नवरात्रि का उल्लास चरम पर है. वादियों में गरबों की गमक है. गली-मोहल्ले के मंडपों से लेकर कारोबारी आयोजकों के विशाल पांडालों में उठती लय-ताल पर लचकती देह गतियों में नृत्य आनंद का उत्सव मना रहा है. परंपरा और आधुनिकता की हमजोली में संस्कृति अपनी नई भंगिमाओं का ज्वार लिए आस्था के नए अर्थ तलाश रही है.
इस कुहासे से गुज़रते हुए यकायक उस परंपरा की ओर ध्यान जाता है जहां नृत्य-संगीत या अन्य कलाएं अनुष्ठान की गरिमा के साथ जीवंत होती हैं. नवरात्रि के निमित्त अगर नृत्य पर ठहर कर सोचें तो मनुष्य के आंतरिक आनंद में प्रकृति और संस्कृति की लय और उसके लालित्य को एक अद्भुत रचना में साकार होता हम पाते हैं. आचार्य रजनीश ओशो के अनुसार, नृत्य की एक ऐसी घड़ी आती है, जब उसके आरोह-अवरोह में शरीर, मन और आत्मा एक रेखा में जुड़ जाते हैं. उस एक क्षण की घटना में अद्भुत चमत्कार होता है. वह पल अनंत है. वही मोक्ष है. इस अवस्था से बड़ा कोई दूसरा आनंद नहीं. ओशो के इस अनुभवजन्य सत्य पर एकाग्र होकर जब हम नवरात्रि के आधुनिक गुबार में थिरकती नौजवान पीढ़ी के विशाल समूह को देखते हैं तो वहां उस नृत्य की खोज अधूरी है जिसे अनुष्ठान की तरह, सच्ची भक्ति की तरह या अंतर्लय के जागरण की कामना की तरह पूर्वजों ने जिया या स्वीकार किया.
दिलचस्प यह कि भारत की रंगारंग संस्कृति को जिन साक्ष्यों के आधार पर पहचाना जा सकता है उनमें नृत्य सबसे प्रमुख विधा मानी जाती है. इसे लोक और शास्त्र ने समान भाव से स्वीकार किया. सरहदों तक फैले प्रदेशों के विस्तार में नृत्य अपनी मनोहारी बनक लिए विविधा का संसार बसाए है. उसका ताना-बाना अपने अंचल की जलवायु से तैयार हुआ. उसका रूप-रंग अपनी प्रकृति से ही नूर पाता है. हजारों नृत्य अपनी संरचना में इसी मौलिकता का सुन्दर अनुवाद हैं. सतही निगाहों के रोमांच से परे इन नृत्यों के साथ जुड़े संदर्भों की गहराई का अध्ययन करें तो अनेक नृत्यों में अनुष्ठान की पवित्रता का बोध होता हैं लेकिन हर नृत्य के मूल में अंततः आनंद है. मन के रंजन के लिए नृत्य का जो रूपगत ढांचा तैयार किया गया उसमें भी कमोबेश लालित्य की वो परंपरा है जिसे अपने कौशल से लोक ने हासिल किया. इस अनूठी साज-सज्जा के हर प्रतीक या आयाम में आस्था और श्रद्धा है. शुभ और मंगल का भाव है. जीवन के आदर्श मूल्यों की प्रेरणा है. कल्याण की कामना है.
यहां केरल की याद आती है. सदियों की सांस्कृतिक विरासत को इस राज्य का लोक समुदाय आज भी अपने जीवन, कर्म और कलाओं में जीता है. ‘तेय्यम’ एक ऐसा ही पारंपरिक नृत्य है. इस नृत्य पर शोधार्थी ललित सिंह ने कुछ उन तथ्यों को समेटा है जिन्हें जानकर केरल की लोक यात्रा और उसके सांस्कृतिक पड़ावों को जानकर भला लगता है. ‘तेय्यम’ यानी दैवम (देव) अथवा ईश्वर. इस नृत्य में नर्तक देवी-देवताओं के तौर पर अपनी इच्छा और कल्पना के अनुकूल ईश्वरीय वेष-भूषा (तड़क-भड़कयुक्त) पहन कर तथा सिर पर मुकुट धारण करके चपल गति से नर्तन करता है. ‘तेय्यम’ को कालियाट्टम (काली नृत्य) भी कहते हैं. क्योंकि उस काल में काली जैसी उग्रदेवी के तेय्यम प्रमुख हुआ करते थे. अपने जीवन-काल में कमाल की करामाते दिखाकर ‘वीर’ बने हुए व्यक्तियों के भी तेय्यम बनाने की प्रथा प्रचलित थी. तेय्यम द्रविड़ो का कलारूप है. इसमें मलयर, पाणन, वण्णान, वेलर जैसी जातियों का विशेष योगदान होता है. आस्था का भाव इतना गहरा है यहाँ, कि तेय्यम के कलाकार को भगवान का प्रतिरूप माना जाता है. जिससे लोग उसकी प्रार्थना करते हैं तथा वह सभी को सुख और समृद्धि का आशीर्वाद देता है. तेय्यम देवता की पूजा के लिए मुर्गे की बलि देने का भी रिवाज है. इस कारण ब्राह्मणों को तेय्यम करने की अनुमति नहीं है. आमतौर पर थरवाडु लोग ही तेय्यम करते हैं. कालांतर में ब्राम्हणों ने भी मन्दिरों में तेय्यम देवता की मूर्तियों को स्थापित किया. इन तीर्थस्थलों में चामुण्डी, कुराठी, विष्णुमूर्ति, सोमेश्वरी और राकेश्वरी का आह्वान किया जाता है. इसमें देवी-देवताओं के अलावा आत्मा पूजन, नाग पूजा, कुल पूजा, वृक्ष पूजा, पशु पूजा का भी प्रचलन है.
