Gandhi Jayanti Special: देश ही नहीं पूरी दुनिया में हर साल 2 अक्टूबर के दिन पैदा हुए मोहनदास करमचंद गांधी यानी हमारे प्रिय बापू महात्मा गांधी का जन्मदिवस मनाया जाता है. न्यूज 18 हिन्दी के स्पेशल पॉडकास्ट की सीरीज में हम अक्सर कवियों की कविताएं, गजलगो की शायरी, साहित्यकारों की रचनाएं लेते आए हैं, लेकिन आज के दिन हम बात करेंगे महात्मा गांधी के उन प्रयोगों से जुड़ी जो पूरे जहान के लिए एक मिसाल है. आज हम आपके लिए लाए हैं महात्मा गांधी द्वारा लिखी गई उनकी किताब द स्टोरी ऑफ माई एक्सपेरिमंट्स विद ट्रुथ (The Story of My Experiments with Truth) यानी मेरे सत्य के प्रयोग किताब से कुछ अंश. आइए सुनते हैं… (ये भी सुनें- सुप्रसिद्ध कवि वीरेन डंगवाल की चार कविताएं)
मेरे प्रयोगों में तो आध्यात्मिक का मतलब है नैतिक; धर्म का अर्थ है नीति; आत्मा की दृष्टि से पाली गयी नीति धर्म है। इसलिए जिन वस्तुओं का निर्णय बालक, नौजवान और बूढ़े करते हैं और कर सकते हैं, इस कथा में उन्हीं वस्तुओं का समावेश होगा। अगर ऐसी कथा मैं तटस्थ भाव से, निरभिमान रहकर लिख सकूँ, तो उसमें से दूसरे प्रयोग करनेवालों को कुछ सामग्री मिलेगी।
इन प्रयोगों के बारे में मैं किसी भी प्रकार की सम्पूर्णता का दावा नहीं करता। जिस तरह वैज्ञानिक अपने प्रयोग अतिशय नियम-पूर्वक, विचार – पूर्वक और बारीकी से करता है, फिर भी उनसे उत्पन्न परिणामों को वह अन्तिम नहीं कहता, अथवा वे परिणाम सच्चे ही हैं इस बारे में भी वह साशंक नहीं तो तटस्थ अवश्य रहता है, अपने प्रयोगों के विषय में मेरा भी वैसा ही दावा है। मैंने खूब आत्म-निरीक्षण किया है, एक-एक भाव की जाँच की है, उसका पृथक्करण किया है। किन्तु उसमें से निकले हुए परिणाम सबके लिए अन्तिम ही हैं, वे सच हैं अथवा वे ही सच हैं, ऐसा दावा मैं कभी करना नहीं चाहता। हाँ, यह दावा मैं अवश्य करता हूँ कि मेरी दृष्टि से ये सच हैं और इस समय तो अन्तिम जैसे ही मालूम होते हैं। अगर न मालूम हों तो मुझे उनके सहारे कोई भी कार्य खड़ा नहीं करना चाहिए। लेकिन मैं तो पग-पग पर जिन-जिन वस्तुओं को देखता हूँ, उनके त्याज्य और ग्राह्य ऐसे दो भाग कर लेता हूँ, और जिन्हें ग्राह्य समझता हूँ उनके अनुसार अपना आचरण बना लेता हूँ। और जब तक इस तरह बना हुआ आचरण मुझे अर्थात् मेरी बुद्धि को और आत्मा को संतोष देता है, तब तक मुझे उसके शुभ परिणामों के बारे में अविचलित विश्वास रखना ही चाहिए।
यदि मुझे केवल सिद्धान्तों का अर्थात् तत्त्वों का ही वर्णन करना हो, तब तो यह आत्मकथा मुझे लिखनी ही नहीं चाहिए। लेकिन मुझे तो उन पर रचे गये कार्यों का इतिहास देना है, और इसीलिए मैंने इन प्रयत्नों को ‘सत्य के प्रयोग’ जैसा पहला नाम दिया है। इसमें सत्य से भिन्न माने जानेवाले अहिंसा, ब्रह्मचर्य इत्यादि नियमों के प्रयोग भी आ जाएँगे। लेकिन मेरे मन सत्य ही सर्वोपरि है और उसमें अगणित वस्तुओं का समावेश हो जाता है। यह सत्य स्थूल – वाचिक – सत्य नहीं है। यह तो वाणी की तरह विचार का भी है। यह सत्य केवल हमारा कल्पित सत्य ही नहीं है, बल्कि स्वतंत्र चिरस्थायी सत्य है अर्थात् परमेश्वर ही है।
परमेश्वर की व्याख्याएँ अनगिनत हैं, क्योंकि उसकी विभूतियाँ भी अनगिनत हैं। ये विभूतियाँ मुझे आश्चर्यचकित करती हैं। क्षरभर के लिए ये मुझे मुग्ध भी करती हैं। किन्तु मैं पुजारी तो सत्यरूपी परमेश्वर का ही हूँ। वह एक ही सत्य है, और दूसरा सब मिथ्या है। यह सत्य मुझे मिला नहीं है, लेकिन मैं इसका शोधक हूँ। इस शोध के लिए मैं अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु का त्याग करने को तैयार हूँ, और मुझे यह विश्वास है कि इस शोधरूपी यज्ञ में इस शरीर को भी होमने की मेरी तैयारी है और शक्ति है। लेकिन जब तक मैं इस सत्य का साक्षात्कार न कर लूँ, तब तक मेरी अन्तरात्मा जिसे सत्य समझती है उस काल्पनिक सत्य को अपना आधार मानकर अपना दीपस्तम्भ समझकर, उसके सहारे मैं अपना जीवन व्यतीत करता हूँ।
