमात्र कथ्य है स्त्री जीवन और उसकी ख्वाहिशों पर चारों दिशाओं से गिरता बहुकोणीय आपदाओं का निरंतर झरते रहना. यह उपन्यास इस तूफान की रचनात्मक परिणति का अनसुलझा समीकरण है। इस उपन्यास में प्रवेश करने से पहले हम इसकी नायिका माया का मर्म समझते हैं, ‘वह अपने आसपास सिर्फ भुक्तभोगी स्त्रियों से घिर गयी है. एक अलग मुल्क बन रहा है, जहां स्त्रियां ही स्त्रियां विचरण कर रही हैं. क्या उसके आसपास कोई लेडीज़ आईलैंड बन रहा है?‘ माया को आप ऐसा सूर्य समझें जिसके चारों ओर अनेक पृथ्वी चक्कर लगा रही हैं. ये सब पृथ्वियां उन टूटी फूटी स्त्रियों की प्रतीक हैं, जो पुरुषों द्वारा तोड़ दी गई हैं, छोड़ दी गई हैं, रौंद दी गई हैं. एक अकेली माया है जो अपनी टूटन के बावजूद दिल्ली-मुंबई-गोवा की ढेर सारी लड़कियों-औरतों की लड़ाई में खुद को झोंके हुए है. वह स्वीकार करती है, ‘मुझे फिर से प्रेम नहीं हुआ किसी से. रातों रात पुरुष किसी स्त्री के प्रेम से कैसे ऊब जाते हैं, कैसे उसे फंदा समझ कर निकल जाते हैं?’“
धीरेन्द्र आगे लिखते हैं, “मोटे तौर पर लग सकता है कि यह उपन्यास विवाह संस्था को एक दबंग गाली है और पुरुष अहम को लात मारती है, लेकिन दरअसल यह उपन्यास की ऊपरी परत है. भीतरी परतों में एक संयत और विवेकी विमर्श भी मौजूद है, ‘तुम प्रेम से मिलने वाली पीड़ा से डरती हो, छोड़ दिये जाने के अपमान से डरती हो, इसीलिए प्रेम नहीं करती हो. सारे पुरुष एक जैसे नहीं होते मायू, स्त्रियों ने भी छोड़ा है पुरुषों को.‘ जमाने भर के झंझटों को सुलझाती माया के सामने जब अपने आइडियल, अपने सुखी समझदार मां-पिता का त्रास उजागर होता है, तो वह निस्तब्ध रह जाती है. उसे समझ नहीं आता कि वह दोनों में से किसी एक के साथ कैसे खड़ी हो सकती है. और यह लो, यही तो कुंजी है इस उपन्यास के समीकरण को हल करने की. यही है क़ैद बाहर.“
यदि कवि-आलोचक यतीश कुमार की बात की जाये, तो वे लिखते हैं, “स्त्री चेतना का राग है इस किताब में. क़ैद इंसान हो सकते हैं ख्वाहिशें नहीं, ख्वाहिशें सपनों की सहेली हैं और सपने परतंत्र नहीं होते. यह किताब कभी ख़ुद की उन्मुक्ति की लड़ाई है ख़ुद से, तो कभी दुनिया से. यहां स्त्री मन में एक नदी बहती है और भीतर लहरें शिराओं से निकल आसमान छूना चाहती हैं. मुख्य किरदार को देख लगता है, इज़ाडोरा ने पुनर्जन्म लिया और फल्गू नदी बन गई जहां कुरेदते ही पानी छलछलाता है और फिर किसी चुल्लू में नहीं समाता. किरदार दो धाराओं में बहते हैं दोआब के सहारे और एक समय आता है जब स्वचेतना संबल बन जाता है. जब वह रोती तो भीतर के सारे परदे हिलते वह बसंत लिये घूमती सावन में पर फूलों को समझ नहीं आता रोना है या हंसना. सपनों से लैस आंखें वसंत ढूंढती है जबकि उसे नहीं पता उसके भीतर का पतझड़ उसका पीछा कर रहा होता हैं. विडंबना है कि आज प्रेम चूहा है और नज़र जाल बुन रही है जाल प्रेम का हो या धर्म का, छटपटाती स्त्री ही है. यह उपन्यास इसी छटपटाहट से ईजाद की गई कहानी है. एक धारा कितने धाराओं से मिलकर नदी बनती है और सामाजिक ढूहों को कुचलती निकल जाती है. सकारात्मकता इस उपन्यास की जान है जिसे गीताश्री ने बहुत संतुलित रूप में बुना है. स्त्री चेतना का राग सुनने के लिए इसे पढ़ा जाए.“
इन्हीं सबके बीच वरिष्ठ लेखिका पूनम सिंह लिखती हैं, “स्त्रियों के स्वप्न और यथार्थ का घुटती सांसों का हाहाकार है इसमें, जो गर्म भाप की तरह बाहर निकलती है और धुएं में एक लकीर खींचती गुजर जाती है. गीताश्री ने मुक्ति की एक लंबी लड़ाई ठानी है, गढ़ और मठ तोड़ने की जिद्दी जिद के साथ!“