तेय्यम केरल का लोक नृत्य है जिसमें मुखौटों का प्रयोग अनुष्ठानिक रूप में किया जाता है. विशेष रूप से दिसम्बर से अप्रैल के महीनों में कन्नूर और कासरकोड के अनेक मन्दिरों में प्रदर्शित किया जाता है. करिवेल्लूर, निलेश्वरम, कुरुमात्तूर, चेरुकुन्नू, ऐषोम और कुन्नत्तूरपड़ी उत्तरी मालाबार के ऐसे क्षेत्र हैं जहां तेय्यम का प्रदर्शन देखने के लिए भारी संख्या में जनसमुदाय एकत्रित होता है. कर्नाटक में तुलुनाडु के क्षेत्र में भी इसका रिवाज़ है. तेय्यम का स्वरूप धार्मिक है जिसमें परम्पराओं, पूर्वजों तथा नायकों के जीवनवृत्तों और शक्तियों को अनुष्ठानिक नृत्य के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है.
13वीं शताब्दी में हुसैला राजवंश के विष्णुवर्धन के समय तुलुआ क्षेत्र में तेय्यम लोकप्रिय नृत्य अनुष्ठान था. लोकश्रुति के अनुसार तेय्यम के उद्भावक के रूप में मनक्काडन गुरुक्कल को माना जाता है. गुरुक्कल वन्नान जाति से सम्बन्धित एक उच्च श्रेणी के कलाकार थे. चिरक्कल प्रदेश के राजा ने एक बार उनकी दिव्य शक्तियों की परीक्षा लेने के लिए अपनी राज्य सभा में बुलवाया. राज्य सभा की तरफ़ यात्रा के दौरान राजा ने उनके लिए कई रुकावटें पैदा की, लेकिन गुरुक्कल प्रत्येक रूकावट को दूर कर उनकी सभा में उपस्थित हो गए. उनकी दिव्य शक्तियों से प्रभावित होकर राजा ने उन्हें कुछ देवताओं के परिधान बनाने की जिम्मेदारी सौंप दी, जिसका प्रयोग सुबह नृत्य के अनुष्ठान में किया जाना था. गुरुक्कल ने सूर्योदय से पहले ही 35 अलग-अलग तरह की मनमोहक पोशाकें तैयार कर लीं. उनसे प्रभावित होकर राजा ने उन्हें मनक्काडन की उपाधि से सम्मानित किया. वर्तमान में उनके द्वारा प्रचलित शैली से तैयार की गई पोशाकें ही तेय्यम कलाकारों द्वारा पहनी जाती है.
‘तेय्यम’ प्रदर्शन खुला रंगमंच की तरह मन्दिर के सामने के अहाते में होता है. उस जमीन को ‘काव’ कहते हैं. दर्शक भक्ति भाव से चारों ओर बैठ कर प्रदर्शन देखते हैं. कलाकार अपनी वस्त्र सज्जा तथा रंग सज्जा स्वयं प्राकृतिक रूप से तैयार करते हैं. कुछ सामग्री आयोजक द्वारा प्रदान की जाती है. तेय्यम में मुख्य प्रस्तुति से पहले स्तुतिगान स्वरूप तोट्टम का प्रदर्शन किया जाता है. तोट्टम पात्र तेय्यम की थोड़ी बहुत वस्त्र सज्जा और रंग सज्जा का प्रयोग करके अनुष्ठानिक शुरुआत करता है. वह नृत्य करते हुए मन्दिर की परिक्रमा करता है और देव प्रतिमा में प्रसाद चढ़ाता है. इसके बाद यह मान लिया जाता है कि उसमें देव प्रतिरूप समाहित हो गया है. तेय्यम कलाकार की मुख सज्जा बहुत कलात्मक तरीके की जाती है. वह एक तरह का से लचीला मुखौटा (पेंटेड फेस) होता है जो ऊपर से धारण करने की बजाय मुख पर ही बना दिये जाते हैं. उसमें खींची गई हर एक लकीर का अपना महत्व होता है. वह पात्र के चरित्र और भाव के अनुसार चेहरे पर बनाये जाते हैं. तेय्यम के कुछ पात्र ऐसे भी हैं जो ऊपर से मुखौटे धारण करते हैं. इनमें गुलिकन तेय्यम, पोट्टन तेय्यम, मट्टुल तेय्यम के पात्र बड़े-बड़े आकार के रौद्र मुखौटे धारण करते हैं.
तेय्यम की अनेक किस्में होती है. इनमें प्रमुख रक्ता चामुण्डी, करि चामुण्डी, मुच्चिलोटू, भगवती, वयनाट्टू, कुलावेन, गुलिकन और पोट्टम हैं. पोशाकें लाल रंग की तथा रूप सज्जा के लिए लाल, काले और सफ़ेद रंगों का प्रयोग किया जाता है. इनमें मुकुट का बड़ा महत्व होता है जो देव प्रतिमा के सामने पहने जाते हैं. ये इतने बड़े आकार के होते हैं कि भय और भव्यता प्रदर्शित करते हैं. नृत्य और अनुष्ठान की मिली-जुली क्रियाएं बारह से चौबीस घंटे तक चलती है. तेय्यम नर्तक प्रदर्शन के दौरान दर्शकों पर चावल छिड़कता है जो शुभ माना जाता है. दर्शक मन्नते भी मांगते हैं. तेय्यम मनुष्य, प्रकृति और देवता के बीच एक संवाद का माध्यम बनता है.