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पटना. शनिवार को मौका था पटना मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के 765.03 करोड़ रुपये की लागत से बने 1,117 बेड के अस्पताल का उद्घाटन समारोह का. बिहार के सीएम नीतीश कुमार जिस अंदाज में गाड़ी से उतरकर नेताओं और अधिकारियों से हाथ मिला रहे थे और गुलदस्ता ले रहे थे, उससे लग रहा था कि वह बहुत खुश हैं. नीतीश कुमार के चेहरे पर जब-जब रौनक लौटती है, आरजेडी नेता तेजस्वी यादव उससे बेचैन और बदहवास नजर आने लगते हैं. दरअसल, मोदी सरकार के जाति जनगणना कराने के फैसले ने नीतीश कुमार के चेहरे पर मुस्कुराहट लौटा दी है. वहीं, विपक्षी महागठबंधन के घटक दल आरजेडी और कांग्रेसी नेताओं के चेहरे से मुस्कुराहट गायब कर दी है. ऐसे में जानते हैं कि बिहार में एक बार फिर से नीतीश कुमार क्या बड़ा खेला करने जा रहे हैं.
मोदी सरकार ने 94 साल बाद आजाद भारत में पहली बार जातिगत जनगणना की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम उठाया है. इस फैसले के पीछे की रणनीति और इसके सियासी निहितार्थ और बिहार की जटिल जातिगत राजनीति पर इसके प्रभाव को समझना जरूरी है. जानकारों की मानें बिहार में जाति आधारित राजनीति कोई नई बात नहीं है. यहां की सियासत हमेशा से जातिगत समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमती रही है. साल 2023 में नीतीश कुमार की सरकार द्वारा कराए गए जातिगत सर्वे ने यह स्पष्ट किया था कि राज्य की आबादी में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) मिलकर 63% हैं, जबकि सवर्ण 15.52% और अनुसूचित जाति-जनजाति 21% से अधिक हैं.
क्या इस बार नहीं चलेगा तेजस्वी यादव का जाति कार्ड?
इस सर्वे को आरजेडी और तेजस्वी यादव ने अपने सामाजिक न्याय के एजेंडे के केंद्र में रखा था, जिसका नारा था ‘जितनी आबादी, उतनी भागीदारी’. राहुल गांधी और कांग्रेस ने भी इसे राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा बनाया, जिससे यह बिहार की राजनीति में एक धारदार हथियार बन गया. लेकिन अब, जब केंद्र सरकार ने जाति जनगणना को आगामी जनगणना का हिस्सा बनाने का ऐलान किया तो यह मुद्दा विपक्ष के हाथों से फिसलता नजर आ रहा है. केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इसे सामाजिक ताने-बाने को ध्यान में रखकर लिया गया संवैधानिक फैसला बताया, लेकिन सियासी जानकार इसे बिहार चुनाव के लिए एनडीए का मास्टरस्ट्रोक मान रहे हैं.
आरजेडी क्यों बदहवास और बेचैन?
आरजेडी, जो लंबे समय से जातिगत जनगणना को अपने सामाजिक न्याय के एजेंडे का आधार बनाए हुए थी, इस फैसले से सबसे अधिक बदहवास नजर आ रही है. तेजस्वी यादव ने इसे अपनी और लालू प्रसाद यादव की जीत करार दिया है, लेकिन उनकी बयानबाजी में एक हताशा साफ झलकती है. उन्होंने कहा, ‘बीजेपी अब इसका क्रेडिट लेगी, लेकिन लड़ाई लालू यादव ने लड़ी है.’ यह बयान इस बात का संकेत है कि आरजेडी को डर है कि यह मुद्दा अब उनकी पहचान से हटकर एनडीए, खासकर बीजेपी और जेडीयू के पाले में जा सकता है.
आरजेडी की चिंता बेवजह नहीं है. बिहार में 2023 के जातिगत सर्वे का श्रेय लेने की होड़ में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव दोनों थे, लेकिन अब केंद्र सरकार के इस फैसले ने नीतीश कुमार और एनडीए को एक मजबूत नैरेटिव दे दिया है. नीतीश, जो पहले से ही सर्वे के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखा चुके हैं, अब इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने वाले गठबंधन का हिस्सा बनकर और मजबूत हो सकते हैं. यह आरजेडी के लिए एक बड़ा झटका है, क्योंकि उनका ओबीसी-मुस्लिम वोट बैंक, जो इस मुद्दे पर एकजुट था अब एनडीए की ओर खिसक सकता है.
मोदी सरकार का यह फैसला कोई जल्दबाजी में लिया गया कदम नहीं है. यह एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है, जिसके कई आयाम हैं.
पहला, यह फैसला विपक्ष के सबसे बड़े हथियार को छीनकर उनकी नैरेटिव की धार को कुंद करता है. राहुल गांधी और तेजस्वी यादव, जो हर रैली में जाति जनगणना की बात करते थे, अब यह दावा नहीं कर सकते कि केवल उनकी पार्टियां ही पिछड़ों की हितैषी हैं.
दूसरा, यह फैसला एनडीए के सहयोगी दलों, जैसे जेडीयू और एलजेपी (रामविलास), की मांग को पूरा करता है, जो लंबे समय से इसके पक्ष में थे. इससे गठबंधन की एकजुटता मजबूत होती है.
तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण यह फैसला बिहार के जटिल जातिगत समीकरणों को एनडीए के पक्ष में मोड़ सकता है. बिहार में ओबीसी और ईबीसी वोटरों की भारी तादाद को देखते हुए, बीजेपी को लगता है कि इस फैसले से वह गैर-यादव ओबीसी और ईबीसी वोटरों को अपने पाले में ला सकती है, जो पहले आरजेडी और समाजवादी पार्टी जैसे दलों की ओर झुके थे. हरियाणा विधानसभा चुनाव में ओबीसी वोटरों के समर्थन से मिली जीत ने बीजेपी को इस रणनीति पर और भरोसा दिया है.
हालांकि, यह फैसला बीजेपी के लिए जोखिमों से खाली नहीं है. बीजेपी, जो लंबे समय से हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के आधार पर जाति से ऊपर उठने की बात करती रही है, इस कदम से अपने ही नैरेटिव में विरोधाभास पैदा कर सकती है. कुछ विश्लेषक इसे बीजेपी के ‘कमंडल’ राजनीति से ‘मंडल’ राजनीति की ओर झुकाव के रूप में देख रहे हैं. अगर जातिगत जनगणना के आंकड़े अपेक्षा से अधिक जटिल या विवादास्पद हुए तो यह बीजेपी के लिए उल्टा पड़ सकता है. उदाहरण के लिए, अगर ओबीसी आबादी 52% से अधिक निकली, तो आरक्षण की 50% सीमा को हटाने की मांग तेज हो सकती है, जिसे लागू करना बीजेपी के लिए आसान नहीं होगा.
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