Friday, December 20, 2024
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प्रतिष्ठित कवि विजय किशोर मानव की चुनिंदा रचनाएं


“बौने हुए विराट हमारे गांव में
बगुले हैं सम्राट हमारे गांव में
घर-घर लगे धर्मकांटे लेकिन,
नक़ली सारे बांट हमारे गांव में.”

यह पंक्तियां हैं प्रतिष्ठित कवि ‘विजय किशोर मानव’ की. मानव जी का यह गीत सत्तर-अस्सी के दशक में कविसम्मेलन के मंचों पर ख़ासा लोकप्रिय हुआ. ऋतुराज पुरस्कार से सम्मानित विजय किशोर मानव हिंदी गीत के ऐसे हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने गीत के पुरोधाओं की संगत में रचना सीखा है और पिछले कई दशकों की रचना यात्रा के साक्षी रहे हैं. उनकी प्रकाशित कृतियां हैं- ‘गाती आग के साथ’ (नवगीत संग्रह) जो कि साल 1995 में प्रकाशित हुआ, ‘आंखें खोलो’ (ग़ज़ल संग्रह) जो कि साल 2005 में प्रकाशित हुआ और ‘आंधी में यात्रा’ (कविता संग्रह) जो कि साल 2009 में प्रकाशित हुआ.

उमाकांत मालवीय, ओम प्रभाकर और नरेश सक्सेना जैसे गीत लिखने वाले गीतकार कम ही हुए, लेकिन उन नामों के बाद की पीढ़ी में मानव जी ने वह मुकाम हासिल किया कि गीत को फिर से उच्च आसन पर बिठा दिया. ‘ऋतुराज सम्मान’ के अलावा उन्हें ‘कइति सम्मान’ और ‘मैसूर हिन्दी साहित्य सम्मेलन सम्मान’ जैसे अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से विभूषित किया जा चुका है.

विजय किशोर मानव कहते हैं “समय बदल रहा है. प्रेम की किसी एक ऋतु और उससे जुड़े लोकाचार से मुक्त हो रहे हैं लोग. अब तो हर ऋतु प्रेमपगी रहती है. काम, कर्म और मेधा सब एक ही समय में उपस्थित हैं. सृजन में कैसी लीन होती है सृष्टि. हर कोई प्रेम करना चाहता है. रचना चाहता है. पूरी सृष्टि जैसे फिर से स्वयं को जनना चाहती है. प्रेम खत्म नहीं होता क्योंकि सृष्टि के उद्गम में ही प्रेम है. यह वर्जनाएं नहीं मानता, इसे किसी से भय नहीं. प्रेम का हो-हल्ला आज जितना है, उतना प्रेम समाज में दीखता नहीं.”

प्रस्तुत हैं विजय किशोर मानव के काव्य-संग्रह ‘आंखें खोलो’ से चुनिंदा कविताएं-

1)
इतने फंदों में झूलकर भी प्रान हैं बाक़ी
इतने फंदों में झूलकर भी प्रान हैं बाक़ी.
गोया हमारे कई इम्तहान हैं बाक़ी…

आग तो दूर दिया भी नहीं जला घर में
अभी धुएं के कई आसमान हैं बाक़ी.

न गिरने दे न चलें, पांव लड़खड़ाते हैं
घर पहुंचने में चार-छः मकान हैं बा़की.

अभी तो देखा है अश्कों को खौलते तुमने
हमारे ख़ून के सारे उफ़ान हैं बाक़ी.

उठ गए सो के, फिर से चल भी पड़े,
किसे पता है कि कितनी थकान है बाक़ी.

2)
अपनी पहचान हो वो शहर चाहिए
अपनी पहचान हो वो शहर चाहिए.
उसमें बस एक नन्हा-सा घर चाहिए…

बंद पिंजरों में रटते रहे, जो कहा
अब उड़ेंगे, हमें अपने पर चाहिए.

पीछे-पीछे किसी के नहीं जाएंगे
रास्ते अपने, अपना सफ़र चाहिए.

झुक के उठता नहीं, कोई सीधा नहीं
जो तने रह सकें, ऐसे सर चाहिए.

रोशनी के अंधरों से तौबा किया
एक नन्हा दिया हमसफ़र चाहिए.

नींव के पत्थरों, आओ बाहर, कहो
अब बसेरा हमें बुर्ज पर चाहिए.

3)
सारी उम्र नदी के कटते हुए किनारे देखे हैं
सारी उम्र नदी के कटते हुए किनारे देखे हैं
दिए तेज़ आंधी में जलते रामसहारे देखे हैं

मनचाही मुराद की ख़ातिर चाहे जिसकी बलि दे दें
रामनामियां ओढ़े बैठे पालनहारे देखे हैं

परछाईं का सच समझे हैं, धोखों को पहचाना है
चकाचौंध के जाल फेंकते चांद-सितारे देखे हैं

फ्रेमजड़े, बैठक में हंसते ख़ास-ख़ास चेहरे सारे
तहख़ानों में पड़े हुए दर्पण बेचारे देखे हैं

ध्वज पर ईश्वर, दीवारों पर संतों की वाणी लिखकर
भीतर ख़ूनसने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे देखे हैं

ख़तरे के निशान से ऊपर बहती हैं गंगा-जमुना
इनके आंचल में मग पीते आंसू खारे देखे हैं

कौन बोलता? वाल्मीकि के बाद, चुप्पियां छाई हैं
हमने मरते क्रौंच चीख़ते चोंच पसार देखे हैं

4)
लाख बहाने हैं जीने के, लाख बहाने मरने के
लाख बहाने हैं जीने के, लाख बहाने मरने के
तिनका-तिनका जोड़ रहे पर हैं हालात बिखरने के

फूल की चोटें वर्षों दुखतीं, घाव एक-दो दिन रहते,
दोनों साथ रहे हैं लेकिन ख़्वाब रहे कुछ करने के

आंधी तेज़, भंवर में किश्ती, चारों ओर अंधेरा है
फिर भी हैं हौसले हमारे, दरिया पार उतरने के

किस कोटर में दुबके रहते, कहां-कहां भागे फिरते
सीख लिए हमने भी गुर बाज़ों के पंख कतरने के

घुटने छिले रह हरदम, सर टकराया है चौखट से
बड़े हुए अंधियरों में हम, सायों से क्या डरने के

5)
नींद आई तो ख़्वाब देखेंगे
नींद आई तो ख़्वाब देखेंगे
इस दफ़ा बेहिसाब देखेंगे

तमाम आस-पास के चेहरे
उतारकर नक़ाब देखेंगे

जिसको मिलना है धूल में आख़िर
शाख़ पर वो गुलाब देखेंगे

सोई बस्ती में हुक्मरानों की
जागता इंक़लाब देखेंगे

सबके खाते वहां खुले होंगे
क्या है, किसका हिसाब देखेंगे

ताजपोशी फ़क़ीर की होगी
चुप खड़े ये नवाब देखेंगे

घेर लेंगे उन्हें सवालों से
देंगे कैसे जवाब देखेंगे

Tags: Book, Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Poem



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