वहीं दूसरी तरफ उपन्यास पर पाठकीय प्रतिक्रियाएं भी आनी शुरू हो गई हैं. मुज़फ़्फ़रपुर से नम्रता शरण लिखती हैं, “गीताश्री के लेखन में उनका बेबाकीपन और सच का सामना करते उनके शब्द पन्नों पर ऐसे बिखरते हैं जैसे हमने ख़ुद को या किसी जानने वाले को आईने में देख लिया हो. इनके इसी अंदाज़ ने हमे हर दफ़ा अपने पास खींचा है. ज़ाहिर सी बात है कि ‘कैद बाहर’ तो नाम ही काफ़ी है अपनी ओर आकर्षित करने के लिये और पढ़ते हुए तो ऐसा लग रहा है जैसे ये सिर्फ नायिका माया की कहानी नहीं है, बल्कि इसके कई टुकड़ों में हम सभी जी रही हैं और माया की तरह ही अपनी हिम्मत बनाये रखी है. जाने कितनी बार वो टूटती और फिर एक नयी सुबह की तरह एक और कोशिश करती है. कोशिश में उसे जो तकलीफ मिलती है या समाज का डर मन में छुपा है, रिश्ते के टूटने का दर्द, इन भावनाओं का चीत्कार सिर्फ मन में ही नहीं उसके आस-पास भी गूंजता है बावजूद इसके एक छटपटाहट है इस कैद से बाहर निकलने की. लेकिन इस कैद से बाहर आने का संघर्ष क्या आसान है, ‘कैद बाहर’ के 142 नंबर के पन्ने को देखें तो इस संघर्ष के सन्दर्भ में ज़िक्र किया गया है- ‘उसी से ही डर, उसी से सहारा, उसी से घृणा, उसी से मोह, उसी से प्रेम, उसी से आज़ादी, उसी से बंधन… और ये फैसला भी अपने साथ जाने कितनी मुश्किलों को लेकर आता है, जहां खुद को अलग करने में न जाने कितने दशक लग जाते हैं. और सच ही तो है कि कई बार पुरुष स्त्रियों को मुक्त कर देते हैं, जब पूरा जी लेते हैं…‘ वाह क्या लिखा है, स्त्री जीवन के कई ऊंचे-नीचे रास्तों से गुज़रती किताब के हर हिस्से में कोई न कोई जी रहा है, पढ़ने के दौरान कई दफ़ा लगा कि ये तो मेरे साथ भी… यकीन न हो तो पढ़ कर देख लीजिये किसी न किसी कैरेक्टर में आपकी मुलाक़ात ख़ुद से हो जायेगी…“
कहानियां कभी दूसरी दुनिया से नहीं आतीं, हमारे आस-पास ही मौजूद होती हैं, लेखक को बस शब्द देने होते हैं और कई चरित्रों को एक साथ मिलाकर एक नया चरित्र गढ़ना होता है. सच को पचा पाना आसान तो नहीं, लेकिन सच का अपना चेहरा होता है जिसे सामने लाना एक लेखक की पहली जिम्मेदारी होती है. गीताश्री कहती हैं, “एक लेखक के तौर पर मेरी हमेशा कोशिश रहती है कि मैं अपनी कहानियों और उनके चरित्रों के साथ न्याय कर पाऊं. समाज को सच दिखा पाऊं. जो जैसा है उसे वैसा ही रहने दूं. मैं अपने भीतर के लेखक के साथ हमेशा संवाद करती हूं, अक्सर मेरा लेखक जीत जाता है और मैं हार जाती हूं, जिसके चलते कहानी जैसी होती है वैसी ही मेरे पाठकों तक पहुंचती है. मैं उसमें बहुत ज्यादा कल्पनाशीलता घोल नहीं पाती और मेरे हिसाब से यही कहानी होती है.“
गीताश्री ने अपने उपन्यास ‘क़ैद बाहर’ के साथ कितना न्याय किया है और उनकी कही बात किस हद तक सार्थक है, ये तो उनके पाठक अपने आप तय करेंगे, लेकिन वो जो लिखती हैं उसे एक बार तो पढ़ना बनता है. क्या पता यहां कुछ ऐसा मिल जाये, जो अंधेरे रास्तों में हल्की रौशनी का काम करे और रौशनी कब मशाल बन जाती है, ये किसने जाना है.
ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें News18 हिंदी| आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट News18 हिंदी|
Tags: Books, Hindi Literature, Hindi Writer, Literature, New books
FIRST PUBLISHED : May 08, 2023, 18:11 IST