सोनिया मिश्रा/ चमोली. प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती है यह बात पूरी तरह से पद्म श्री से सम्मानित बसंती बिष्ट पर सटीक बैठती है. जिन्हें 45 साल में पहली बार मंच मिला जिसके बाद से उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली.बसंती बिष्ट सीमांत जनपद चमोली के देवाल ब्लॉक के ल्वाणी गांव की हैं. उनका जन्म 14 जनवरी 1952 को बिरमा देवी के घर हुआ. ग्रामीण परिवेश में पली बढ़ी बसंती 5 वीं तक ही पढ़ाई कर सकी. और 15 बरस की छोटी आयु में इनका विवाह ल्वाणी गांव के ही रंजीत सिंह बिष्ट के साथ हुआ. जो फौज में तैनात थे. तेरह बरस से लेकर बत्तीस बरस तक बसंती ने अपने परिवार को संभाला.
बसंती बिष्ट ने इसी दौरान उन्होंने अपनी मां से लोकसंगीत को करीब से जाना. गांव में लगने वाले नंदा देवी लोकजात से लेकर राजजात सहित अन्य कार्यक्रमों में जाकर उन्होंने जागरों को सीखा. लेकिन उस समय तक महिलाओं की मंचों पर जागर गाने की परंपरा नहीं थी इसलिए बसंती बिष्ट को चाह कर भी उचित मंच नहीं मिल पाया था. 32 साल में वो अपने पति रणजीत सिंह के साथ पंजाब चली गईं. जहां उन्होंने लोक संगीत की बारीकियां सीखी और देहरादून लौटीं.
राज्य आंदोलन को गीतों से दी नई धार
बसंती बिष्ट ने उत्तराखंड के राज्य आंदोलन में हिस्सा लिया. आंदोलन के दौरान उन्होंने गीत गाए, जिससे उन्हें एक नया हौसला मिला. मुजफ्फरनगर, खटीमा, मसूरी गोलीकांड की घटना ने उन्हें बेहद आहत किया. जिसके बाद अपने लिखे गीतों से उन्होंने आंदोलन को एक नई गति प्रदान की. उन्होंने कई मंचों पर आंदोलन के दौरान गीत भी गाए. इन गीतों को लोगों ने खूब सराहा. जिसके बाद बसंती बिष्ट ने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा.
ऐसे मिला बोलांदी नंदा नाम!
विश्व की सबसे बड़ी पैदल धार्मिक यात्रा हिमालयी महाकुंभ ऐतिहासिक नंदा राजजात यात्रा का हमारे पास कोई स्पष्ट लिखित दस्तावेज/इतिहास नहीं है. नंदा राजजात का जो भी इतिहास है उसकी जानकारी हमें यहां के लोक जागरों और गीतों से मिलती है. बसंती की मां को नंदा के प्रति बचपन से ही खूब आस्था रही है. उन्होंने अपनी मां से नंदा के जागरों को सीखकर बचपन में ही इन्हें आत्मसात कर लिया. जो आज भी बसंती को कंठस्थ हैं. हर साल आयोजित होने वाली नंदा देवी की वार्षिक लोकजात से लेकर बारह बरस में आयोजित होने वाली नंदा देवी राजजात यात्रा में नंदा के धाम कुरूड़ से डोली कैलाश के लिए विदा करते समय बसंती के नंदा के जागरों को सुनकर हर किसी की आंखें छलछला उठती है. जिस कारण इन्हें बोलांदी नंदा कहा जाता है.
45 साल की उम्र में पहली बार मिला मंच!
इसके अलावा 45 बरस की उम्र में देहरादून में गढ़वाल सभा द्वारा आयोजित कार्यक्रम में जब उन्होंने पहली बार मंच पर जागरों की एकल प्रस्तुति दी तो ठेठ पहाड़ी शैली की जादुई आवाज ने लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया. पूरे मैदान में तालियों की गड़गड़ाहट ने बसंती के सपनों की उड़ान को वो पंख दिए कि आज वह पद्मश्री सम्मान हासिल कर चुकी हैं.
उत्तराखंडी पोशाक को दिलाई नई पहचान!
उत्तराखंडी जागरों, लोकगीतों और पोशाक को विशिष्ट पहचान दिलाने के लिए बसंती बिष्ट को 26 जनवरी 2017 को भारत सरकार ने पद्म श्री से नवाजा साथ ही मध्य प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय देवी अहिल्या बाई सम्मान 2016- 17 और उत्तराखंड सरकार ने तीलू रौतेली सम्मान से सम्मानित किया.
किताबों और सीडी से समझा जागर
बसंती देवी ने ना सिर्फ जागर उच्चारण की कमियां सुधारा बल्कि इसके साथ साथ ‘मां नंदा देवी’ के जागर को किताब की शक्ल में पिरोया और उसे अपनी आवाज दी. उन्होने इस किताब को नाम दिया ‘नंदा के जागर सुफल हे जाया तुमारी जातरा’. इस किताब के साथ उन्होने नंदा देवी की स्तुति को अपनी आवाज में गाकर एक सीडी भी तैयार की. जो किताब के साथ ही मिलती है. बसंती बिष्ट से पहले उत्तराखंड में जागर को हमेशा पुरुष प्रधान ही समझा जाता था. इसमें मुख्य गायक पुरुष ही होता था लेकिन बिष्ट ने जागर को एक नई पहचान दी और उत्तराखंड की एकमात्र जागर गायिका बनी.
गढ़वाली परिधान में जागर गाती है बसंती
बसंती जागर गायन के साथ साथ मांगल गीत, पांडवानी, अन्योली और दूसरे पारंपरिक गीत भी गाती हैं. पिछले 20 सालों से बसंती बिष्ट ‘मां नंदा देवी’ के जागर को पारम्परिक पोशाक में ही गाती रही हैं. इसके लिए वह स्तुति के समय गाये जाने वाले ‘पाखुला’ को पहनती हैं. ‘पाखुला’ एक काला कंबल होता है जिसे पहनने में लोगों को झिझक महसूस होती थी, लेकिन वो इसे बड़े सम्मान के साथ पहनती हैं.
विरासत में मिला लोक संगीत
बसंती बिष्ट बताती हैं कि मुझे मेरी मां बिरमा देवी से लोक संगीत विरासत में मिला है, बताती हैं कि उन्होंने नंदा के जागरों को मां से सुनकर ही आत्मसात किया और लोगों तक पहुंचाया. साथ ही उन्हें पति और परिवार का भी सहयोग मिला जिस कारण उन्हें एक अच्छा मुकाम मिला. कहती हैं कि युवा पीढ़ी अपनी लोक संस्कृति और मूल्यों से विमुख होती जा रही है. आने वाली पीढ़ी को चाहिए कि वे अपनी लोक संस्कृति को संजोने में अमूल्य योगदान दें.
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FIRST PUBLISHED : November 19, 2023, 14:34 IST