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समकालीन युवा कथाकारों में सिनीवाली शर्मा एक चर्चित नाम हैं. हाल ही में उनका उपन्यास ‘हेति’ चर्चा के केंद्र में बना हुआ है. ‘हेति’ से पहले ‘हंस अकेला रोया’ और ‘गुलाबी नदी की मछलियां’ उनके कहानी संग्रहों ने भी पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है. सिनीवाली शर्मा किस्सागोई का हुनर जाती हैं. अपनी देशज भाषा के माध्यम से पाठक पर प्रभाव छोड़ती हैं.
‘गुलाबी नदी की मछलियां’ भी एक ऐसी कहानी है जो पाठक को बांधकर नहीं बल्कि अपने साथ जकड़कर चलती है. अद्भुत प्रेम कहानी है यह. एक लड़के को पैसों की खातिर अगवा करके लाया जाता है. पिता को अपनी बेटी की शादी के लिए बहुत सारे रुपयों की जरूरत होती है. लेकिन अपहरणकर्ता की बेटी ही अगवा हुए लड़के को दिल दे बैठती है. कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, पाठक अपनी दुनिया में खोने सा लगता है. दिल जोर से धड़कने लगता है, मानो वह भी प्रेम की गुलाबी नदी में गोते लगा रहा हो. तो आप भी आनंद लें इस प्यारी-सी प्रेम कथा का-
बूढ़ी हाथों ने चौबीस घंटे से बंद अनकठ की लकड़ी से बने किवाड़ में लगा ताला खोला. कमरे में घुप्प अंधेरा था. उसने टीन की थाली और लोटा नीचे रखकर आंचल से दियासलाई निकाल कर डिबिया जलायी. थाली में रोटी और चटनी, लोटे में कुएं का पानी था. बूढ़ी औरत ने देखा, सामने एक जवान लड़का पड़ा था. आंखों पर काला कपड़ा बंधा था और उसके हाथ पैर-रस्सी से बंधे थे. बूढ़ी ने पहले आंखों की पट्टी खोली, फिर उसके हाथ-पैर खोले. लड़के की आंखें पहले तो कुछ देर मिचमिचाईं, फिर स्थिर होते ही उनमें डर और बेचैनी उतर आई.
उसने डिबिया की हिलती-डुलती रोशनी में नजर दौड़ाई, देखा- उसके चारों ओर मिट्टी की दीवाल है, एक खिड़की है जो ऊंची है. अंधेरे में उसे छत ठीक से दिखाई नहीं दी. एक ओर अनाज रखने वाली मिट्टी की कोठी और ताड़ की एक पुरानी चटाई रखी थी.
“चुपचाप खा लो… हल्ला नहीं करना!”
बोलकर बूढ़ी औरत ने डिबिया बुझा दी और कोठरी में ताला लगा दिया.
खिड़की के रास्ते अंधेरा उजाले में बदलता गया. दूसरे दिन बूढ़ी औरत रोटपक्का (मिट्टी का तवा) पर रोटी बना रही थी. एक लड़की जिसकी आंखों में अंगड़ाई लेते हुए सपने उतरने लगें, इतनी उमर हो गई थी उसकी, ने आकर बूढ़ी के कान में फुसफुसाते हुए कहा, “दादी वो तुमको जल्दी बुला रहे हैं!”
“हूं”, बूढ़ी यंत्रवत उठती हुई धीरे से बोली, “परोल की चटनी और रोटी उस कोठरी में रख आ… सुन हाली (जल्दी) से आना. ताला याद से लगा देना.”
आकाश में ठहरे हुए बादल के टुकड़े को देखती हुई बोली, “सुन, जरना (जलावन)उठा लेना, हथिया नछतर का कौनो ठिकाना नहीं, कब बड़का बड़का बून पटपटा दे.”
लड़की ने ऊपर देखा बादल का एक भी टुकड़ा बरसने वाला उसे नहीं लगा. वह मन ही मन हँसती हुई बोली- दादी तो ऐसे ही हड़बड़ाती रहती है. बून नहीं पड़ने वाला अभी. उसने सोचा- पहले खाना ही रख आती हूं फिर आकर जरना समेटूंगी.
उसने रोटपक्के से अंतिम रोटी उतार कर कपड़े में लपेट दी. टीन वाली थाली में तीन मोटी-मोटी रोटियां, चोखा और लोटे में पानी लेकर उस कोठरी में गई. ताला खोलकर धीरे से कमरे में घुसी.
सकुचाती हुई थाली और लोटा रखकर मुड़ ही रही थी कि उसे लगा, कोठरी का दूसरा कोना दिपदिप कर रहा हो! झक्क-झक्क गोरा आदमी! जैसे नदी में सूरज उतर आता है और पानी उस सोने से सजकर झिलमिलाने लगता है, वैसे ही इस लड़के के रूप से कोठरी झिलमिला रही है.
कुछ देर के लिए जैसे वो ठिठक-सी गई, करेजे में तार-सा कुछ हिला! हाय, ऐसा रूप तो आजतक नहीं देखा. इतना सुन्नर!
