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धमाके से आधा चेहरा उड़ गया। साथ बैठे जवान का पेट फट गया लेकिन हौसला था जो फिर भी नहीं टूटा। देश की पश्चिम सीमा से लेकर पूर्वी पाकिस्तान में कम संसाधनों के बावजूद अपनी हिम्मत और हौसले से जीत हासिल की। उस यादगार 1971 के युद्ध के 51 साल पूरे हो गए हैं। चेहरे की झुर्रियों के बीच से झांकती इन नायकों की आंखों में आज भी युवाओं सा जोश है। ऐसे ही कुछ वीर योद्धाओं से हिन्दुस्तान ने बात की।
पहले सादे कपड़ों में रेकी की फिर टैंक से दुश्मन को कुचला
इन्दिरा नगर में रहने वाले गुलाम मुस्तफा उस वक्त 18 कैवलरी रेजीमेंट में टैंक की कमान संभाले हुए थे। उनकी टुकड़ी को पहले तीन महीनों तक फिरोजपुर श्रीगंगा नगर सीमा के फाजलिका सेक्टर में रेकी करने का जिम्मा दिया गया। सादे कपड़ों में इधर उधर छह किलोमीटर के दायरे में घूमते हुए उन्होंने महत्वपूर्ण सूचनाएं दीं।
इसके बाद तीन दिसम्बर को जंग शुरू हुई। आठ दिसम्बर को टैंक लेकर दुश्मनों को रौंदते हुए आगे बढ़ रहे थे। इस दौरान उनकी टैंक पर एक गोला गिरा। टैंक में बैठे गुलाम मुस्तफा का आधा चहरा इस धमको में उड़ गया।
गुलाम मुस्तफा बताते हैं कि उनके साथ बैठे अबुल हसन का पेट उस हमले में फट गया। आंते बाहर आ गई थीं। खुद टैंक से निकल कर अपने साथियों की मदद करते हुए दूर तक आए। जब एक अपनी सेना की जीप दिखी तो बेहोशी छाने लगी। यहां से उनको पालम हवाई अड्डे दिल्ली फिर पुणे कमांड अस्पताल भेजा गया। वहां प्लास्टिक सर्जरी हुई।
हमारी पल्टन ने बोगरा की लड़ाई को ऐतिहासिक बना दिया
रिटायर्ड कर्नल गोपाल चतुर्वेदी उस वक्त 5/11 जीआर में नए शामिल हुए थे। गोमती नगर में रहने वाले कर्नल गोपाल चतुर्वेदी बताते हैं कि उनकी पलटन को बांगला देश की ओर चल रही लड़ाई में भेजा गया। यह युद्ध बेहद भीषण था।
बोगरा में इतनी भीषण लड़ाई छिड़ी कि उसके लिए 5/11 जीआर को विशेष पुरस्कार दिया गया। इस लड़ाई की विशेषता यह थी कि इसका अधिकांश हिस्सा रिहायशी इलाकों में शामिल था। इसलिए भारतीय सेना को हमला करने और दुश्मन का जवाब देने में काफी संयम बरतना पड़ा। इस क्षेत्र के भीषण युद्ध पर पुस्तकें भी लिखी गईं।
पाकिस्तानी जनरल नियाजी को सरेंडर का हुक्म पहुंचाने गए पैराशूट बटालियन के अफसर
सर्जिकल स्ट्राइक से पहले 1971 में पैराशूट बटालियन ने अपना लोहा मनवाया था। तब 50 इंडेपेंडेंट पैराशूट ब्रिगेड के रिटायर्ड मेजर जनरल शिव जसवाल को थल सेना के साथ आगे बढ़ने का निर्देश मिला। मौजूदा समय गोरखपुर में रहने वाले लेफ्टिनेंट जनरल शिव ने बताया कि हमको बैरकपुर कोलकता की तरफ से छह दिसम्बर को जैसोर पर कब्जा करने का आदेश मिला था। आगे 7 पैराशूट बटालियन चल रही थी। जैसे ही खजूरा गांव पहुंचे दूसरी ओर से गोलाबारी शुरू हो गई।
आगे चल रही बटालियन के कमांडिंग अफसर कर्नल आरपी सिंह ने उन पर धावा बोला। चार पाकिस्तानी अफसरों सैनिकों को मार गिराया लेकिन खुद शहीद हो गए। इसके बाद स्थिति भारतीय सेना के नियंत्रण में थी। 2- पैराशूट पटालियन ग्रुप ने ढाका के उत्तर में पैरा ड्रॉप किया। मे.ज शिव जसवाल की बॉम्बे सैपर्स ने ढाका के तंगेल में जम्प किया। इस टुकड़ी ने ढाका के तंगेल में जम्प कर उत्तर से आ रही पाकिस्तानी सेना को पूंगली ब्रिज पर रोक लिया। इस बीच इसी यूनिट के एक अफसर जनरल नियाजी को सरेंडर का हुक्म तामील करवाने पहुंचे।
तीन साल में युद्ध सम्मान लेने वाली पहली 17 कुमाऊं रेजीमेंट
गोमती नगर में रहने वाले रिटायर्ड कैप्टन आरवाईएस चौहान ने बताया कि उस युद्ध को ‘बैटल ऑफ भदूरिया’ कहा जाता है। अपनी किताब में तब जनरल अरोड़ा ने लिखा था कि यह पूर्वी पाकिस्तान की सबसे खूनी लड़ाई थी।
इसमें हमारी सेना के 55 अधिकारी और जवान शहीद हुए। इसके अलावा 76 जख्मी हुए। बावजूद इसके हमारी सेना ने इस युद्ध में जीत हासिल की। युद्ध स्थाल पर 88 पाकिस्तानी सैनिकों अफसरों के शव मिले थे। हमने एक टैंक भी पकड़ लिया था। इस बीच आगे बढ़ते हुए उनकी यूनिट के कमांडर मेजर जीडी जोशी शहीद हो गए। ऐसे में उस समय कैप्टन चौहान को कंपनी कमांडर की जिम्मेदारी दी गई। सबसे ज्यादा उनकी ही कंपनी के सैनिक शहीद हुए।
इस कंपनी के प्लाटून हवलदार देवेन्द्र सिंह कंधारी को वीर चक्र, जेसीओ शिव सिंह को सेना मैडल, सिपाही लीलाधर और सिपाही दिल बहादुर थापा को सेना मेडल मिला। इस कंपनी ने भारी मात्रा में पाकिस्तानी सेना से गोला बारूद पकड़ा। बोगरा क्षेत्र में युद्ध हुआ था। उनकी कंपनी रंगपुर की ओर आगे बढ़ रही थी। इसके पूर्व एक और खूनी संघर्ष ‘बैटल ऑफ हिली’ भी हुआ। पाकिस्तानी सेना घबरा गई। इकट्ठा होकर वो भदूरिया में मोर्चा तैयार किया।
17 कुमाऊं रेजीमेंट एक स्थान पर कब्जा की हुई थी। पाकिस्तानियों ने कब्जा खाली कराने के लिए कई काउंटर अटैक किए। कैप्टन चौहान ने एसओएस आर्टिलरी के तोपखाने से जवाब में हमला बोला। रात भर गोलाबारी जारी रही। आखिरकार हमारी सेना ने उनको खदेड़ दिया। खास बात यह है कि युद्ध से तीन साल पहले ही 1968 में 17 कुमाऊं रेजीमेंट का गठन हुआ था। तीन साल में युद्ध सम्मान प्राप्त करने वाली यह पहली रेजीमेंट बनी।
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