यद्यपि यह मार्ग तलवार की धार पर चलने जैसा है, तो भी मुझे यह सरल से सरल लगा है। इस मार्ग पर चलते हुए अपनी भयंकर भूलें भी मुझे नगण्य- सी लगी हैं, क्योंकि वैसी भूलें करने पर भी मैं बच गया हूँ और अपनी समझ के अनुसार आगे बढ़ा हूँ। दूर-दूर से विशुद्ध सत्य की ईश्वर की झाँकी – – भी मैं कर रहा हूँ। मेरा यह विश्वास दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है कि एक सत्य ही है, उसके अलावा दूसरा कुछ भी इस जगत में नहीं है। यह विश्वास किस प्रकार बढ़ता गया है, इसे मेरा जगत अर्थात् नवजीवन इत्यादि के पाठक जानकर मेरे प्रयोगों के साझेदार बनना चाहें और उस सत्य की झौकी भी मेरे साथ करना चाहें तो भले करें। साथ ही, मैं यह भी अधिकाधिक मानने लगा हूँ कि जितना कुछ मेरे लिए सम्भव है, उतना एक बालक के लिए भी सम्भव है, और इसके लिए मेरे पास सबल कारण हैं। सत्य की शोध के साधन जितने कठिन हैं उतने ही सरल भी हैं। वे अभिमानी को असम्भव मालूम होंगे और एक निर्दोष बालक को बिलकुल सम्भव लगेंगे। सत्य के शोधक को रजकण से भी नीचे रहना पड़ता है सारा संसार रजकणों को कुचलता है, पर सत्य का पुजारी तो जब तक इतना अल्प नहीं बनता कि रजकण भी उसे कुचल सके, तब तक उसके लिए स्वतंत्र सत्य की झाँकी भी दुर्लभ है। यह चीज वशिष्ठ विश्वामित्र के आख्यान में स्वतंत्र रीति से बतायी गयी है। ईसाई धर्म और इस्लाम भी इसी वस्तु को सिद्ध करते हैं।
मैं जो प्रकरण लिखनेवाला हूँ उनमें यदि पाठकों को अभिमान का भास हो, तो उन्हें अवश्य ही समझ लेना चाहिए कि मेरी शोध में खामी है और मेरी झाँकियाँ मृगजल के समान हैं। मेरे समान अनेकों का क्षय चाहे हो, पर सत्य की जय हो अल्पात्मा को मापने के लिए हम सत्य का गज कभी छोटा न करें। (ये भी सुनें- केदारनाथ सिंह की कविताओं का पाठ)
मैं चाहता हूँ कि मेरे लेखों को कोई प्रमाणभूत न समझें। यही मेरी बिनती है। मैं तो सिर्फ यह चाहता है कि उनमें बताये गये प्रयोगों को दृष्टान्तरूप मानकर सब अपने-अपने प्रयोग यथाशक्ति और यथामति करें। मुझे विश्वास है कि इस संकुचित क्षेत्र में आत्मकथा के मेरे लेखों से बहुत कुछ मिल सकेगा, क्योंकि कहने योग्य एक भी बात मैं छिपाऊँगा नहीं। मुझे आशा है कि मैं अपने दोषों का खयाल पाठकों को पूरी तरह दे सकूँगा मुझे सत्य के शास्त्रीय प्रयोगों का वर्णन करना है, मैं कितना भला हूँ इसका वर्णन करने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है। जिस गज से स्वयं मैं अपने को मापना चाहता हूँ और जिसका उपयोग हम सबको अपने-अपने विषय में करना चाहिए, उसके अनुसार तो मैं अवश्य कहूँगा कि : मोसम कौन कुटिल खल कामी?
जिन तनु दियो ताहि बिसरायो
ऐसो निमकहरामी
क्योंकि जिसे मैं सम्पूर्ण विश्वास के साथ अपने श्वासोच्छ्वास का स्वामी समझता हूँ, जिसे मैं अपने नमक का देनेवाला मानता हूँ, उससे मैं अभी तक दूर हूँ, यह चीज मुझे प्रतिक्षण खटकती है। इसके कारणरूप अपने विकारों को मैं देख सकता हूँ, पर उन्हें अभी तक निकाल नहीं पा रहा है। परन्तु इसे यहीं समाप्त करता हूँ। प्रस्तावना में से मैं प्रयोग की कथा में नहीं उतर सकता। वह तो कथा-प्रकरणों में ही मिलेगी।
गांधी जी की आत्मकथा के ये अंश आपने उनकी किताब में जरूर पढ़ हुए होंगे लेकिन मुझे भरोसा है कि इन्हें सुनकर आपका मन इस पुस्तक को एक बार फिर बांचने का करेगा. आखिर ऐसा हो भी क्यों न… अंधेरे में प्रकाश का सूरज है उनकी आत्मकथा. गांधी जयंती की शुभकामना के साथ ही मैं आपसे विदा लेती हूं, जल्द ही मिलूंगी आपसे, साहित्य संसार में समाए हुए कुछ नग्मों के साथ.. तब तक के लिए पूजा प्रसाद को दें विदा.