तब तक लड़के ने आंखें खोलीं. दरवाजे से आती हल्की ठंडी हवा और रोशनी ने लड़के को जरा-सा सहलाया. हाथ-पैर बंधे होने के बाद भी वह थोड़ा सीधा होने की कोशिश करते हुए अपनी आंखों को सहज करने लगा. लड़की थाली और पानी उसके आगे रखकर उसके बंधे हाथ खोलने लगी.
रस्सी खोलते हुए उसे बहुत साफ तो नहीं पर इतना दिखाई दे रहा था कि उसके हाथों पर रस्सी के निशान पड़े थे. लड़के ने नफरत और गुस्से से अपना मुंह घुमा लिया. लड़की ने देखा, कल रात वाली थाली ऐसे ही पड़ी है. वह जिस तरह कमरे में गई थी… उस तरह लौट नहीं पाई!
ताला लगाकर ओसारे में खंभे के सहारे बैठ गई. अचंभित होकर सोचने लगी. ऐसा मुखड़ा तो आजतक देखा ही नहीं उसने.
“गे… तुमसे एक्को काम नहीं होता है… देख नहीं रही, मोटका बून पटपटा रहा है. गोइठा, जरना भींझ गया तो फिर सांझ को खाना कैसे बनेगा…”, जलावन उठाती हुई बूढ़ी बोली, “तुमको सांप, बिच्छा तो नहीं काट लिया कि…”
“ना… नहीं तो.”
“तो, सब कुछ भींझ रहा है और तुम टुकुर-टुकुर देख रही हो!”
“नहीं दादी, कुइयां पर कपड़ा फीचते-फीचते थक गई इसलिए…”बोलते हुए लड़की तेजी से जलावन उठाने लगी.
ये सुनकर बूढ़ी की आंखें और बात, दोनों थोड़े नरम पड़ गए.
“थरिया रख आई थी?”
“हूं.”
“रात वाला थरिया लाई कि नहीं?”
“तुम्हीं ने कहा था, थरिया रखकर हाली चली आना… सो चली आई, ला दूं?”
“नहीं, मैं ले आउंगी रात में. उसने खाया था या नहीं?”
“नहीं.”
“तनी-मनी भी नहीं?”
“नहीं.”
“एकाध दिन में अपने अंतड़ी ऐंठेगा तो खाएगा…”
लड़की ने नजर उठाकर दादी को देखा. बोलकर बूढ़ी, मेमना को डलिया से ढक कर आंगन में पसरा सामान समेटने लगी.
अगले दिन दोपहर में लड़के को किवाड़ के नीचे से कुछ घुसता-सा हुआ दिखाई दिया. वह थोड़ा सहम गया. थोड़ी देर तक वह उसे देखता रहा, फिर गौर करने पर लगा कि कागज के टुकड़े में कुछ लपेट कर भीतर सरका दिया गया है. लड़के ने उत्सुक होकर उसे किसी तरह उठाया. देखा, जीरा वाला दो नमकीन बिस्किट हैं. ऐसा बिस्किट तो उसने चाय की दुकान पर बिकते देखा है. एकाएक उसकी आंखें चमक गईं. उसे लगा, जैसे अखबार का कुछ दिन पहले का टुकड़ा नहीं, उसे अपने होने का पता मिल गया हो. यहां से निकलने का कोई रास्ता मिल गया हो! अखबार के ऊपर कोने में लिखा था…बांका संस्करण… मतलब अपने घर से बहुत दूर नहीं है. 100-150 किलोमीटर दूर है.
उत्साह और छटपटाहट का वेग उसके भीतर एकसाथ आया. बार-बार वह बांका शब्द देखता और सोचता जाता. उसके घर वाले भी तो चैन से नहीं होंगे. जल्दी ही पता लगा लेंगे. पिताजी बड़े डाक्टर हैं. उन्हें शहर में कौन नहीं जानता. हो सकता है कि पुलिस कभी भी आ जाए! उस कागज के टुकड़े को चूम कर अपने सीने से लगा लिया फिर कोठी के नीचे छिपा दिया.
फिर सोचने लगा, पता नहीं, ये बिस्किट कैसा है… कहीं कुछ मिला तो नहीं है.. नहीं, वे मुझे इस तरह नहीं मार सकते. रकम वसूलना है तो इस तरह… उसने बिस्किट छिपा कर रख दिया.
रात को लड़की आग में बैंगन पकाती हुई बोली, “कल बरी भात बनाऊं?”
“पहले इ मामला तो सलट जाए, फिर चैन से बनाना. क्या पता कब क्या हो जाए.” रुक कर फुसफुसाते हुए बोली- “भांसो आया था…”
लड़की का हाथ रुक गया.
“कुछ हुआ क्या?”
कोठरी की ओर देखकर बूढ़ी धीरे-धीरे बोली, “बात पुलिस तक चली गई है. बड़का आदमी का बेटा है. उसका फोटू और खबर अखबार में छप गया है. भांसो कह रहा था कि अब और जादे धियान देना होगा. अब दीसा मैदान के लिए तीन बजे भोरे में ही निकालने आएगा वो सब.”
