Wednesday, December 18, 2024
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मनुस्मृति का विरोध करने वाली पहली ब्रह्मण महिला थीं पंडिता रमाबाई- सुजाता


हाइलाइट्स

पंडिता रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल, 1858 में मैसूर रियासत में हुआ था.
20 वर्ष की उम्र में रमाबाई को संस्कृत के ज्ञान के लिए ‘सरस्वती’ और ‘पंडिता’ की उपाधियां मिलीं.
रमाबाई 7 भाषाएं जानती थीं. धर्मपरिवर्तन कर ईसाई बन गईं और बाइबल का मराठी में अनुवाद किया.

Pandita Ramabai Death Anniversary: आज 5 अप्रैल को पंडिता रमाबाई की पुण्यतिथी है. पंडिता रमाबाई एक कवयित्री, अध्येता और भारतीय महिलाओं के उत्थान की प्रबल समर्थक थीं. ब्रह्मण होकर भी उन्होंने धर्म के नाम पर किए जाने वाले आडम्बरों का विरोध किया. उन्होंने पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती दी और मनुस्मृति का मुखर विरोध किया.

आज के दिन पंडिता रमाबाई को याद करने की एक और वजह है और वह है उनकी जीवनी का प्रकाशन. राजकमल प्रकाशन से उनकी जीवनी प्रकाशित हुई है- ‘विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई’. इस जीवनी को लिखा है प्रसिद्ध लेखिका सुजाता ने. पंडिता रमाबाई की जीवनी को लेकर सुजाता से लंबी चर्चा हुई. इस चर्चा में उन्होंने रमाबाई के जीवन से जुड़ी कई रोचक जानकारियां साझा कीं.

विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई में सुजाता लिखती हैं- 19वीं सदी भारत में पुनर्जागरण की सदी मानी जाती है. विशेषकर महाराष्ट्र और बंगाल में इस दौर में समाज सुधारों के जो आंदोलन चले उन्होंने भारतीय मानस और समाज को गहरे प्रभावित किया. ब्रिटिश उपनिवेश के मजबूत होने के साथ मूलतः यह एक तरह की भारतीय प्रतिक्रिया थी जिसमें अपने अतीत को क्लेम करने तथा सेलिब्रेट करने की आकांक्षा अधिक और अतीत पर पुनर्विचार कर भविष्य की राह तलाशने की कोशिश कम नजर आती है; कई बार तो ये आंदोलन पुनर्जागरण कम और पुनरुत्थान अधिक लगते हैं.

रमाबाई इस दौर में एक असुविधाजनक स्वर के रूप में आती हैं जो महाराष्ट्र के ब्राह्मण और पुरुषकेन्द्रित समाजसुधारों के बीच स्त्री दृष्टि से अतीत की तीखी आलोचना प्रस्तुत करते हुए अपने समय की यथास्थितिवादी सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं से टकराती हैं. इस क्रम में स्वाभाविक था कि पुणे के उस समुदाय से उपेक्षा और अपमान ही हासिल होते जिसका नेतृत्व समाज सुधारों के प्रखर विरोधी तिलक कर रहे थे.

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लेकिन प्राचीन शास्त्रों की अद्वितीय अध्येता पंडिता रमाबाई का महत्व इसी तथ्य में है कि इन उपेक्षाओं और अपमानों से लगभग अप्रभावित रहते हुए उन्होंने औरतों के हक में न केवल बौद्धिक हस्तक्षेप किया अपितु समाज सेवा का वह क्षेत्र चुना जो किसी अकेली स्त्री के लिए उस समय लगभग असंभव माना जाता था. विधवा महिलाओं के आश्रम की स्थापना, उनके पुनर्विवाह तथा स्वावलंबन के लिए नवोन्मेषकारी पहल और यूरोप तथा अमेरिका में जाकर भारतीय महिलाओं के लिये समर्थन जुटाने का उनका भगीरथ प्रयास अक्सर धर्म परिवर्तन के उनके निर्णय की आलोचना की आड़ में छिपा दिया गया.

इस पुस्तक के माध्यम से सुजाता यह संदेश देना चाहती हैं कि हमारे समाज और राजनीति में पितृसत्तात्मक संरचनाओं की जड़ें बहुत गहरी हैं और यहां स्त्रियों को एक मजबूत आवाज बनने के लिए अपने स्त्रित्व पर भरोसा करना होगा, जैसा कि पंडिता रमाबाई ने किया था. सुजाता बताती हैं कि पंडिता रमाबाई सरस्वती एक ऐसी विद्रोही पुरखिन हैं जिनके बारे में देश ही हर महिला को जानना चाहिए. वह कौन थीं, कहां पैदा हुईं और उन्हें ऐसा क्या किया जिनके बारे में जानना आज के समय में इतना जरूरी हो गया है. पंडिता रमाबाई समाज में, राजनीति में व्याप्त पितृसत्तामक संरचनाओं से टकराई बिना डरे. ऐसी वीर महिला के बारे में सभी को जानना चाहिए, यही सोचकर मैंने उनकी जीवनी लिखने का फैसला किया.

पंडिता रमाबाई के बारे में सुजाता कहती हैं कि रमाबाई ने मनु स्मृति की तीखी आलोचना की है. भारतीय इतिहास में ऐसा कोई महिला पात्र दिखाई नहीं देता जिसने पितृसत्तात्मक समाज का पुरजोर विरोध किया हो और वह भी उस समय जब महिलाओं को कुछ समझा ही नहीं जाता था. ऐसे तमाम प्रकरण हुए जिनमें रमाबाई को हार जाना चाहिए था, निराश होकर बैठ जाना चाहिए था, या फिर अपनी जगह बनाने के लिए पितृसत्तात्मक लोगों को खुश करना चाहिए था, लेकिन पंडिता रमाबाई ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. उल्टा संघर्ष किया और उस सत्ता को चुनौती दी.

