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अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे को लेकर 8 दिन लंबी चली बहस गुरुवार को समाप्त हो गई। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। 7 जजों की संवैधानिक बेंच में चल रही बहस गुरुवार को और दिलचस्प मोड़ लेती दिखी। एएमयू की ओर से पेश सीनियर वकील कपिल सिब्बल ने अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे को लेकर चली बहस पर ही सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि यह दुर्भाग्य की बात है कि आज AMU के अल्पसंख्यक संस्थान होने पर ही अदालत में डिबेट करनी पड़ रही हैं।
कपिल सिब्बल ने कहा, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण दिन है मीलॉर्ड। एक सेकुलर देश में जो बहुलतावादी संस्कृति वाला रहा है। वहां हम एक अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे को लेकर बहस कर रहे हैं। यह इतिहास में एक बुरे दिन के तौर पर ही याद किया जाएगा।’ इस दौरान कपिल सिब्बल ने यूनिवर्सिटी की स्थापना के इतिहास और नियमों का भी हवाला दिया। यही नहीं इस दौरान अदालत में एक सवाल यह भी उठा था कि सर सैयद अहमद खां समेत कई लोग ब्रिटिशर्स के वफादार थे, जिन्होंने एएमयू की स्थापना की थी।
इसे लेकर सिब्बल ने कहा, ‘यहां एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि हम अंग्रेजों के वफादार थे क्योंकि हम उनकी सेना में थे, जिसने पहले विश्व युद्ध में हिस्सा लिया था। ऐसा ही है तो फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और आईएएस अधिकारियों के लिए क्या कहा जाएगा। क्या यह कोई तर्क है? यह सांप्रदायिक तर्क है। यहां अहम संवैधानिक सवाल से भटकाने की कोशिश की जा रही है। अंग्रेजों के वफादार होने या फिर स्वंतत्रता आंदोलन में हिस्सा न लेने का यह अर्थ नहीं है कि कोई भारत से भी वफादारी नहीं कर रहा। शायद उन लोगों का विचार कुछ लग रहा होगा। कुछ लोग उस दौरान आजादी के आंदोलन की बजाय सामाजिक बदलाव में लगे हुए थे।’
कपिल सिब्बल ने कहा कि हमेशा से दो विचारधाराएं रही हैं। एक मत उदारवादियों का रहा है, जो मानते थे कि एएमयू में पश्चिमी शिक्षा मिलनी चाहिए। इन लोगों की पहल पर ही एएमयू बना और फिर अंग्रेजों की सरकार ने उसे 30 लाख रुपये की ग्रांट दी थी। गौरतलब है कि इस मामले में लंबी बहस चली है और 8 दिनों की बहस में सर सैयद अहमद खां, यूनिवर्सिटी की स्थापना के कारणों समेत कई मसलों पर बहस हुई है। इसके अलावा आरक्षण का मसला भी इसमें उठा है।