बूढ़ी ने खाना और पानी उस कोठरी में लाकर रख दिया. नजर घुमा कर देखा, रात वाली थाली में रोटी नहीं थी. उसने लड़के का चेहरा गौर से देखा. आज पहली बार लड़के ने उसे नजर भर देखा.
बूढ़ी ने उसकी आंखों में आज अलग-सा भाव पढ़ा. उसे लगा, ये कुछ कुछ वही आंखें हैं जो आज से आठ साल पहले उसे देखा करती थीं. भगवान ने उसी आंख के तारे को उठा लिया. आज वो इस दुनिया में होता तो इतना ही बड़ा होता, उसका पोता. उसके भीतर कुछ उमड़-सा आया, बोलने जा ही रही थी, “खा लेना बेटा…”, लेकिन अपने को समेट कर बाहर चली गई.
उस कोठरी से निकल ओसारे में आकर बैठ गई. बोली, “कल बरी भात बना लेना”
लड़की की समझ में कुछ नहीं आयां.
“आज घास काटने जाऊंगी तो पाव भर पियाज ले आऊंगी.”
लड़की सुबह पिछवाड़े में कुएं के पास खड़े बबूल से दतवन कर रसोई में पहुंच गई. चूल्हा मिट्टी से लीप कर तैयार कर लिया. जलावन पास में रखकर सूप में चावल फटक कर एक किनारे रख दिया. टीन से मटर दाल की बरी निकाल कर अल्युमीनियम वाली कड़ाही में बनाने लगी. बूढ़ी आंगन में चुपचाप बैठी बीड़ी पी रही थी. अपनी पोती को देखती हुई बोली, “तू मन पर रहे तो खाना खूब अच्छा पकाती है. बस अपना धियान तुझे नहीं रहता है. न बाल में तेल, न चोटी बनाना न ठीक से नहाना फीचना… कुइयां पर जाकर एक डोल पानी खींच कर देह पर गिरा लिया… हो गया कौआ अस्नान. अपने घर जाएगी तो वहां लोग क्या कहेंगे!”
“दादी, मेरी छोड़, ये बता तू चुपचाप देहरी पर बैठकर तबसे क्या सोच रही थी?”
बूढ़ी के भीतर जब बहुत कुछ घुमड़ने लगता है तब वो ऐसे ही चुपचाप बैठी रहती है. लड़की बहुत दिनों से, शायद अपने भाई के जाने के बाद से ही ये बात समझने लगी थी. दो उंगलियों से जलती बीड़ी पकड़ कर बाहर जाने वाले रास्ते की ओर देखती हुई बोली, “कुच्छो नाहीं… मन है, कभी-कभी कहीं चला जाता है.” फिर कुछ सोचती हुई बोली, “इतना सुन्नर लड़का तो अपने गांव में क्या हटिया में भी नहीं देखे.”
लड़की के भीतर फिर ‘झन्न’ से कुछ झनझनाया.
“सुन”
“आँ… हां”
“तू जा नहा ले, बाकी काम मैं कर दूंगी.”
तब तक एक औरत घबराती हुई आई. बूढ़ी का हाथ लगभग खींचती हुई बोली, “काकी जल्दी चलो… झूलो को बिच्छा काट लिया है…बिख से छटपटा रहा है. तुम झाड़ दोगी तो मेरा बच्चा बच जाएगा.”
औरत के आंसुओं ने बूढ़ी को बस इतना ही समय दिया कि वो हर्रे और नीम का पत्ता अपने साथ ले जा सके. हड़बड़ी में वह ‘उस कमरे’ की चाभी भी ठीक से नहीं रख पायी.
रसोई का काम निपटाने के बाद लड़की ने देखा कि दादी अभी तक नहीं आई. वो उस कमरे तक दो-तीन बार जाकर लौट चुकी थी. रह-रहकर लड़के का सुंदर रूप और दादी की बात उसके मन को गुदगुदा रही थी. बार-बार चाभी उठाती फिर रख देती. मेमना भी उछल कूद कर, थक कर अपनी मां का दूध पीकर सुस्ता रहा था.
लड़की कुछ सोचकर उठी और खाना परोस कर उस कमरे में गई जहां लड़के को कल रात जगह बदल कर रखा गया था. इस बार सांकल उतारते हुए वो अपने आप में सिकुड़ रही थी. भीतर पैर रखते उसकी आंखों में फिर कुछ जगमगाने लगा.
“खाना.”
लड़के ने आंख उठायी. वो थाली और पानी रखकर संकोच से खड़ी रही. फिर उसके बंधे हाथ खोलने लगी. कोशिश करने के बाद भी रस्सी नहीं खुल रही थी.
लड़का व्यंग्य करता हुआ बोला, “लगता है पुलिस को भनक लग गई है. तभी आज रस्सी…”
लड़की सकपका गई.
“नहीं तो… कभी-कभी रस्सी फंस जाती है.”
वो तेजी से खोलने की कोशिश करने लगी. पर रस्सी नहीं खुली. लड़की बिना कुछ बोले किवाड़ सटाकर बाहर चली गई. कुछ देर बाद आकर देखा, बरी भात सामने रखा है और लड़का खिड़की से टुकड़ा भर आकाश देख रहा है.