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‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ जैसी चर्चित पुस्तक की लेखिका सुजाता बताती हैं कि पंडिता रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल, 1858 को संस्कृत विद्वान अनंत शास्त्री डोंगरे के घर हुआ. रमाबाई के जन्म के समय अनंत शास्त्री जंगल में रहते थे. जंगल में रहने का कारण था कि वे समाज से बहिष्कृत थे. उनका अपराध यह था कि उन्होंने अपनी पत्नी को संस्कृत की शिक्षा दी. अनंत शास्त्री डोंगरे अपनी पत्नी को संस्कृत पढ़ा रहे थे. उस समय संस्कृत देवताओं की भाषा मानी जाती थी और किसी भी स्त्री को उस भाषा को पढ़ने या जानने का अधिकार नहीं था. इस अपराध के चलते अनंत शास्त्री को जंगलों में भटकना पड़ा और वहीं जंगल में रमाबाई का जन्म हुआ. इसलिए रमाबाई का पालन-पोषण गैर-परंपरागत तरीके से हुआ. समाज से जो उन्हें मिलना चाहिए था, नहीं मिला. जब वह बड़ी हुईं तो अकाल में भूख-प्यास से उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई. यह घटना 1877 के दौरान की है. रमाबाई ने अपने भाई को लेकर पूरे भारत में यात्रा की. इस यात्रा के दौरान उन्होंने संस्कृत के अध्ययन और अध्यापन का काम जारी रखा. एक प्रकांड विद्वान के रूप में रमाबाई की प्रसिद्धि कलकत्ता पहुंची जहां संस्कृत के विद्वानों ने उन्हें भाषण देने के लिए आमंत्रित किया. पंडिता रमाबाई संस्कृति में अपना भाषण दिया करती थीं. उस समय यह बहुत ही दुर्लभ बात थी. भारतीय समाज के साथ अंग्रेजों के लिए भी वह एक विस्मयकारी महिला थीं जो संस्कृत में भीड़ के समक्ष भाषण देती थीं और लोग भी मंत्रमुग्ध होकर उनका भाषण सुनते थे. 1878 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में उन्होंने संस्कृत के क्षेत्र में इनके ज्ञान और कार्य को देखते हुए सरस्वती की सर्वोच्च उपाधि से सम्मानित किया.

सुजाता विस्तार से रमाबाई के बारे में बताती हैं कि ब्रह्मण स्त्री होने के बाद भी रमाबाई ब्रह्मण समाज और उसकी रिति-नीतियों की आलोचना करती थीं. मनुस्मृति की उन्होंने कड़ी आलोचना की.

आज के परिपेक्ष्य में इस कृति की उपयोगिता के महत्व पर सुजाता कहती हैं- जब मैं पंडिता रमाबाई के बारे में सोचती हूं और वर्तमान समाज के बारे में सोचती हूं तो लगता है कि वह समय आज से कहीं ज्यादा मुश्किल समय था. समाज ज्यादा कट्टर था. ऐसे समय में भी वह महिला आज की महिला से ज्यादा मुखर थी. हम आज के समय में अपने आसपास जो माहौल देख रहे हैं उसमें मनुस्मृति का महिमा मंडन होता देख रहे हैं. मनुस्मृति के सिद्धान्तों को समाज में बार-बार स्थापित करने की कोशिश की जा रही हैं. हाईकोर्ट में एक महिला जज कहती हैं कि मनुस्मृति के हिसाब से स्त्रियों को चलना चाहिए. महिलाओं को घरों में समझौते करने चाहिए. जब समाज में स्थापित महिलाएं ऐसी बात करेंगी तो हमें सोचना पड़ेगा कि हम आगे जा रहे हैं या पीछे.

‘एक बटा दो’ और ‘दुनिया में औरत’ पुस्तक लिखने वाली सुजाता कहती हैं कि हमारे समाज की वर्तमान सत्ताएं पितृसत्तामत्क संरचनाएं हैं, यहां स्त्रियों को एक मजबूत आवाज बनने के लिए अपने स्त्रीत्व की शक्ति पर भरोसा करना होगा, ना कि उन कथा-पुराणों पर जिनमें स्त्रियों के खिलाफ तमाम बातें लिखी गई हैं.

रमाबाई को खोजना और उनके जीवन  को एक पुस्तक के रूप में लाने के दौरान किए अध्ययन के सवाल पर सुजाता बताती हैं कि रमाबाई के बारे में वह पिछले 15-16 वर्षों से जानती हैं, लेकिन किताब के लिए पिछले दो वर्षों से शोध करना शुरू किया और शोध के दौरान ही लेखन चलता रहा.

पंडिता रमाबाई से परिचय के बारे में सुजाता ने बताया कि जब वह पीएच.डी. कर रही थीं और उनके शोध का विषय था- हिंदी कहानियों में सीमांत अस्मिताओं का प्रश्न. इस विषय पर अध्ययन करते-करते वह स्त्रीवाद को पढ़ने लगीं और स्त्रीवाद को पढ़ते-पढ़ते उनका परिचय पंडिता रमाबाई से हुआ.

पंडिता रमाबाई के बारे में अधिक जानकारी सुजाता की पुस्तक – विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई से हासिल की जा सकती है.

पुस्तक- विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई
लेखक- सुजाता
प्रकाशन- राजकमल प्रकाशन

Tags: Books, Hindi Literature, Hindi Writer, Literature



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