“मैं…मैं…खिला दूं?”
लड़का चुप रहा. लड़की कुछ पल खड़ी रही …फिर उसके करीब, अपने आप को समेटती हुई बैठ गई. धीरे से थाली अपनी ओर सरका ली. बरी भात थाली में मिलाते हुए उसकी देह में झुरझुरी होने लगी. बहुत संभाल कर उसने पहला कौर उठाया, लड़के के मुंह के आगे लाते ही उसकी आंखें झुक गई, देह में सिहरन होने लगी और हाथ कांपने लगे.
बाहर पसरे सोने का कुछ टुकड़ा, खिड़की के रास्ते इस कोठरी में भी बिखरा था. उसी सुनहरे रंग में लड़के ने देखा, सांवले रंग के चेहरे पर दो छोटी-छोटी आंखें थरथरा रही हैं. कुछ भी खास नहीं…साधारण सी लड़की!
लड़की ने देखा, सुनहरे तालाब में दो तैरती मछलियां… और उसके नीचे दो पंखुड़ी वाला गुलाबी फूल!
लड़के ने पहला कौर खाया और अनछुई लड़की की उंगली के पोरों को पहला छुअन मिला! ये क्या हुआ! उसकी पूरी देह झनझना गई. उसे लगा, जैसे दो पंखुड़ी वाले फूल से गुलाबी आग निकली हो और… उसका पूरा देह जल उठा हो! जैसे बिच्छू ने डंक मारा और उसी ने हर्रे का लेप लगा दिया. उसके भीतर हिलोर-सी उठने लगी. लड़के के चेहरे पर टिकी दोनों मछलियां न जाने किस रास्ते उसके भीतर उतरती चली जा रही थीं. मछलियों के रंग-बिरंगे पंख उसके भीतर रंग भर रहे थे, वह गुलाबी नदी हुई जा रही थी.
लड़के के भीतर का डर अब नए रूप में उठ बैठा. उसके अंदर अजीब-सी हलचल होने लगी. रुक-रुक कर खाते हुए वह सोच रहा था, लड़की के रूप में न जाने क्या नयी आफत हो या फिर उन लोगों की नयी चाल हो…कुछ भी हो, उसे सतर्क रहना चाहिए.
लड़का अपने आप को परखने नहीं देना चाहता था. उसने पूछा, “तुम्हारा…नाम क्या है?”
लड़की को पहली बार अपने नाम का अहसास हुआ.
“लौंगिया… और तुम्हारा?”
“तिरुपति”
लड़की ने पहली बार यह नाम सुना था. जबतक वह मन ही मन नाम दुहराती, तब तक बाहर से बकरी के मेमियाने की आवाज आई. वह सकपका कर थाली लेकर खड़ी हो गई. उसने देखा, भात बचा हुआ है.
“बस हो गया”, लड़का बोला.
लड़की थाली लेकर बाहर आ गई. जूठे हाथों और कांपते देह से किवाड़ का सांकल चढ़ाकर ताला लगा दिया. थाली लेकर दौड़ती हुई कुएं पर आई. लंबी सांस लेकर थोड़ा संभलते ही उसने सबसे पहले अपनी जूठी उंगलियों को देखा. फिर उसे धीरे-धीरे सहलाने लगी. थाली में बचे जूठे भात को अपने मुंह के सामने लाते ही उसका चेहरा लाज से लाल हो गया. जूठा खाती हुई मन ही मन बोली, “तीरू…पति…!”
अपनी उंगलियों को छूकर महसूस करती रही. कुएं में उसने झुक कर देखा, अपनी ही छाया देख लजाती हुई दौड़कर उस दीवाल के सहारे खड़ी हो गई जिस कोठरी में वो लड़का बंद था. वो दीवाल को सहलाते हुए मन ही मन दुहराने लगी, “तीरू… पति… तीरू… पति…”
ये कैसा नाम है! उसे याद आया, दादी के मुंह से बहुत पहले सुना था. शायद कोई भगवान हैं.
“के देते रामा लाली रंग चुनरी…
लेहौ बाबू अंगुरी लगाय…”
आवाज से उसका ध्यान टूटा. कौन गा रहा है!
उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई, कोई नहीं है. फिर दौड़कर टटिया के पास खड़ी हो गई. उसने देखा, दो-चार खेत हटकर गाय चराने वाला नवतुरिया (कम उम्र का) चरवाहा कंधे पर लाठी रखकर दोनों हाथ उस पर चढ़ाकर जोर-जोर से गा रहा है. पुरवइया हवा में उसकी आवाज सीधे उस तक पहुंच रही है. गाय के गले में बंधी घंटी की धीमी-धीमी आवाज रुक-रुक कर आ रही है. लड़की तो पहले भी न जाने कितनी बार सुन चुकी थी पर लौंगिया ने पहली बार सुना, हां पहली बार!
वह गीत गुनगुनाते हुई ओसारे पर गई. बांस की टंगनी से अपना कपड़ा खींचकर निकाला. रसोई से टीन का कटोरा और लोहे की छोलनी लेकर एक बार फिर कुएं पर गई. कपड़ा रखकर बगल वाले गड्ढे से मिट्टी कोड़कर बाल धोने के लिए निकालाय टीन के कटोरे में मिट्टी में पानी डालकर रख दिया. बैठकर मन ही मन जोड़ने लगी-
“ती… रू… प… ति…लौं…गिया…!” पहली बार किसी नाम के साथ अपना नाम! उसे अपनी सखी के ब्याह में बने कोहबर की याद आ गई. लाल रंग से लिखा दो नाम. उसके भीतर भी दो नाम एक हो रहे थे. घुल रहे थे एक रंग में.
फिर गीत गुनगुनाते हुए पांच-छह बाल्टी पानी से बाल धोकर नहाई. उस बंद कोठरी की दोनों मछलियां उसके भीतर उतर आईं.
उसके भीतर जहां सूखा था, आज गुलाबी नदी बहने लगी थी. बलखाती, मचलती नदी. हर लहर कहती है, ती…रु…पति. उस नदी में दोनों मछलियां इतना हलचल मचा रही हैं कि लड़की का चेहरा कभी लाल होता तो कभी अकेले ही हँस पड़ती. नदी का पानी छलक कर उसकी हँसी से बाहर आ रहा था. कुछ देर में ही इतना कुछ कैसे हो गया…!
“लौंगिया…”
“आं… हां…”
उसे पहली बार अपना नाम इतना मीठा लगा.
“क्या हुआ… अकबका क्यों गई!”
“कुछ… कुछ… नहीं दादी… इतनी देर क्यों हो गई.”
“बिख उतर ही नहीं रहा था… बहुत देर के बाद चैन हुआ तो उसकी माई पकड़ कर बैठ गई …”
अस्फुट स्वर में लड़की बोली, “चढ़ता है तो फिर उतरता कहां है!”
“खाना परोस दे, उसे दे आती हूं.”
लड़की चहकती हुई बोली, “दादी तू नहा ले…बरी बहुत अच्छा बना है.”
“उसे भी तो भूख लगी होगी… पेट तो किसी भी हाल में साथ ही रहता है. आज पांच दिन हो गया… तूने खाया कि नहीं.”
“नहीं.”
“तो…सुआद तो ऐसे बता रही है जैसे भर पेट खाकर बैठी हो.” उसकी उंगली में सिहरन-सी हुई, लड़की का चेहरा फिर लाल हो गया.
लड़की की सांवली सूरत सलोनी हो गई. अब उसके भीतर दो मछलियां मचलती रहतीं जो उसके पैरों को किसी न किसी बहाने उस कोठरी के आसपास खींच ले जाना चाहतीं. हाथ मचलते रहते सांकल खोलने के लिए. आंखें बेचैन रहतीं…
आज हटिया जाती हुई हर चेहरा ध्यान से देखती जाती और सोचती- दादी ठीक ही कहती है, उसके जैसा अपने गांव तो क्या हटिया में भी कोई नहीं दिखाई देता. गोरा रंग… चकचक… उस पर तैरती दो मछरियां! राह, हटिया, गांव, खेत… सब जगह सबको गौर से देखती पर वो मछरी… किसी के पास नहीं! रंग- बिरंगे पंखों वाली, हाथ नहीं आने वाली, चैन नहीं देने वाली. इन दिनों बौराई-सी हो गई थी.
हटिया में कच्चू तौलाते हुए आंखें घुमाकर सबको देखती. चावल खरीदते हुए मन ही मन तौलती- ना! उसके पासंग बराबर भी कोई नहीं. उसका मन पान के हरे पत्ते को देखकर हरा कचोर हो उठा. उसे खाकर होंठ लाल करते हुए उसने सोचा… उसके जैसा गुलाबी फूल भी किसी के पास नहीं है! सोचते हुए उसके लाल होंठों पर हँसी छिटक गई. अपने लिए हटिया से उसने नारियल तेल, हरी चूड़ियां और अलता खरीदी. नारियल तेल और अलता ओढ़नी में लपेट लिया. कलाइयों में हरी चूड़ियां पहन लीं. बाकी सामान कंधे पर लटकाए, लाल होंठ लिए हवाओं संग बहती चली जा रही थी कि आवाज सुनकर रुक गई. देखा पीछे से हीरा तेजी से चली आ रही है. पास आकर बोली, “तू तो हवा बतास हुई जा रही है, तब से गरज रही हूं.”
“क्या बात है?”
“मुझे भी हटिया से सौदा लेना था. चल…”
“लेकिन मैं तो आ गई.”
“तो क्या हुआ… फिर से चल”, हाथ खींचती हुई हीरा बोली.
“नहीं …दादी…”, हाथ छुड़ाते हुए लड़की बोली.
“एक बात सुनती जा.”
“बक हाली से”
उसके लाल लाल होंठों पर नजर गड़ाती हुई और चूड़ी पहने कलाई देखती हुई बोली, “ठोर खूब टुस टुस लाल रंगा है. ऐसा रसीला और रंगीला ठोर जिसका हो वो दुल्हा की दुलारी होती है.”
लड़की लाज से लाल हो गई. होंठ और चमक गए.
“भक!” कहती हुई भाग गई.
रास्ते भर हरी चूड़ियां खनक-खनक कर बोलती रहीं, ती…रू… प…ति…।
देहरी पर पैर रखने से पहले ही उसने चूड़ियां उतार लीं.
अगले दिन वह अपने पैरों में अलता लगा रही थी कि उसके कान खड़े हो गए.
“बोल मोबाइल पर अपने बाप को… जादे होसियारी नहीं दिखाए. इसके पहले जहां बुलाए थे, पुलिस लेकर आ रहा था. हम पूछे तो बोला नहीं अकेले आ रहे हैं. साल्ला, हमसे होसियारी..” आवाज और सख्त हो गयी. “साले को बोल, कल जगह पर रूपैया लेकर पहुंच जाए. गलती से भी पुलिस साथ लाया तो अबकी तुमको कुट्टी-कुट्टी करके तुम्हारे बाप के पास भेजवा देंगे. साला हमसे सातिरपनी करता है, हराम…”
“तुम उनको गाली दोगे, तुम्हारी हिम्मत…”, लड़के की आवाज थी.
“जादे मत फड़फड़ाओ, अभी कतर देंगे…” यह भांसो की आवाज थी.
फिर दो-तीन लोगों के मिलकर मारने और लड़के के कराहने की आवाज आने लगी.
लौंगिया के भीतर की मछली छटपटाने लगी. वह दौड़कर उधर जाना चाह रही थी, लेकिन खंभे को कसकर पकड़े खड़ी रही. उसके पैर से टकरा कर अलते की शीशी गिर गई. एक पैर रंगा और एक सूना ही रह गया.
बूढ़ी तेजी से उस कोठरी में गई.
“हे बेटा, ऐसे मत मारो… कुच्छो हो जाएगा तो एक्को रुपैया नहीं मिलेगा.”
भांसो आंखें तरेरता हुआ बोला, “तू जा यहां से… तेरा काम रोटी-पानी तक ही है. हमें मत सिखाओ क्या करना है.”
भांसो और दो लोग, लड़के को लात-घूसों से मारते रहे. बूढ़ी वहां से चुपचाप बाहर चली आई. लड़की अलते की गिरी शीशी छोड़कर वहां से हट चुकी थी.
उन लोगों के जाने के बाद लड़की ओसारे पर आई. घर में सन्नाटा पसरा था. उसने सब जगह देख लिया. कोई नहीं था. बूढ़ी घास छीलने जा चुकी थी. उसने उस कोठरी की किवाड़ को भरी आंख लिए छुआ. उसके भीतर की छटपटाती मछलियों को बूंद भर पानी मिला. फिर कान लगाकर सुनने लगी. भीतर से कराहने की आवाज आ रही थी. वो तेजी से कमरे की चाभी खोजने लगी.
थोड़ी देर बाद वह एक बरतन में गरम पानी में इमली का पत्ता और नमक डालकर ले आई. किवाड़ को भीतर से बंद करके लड़के के पास बैठ गई. खिड़की से झरती रोशनी में उसने देखा, जगह-जगह पर चोट के निशान थे. अपनी काली ओढ़नी उतार कर गर्म पानी से सेंकने लगी. लड़के के मुंह से आह निकलती. इधर इसकी आंखों से आंसू.
थोड़ी देर के बाद,
“तुम”
“हूं”
“तुम क्यों आई…”
चुप्पी उन दोनों के बीच थी.
“कोई आता होगा…”
“अभी कोई नहीं आएगा. वो लोग नदी किनारे गए हैं. दादी घास काटने गई है.”
लड़का कुछ नहीं बोला. वह उसे सेंकने लगी. लड़का देख रहा था, उसकी साधारण सी आंखें कभी-कभी उसे नजर उठाकर देख लेती हैं.
“लौंगिया…”
जैसे मिश्री घुल गई हो उसके कानों में, आंसुओं की गरम-गरम बूंदें वहीं स्थिर हो गईं.
“हूं.”
उसका जी चाहा, वह बार-बार उसका नाम लेते रहे. उसके भीतर जो लहरें मचल रही थीं, उन पर वे मछलियां नाच रही थीं.
“मेरी इतनी चिंता क्यों करती हो?”
“पता नहीं!”
थोड़ी देर दोनों चुप रहे.
“इस घर में…”
“दादी… मैं…”
“और?”
“भाई कुछ साल पहले मर गया, लेकिन दादी के साथ रहता है अब भी. वह उसे आज तक नहीं भूली. बाबू कभी-कभी घर आते हैं, जब जेल से बाहर होते हैं. दादी सबको कहती है कि वह पंजाब में काम करते हैं. लेकिन सच तो ये है कि…”, बोलते हुए उसके चेहरे का रंग बदल गया.
उसके गले में आवाज अटक गई.
लड़का सीधा होकर बैठ गया और अपनी आंखें उसके चेहरे पर टिका दीं.
“… उन्होंने ही…तुझे उठवाया है.”
“तुम्हारे बाप ने…लेकिन क्यों”, बोलते हुए उसकी आवाज ऊंची हो गई. लड़का उसे आश्चर्य से देख रहा था.
लड़की ने आंख उठाकर उसे देखा. लड़के ने धीरे से कहा, “लेकिन मैंने क्या बिगाड़ा है… मुझसे तो कोई…”
“तुमसे नहीं… तुम्हारे पैसे से है. उनका यही धंधा है. अबकी मेरा ब्याह करने के लिए उन्हें रूपैया चाहिए.”
“ब्याह! तुम्हारे बाप को लड़के की क्या कमी है!” लड़का तिलमिलाता हुआ बोला.
“नहीं, ऐसे घर में ब्याह करना नहीं चाहते जहां रोज जीना-मरना पड़ता हो. वो चाहते हैं रूपैया देकर…”
“तुम्हारे ब्याह के लिए… मुझे… “, लड़का गुस्से से तमतमाकर खड़ा हो गया,” … और तुम… चली जाओ यहां से…फिर मत आना!”
लड़का मुंह फेर कर खड़ा हो गया. लड़की कांप गई.
बहुत दिनों के बाद, आज रात लड़की का बाप तीन आदमियों के साथ घर आया था. वे लोग थोड़ी देर रुके. खाना भी नहीं खाया और चले गए. लेकिन लड़की के कलेजे पर अंगारा रख कर चले गए.
“कल रात उसका काम तमाम कर देंगे, अगर वह बचा रहा तो अब हम सब मारे जाएंगे.” लड़की ने अपने बाप को यह बोलते हुए सुन लिया था. तभी से जैसे उसे किसी साँप ने काट लिया हो! जहर चढ़े देह की तरह छटपटाई बौखने लगी. कभी कुआं पर जा बैठती तो कभी बबूल के पास. उसे लग रहा था, बाबू गुलाबी नदी में आग लगाकर चले गए जिसमें दोनों मछलियां झुलस कर छटपटा रही हैं.
भरी दोपहरी थी. पानी से भरा कुआं उसे सूखा लग रहा था. कभी उस कोठरी के दीवाल से सट कर खड़ी होती तो कभी अधमरी मछलियों को लिए टटिया के पास जा खड़ी होती. बाहर खेतों में काम करने वाले तीन-चार हट्ठे-कट्ठे लोगों को देखती और सोचती- जब से ये लड़का आया है तब से रोज ये लोग खेत में काम करने के बहाने पहरेदारी करते हैं. सब जगह वे लोग हैं. उसे आसपास के पेड़-पौधे, जानवर भी पहरेदार दिखाई देने लगे.
दोपहर में लड़की पानी लेकर कोठरी में आई. लड़का खिड़की की ओर देख रहा था, उसे इस समय देखकर चौंक गया और गुस्साते हुए बोला, “तुम!”
“हूं”
“अभी!”
“हूं”
“क्या है!”
“पानी”
“किसलिए”
“मछरी के लिए”
“मछली!”
“उसके बाहर जाने का रस्ता है.”
“रास्ता!”
“हां, अब मछरी को किसी भी हाल में बाहर जाना ही होगा.”, लड़की अपने-आप को मजबूत करती हुई बोली.
बाहर जाना होगा! सुनकर लड़के को हठात् विश्वास नहीं हुआ. कुछ पल रुककर उसके पास आया और आश्चर्य से उसे देखने लगा.
“ये पानी तुम्हारे बाहर जाने का रस्ता बनाएगा.” लड़की उसकी आंखों को देखते हुए बोली.
लड़के को अब भी पूरी तरह भरोसा नहीं हो पा रहा था.
“मेरा!”
“आज अमस्या की रात है” बोलते हुए लड़की का सांवला रंग और गहरा हो गया. “रात में तुम निकल जाओ… नहीं तो…” उसके चेहरे पर अनहोनी का डर पसर गया और वह बोलते बोलते रुक गई.
“ये न पूछना क्यों..वो बात मैं अपने ठोर पर ला भी नहीं सकती.”
खिड़की से आ रही धूप, लड़की के चेहरे पर पड़ रही थी. उसकी आंखें आंसू की बूंदों को समेटे लड़के को एकटक देख रही थीं.
“बात क्या है… साफ साफ बताओ”, इस बार लड़के की आवाज नरम थी.
“ये न पूछो… बस तुम चले जाओ किसी तरह.”
लड़के के चेहरे की दोनों मछलियां लड़की की आंखों में कुछ देख रही थीं.
“मुझे क्यों बचाना चाहती हो?”
“अपने लिए…” लड़की ने उन मछलियों को देखते हुए कहा.
उसके चेहरे को दोनों हाथों में लेते हुए लड़का बोला, “लौंगिया…”
सुनते ही उसकी देह झनझना गई.
“हूं”
उसके चेहरे को अपने करीब ले आया. लड़की की देह थरथरा रही थी. उसे लग रहा था कि गुलाबी नदी अब अपना किनारा तोड़ कर बहने लगेगी और लड़के के भीतर की नदी से जा मिलेगी.
“तुम्हें क्या मिलेगा…”
वो थिरकते होंठ और भरी आंख लिए उसे देखती रही. बोली “जब अपना सब कुछ हेरा (खो जाना) जाता है, तभी सबकुछ मिलता है.” फिर रेशमी छुअन को झटके से हटाती हुई बाहर चली गई.
जल्दी ही दो बड़ी डलिया, छोलनी, हंसुआ और चप्पल लिए आई. किवाड़ भीतर से लगाकर सामने डलिया रखते हुए एक सांस मे बोलने लगी, “वो लोग आते ही होंगे. मेरी बात सुनो, खिड़की ऊंची है, तुम वहां तक नहीं पहुँच सकते. ये दोनों डलिया गोबर से लीपा हुआ है. सांझ होते ही इस डलिये पर चढ़कर खिड़की पर पानी डाल देना. मिट्टी फूल जाएगी. बांस की करची खिड़की में लगी है. बहुत दिनों से इसे बदला नहीं गया है, दीयां (दीमक) खा लिया होगा. जब दादी तुम्हें खाना देकर चली जाएगी, तब तुम छोलनी और हंसुए से करची निकाल कर देह तिरछा कर बाहर निकल जाना. हां, याद से डलिया और सबकुछ कोठी के पीछे छुपा देना.”
लड़का झिलमिलाती रोशनी में बस उसे देख रहा था. उसे लग रहा था कि लड़की के चेहरे पर भी दो मछलियां हैं.
“लेकिन सुनो”, लड़की उसके चेहरे को अपने हाथों में लेकर उसकी आंखों को देखती रही. फिर संभलते हुए बोली, “पीछे बबूल है. उसमें कांटा बहुत होता है. ये…बाबू का चप्पल है. इसको पहन कर कूदना. नहीं तो…” फिर अपना आंसू पोंछते हुए बोली, “यहां से निकलते ही…चप्पल अलग-अलग फेंक देना. चप्पल पहन कर भागोगे तो आवाज होगी. पछिम की तरफ भागना, बाकी सब जगह रात भर वो लोग रहते हैं. पछिम की तरफ के लोग करीब दस बजे पन्नी पीने चले जाते हैं. तुम उसी समय उधर से निकलना. खेते-खेत जाना. निसान नहीं बनेगा, फिर थोड़ी दूर पर केतारी का खेत आ जाएगा. तुम समझ रहे हो ना… आधा-पौन घंटा भागोगे तो पक्की रस्ता मिल जाएगा… फिर पुलिस चौकी… फिर…” , बोलते-बोलते उसके भीतर का बांध टूट गया.
“लौंगिया ये क्या कर बैठी… कौन-सा नाता जोड़ लिया, भरी आंखों के अलावा मैं तुझे क्या दे पाऊंगा…”
“तुम चले जाओगे तो ये आंखें ही मेरे लिए सब कुछ होंगी.”
लड़के को लगा, भरी आंखों की मछलियां उसके भीतर उतर रहीं हैं.
मृत्यु जब इतने करीब हो तो प्रेम का फूल क्या इस तरह से खिल सकता है?
“कैद से मुझे आजाद कर रही हो…और कभी नहीं खुलने वाले बंधन में बांध रही हो…ये क्या कर रही हो” फिर रुकते हुए, “लौंगिया …मैं तुम्हें लेने आऊंगा!”, उसका हाथ अपने हाथों में लेता हुआ बोला.
“नहीं… कभी मत आना यहां…”
सुनते ही लड़के के चेहरे की मछली छटपटाने लगी.
“लेकिन… सपने में जरूर आना… अपनी दोनों मछरियां मेरे पास छोड़ जाना.”
“मेरी मछली तो तुम्हारी कब से है, ये तो मुझे भी पता नहीं चला…लेकिन तुम्हारी दोनों मछलियां.. क्या मेरी गुलाबी नदी में… ” ये सुनकर लड़की रोते-रोते रुक गई… उसके होंठ पर मुस्कुराहट का बस एक मोती आकर ठहरा ही था कि वह फिर हिचकी लेकर रोने लगी कि तभी कुत्ते के भौंकने की आवाज आई. दोनों का कलेजा ‘धक्क’ से रह गया.
लड़की अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली, “मिलने आना… अपनी लौंगिया से… सपने में.” जाते हुए लड़की ने नजर भर देखा और तेजी से बाहर चली गई. लड़का गुलाबी नदी में दो मछलियां और भरी आंख लिए खड़ा रह गया. लड़की ने कांपते हाथों और खाली देह से सांकल चढ़ा कर ताला लगा दिया. फिर कुएं पर जाकर बैठ गई.
नवतुरिया चरवाहा इसी रास्ते से अपनी गाय लेकर जा रहा था और वही गीत गा रहा था-
“सास देते रामा लाली रंग चुनरी
लेहौ बाबू अंगुरी लगाय … अंगुरी लगाय…”
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Tags: Books, Hindi Literature, Hindi Writer, Literature
FIRST PUBLISHED : June 26, 2023, 19:10 IST
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