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Book Review: भाषा और संस्कृति के संरक्षण-संवर्धन की आवाज है भाषा की खादी

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Book Review: भाषा और संस्कृति के संरक्षण-संवर्धन की आवाज है भाषा की खादी

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(डॉ. रेखा सिंह/ Dr. Rekha Singh)
भाषा अपने विचारों को व्यक्त करने का प्राणियों को ईश्वर का नायाब उपहार है. यदि भाषा नहीं होती तो निश्चित रूप से जीवन नीरस होता. अपने उत्थान-पतन की तमाम सीढ़ियों को चढ़ते-उतरते वर्तमान समय में 22 भाषाएं हमारे देश के संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित की गई हैं. तथापि हमारे देश में लगभग सहस्राधिक भाषाएं बोली जाती हैं. बोलियां तो असंख्य हैं. इन सब भाषाओं के मध्य हिंदी एक ऐसी लोकप्रिय भाषा है, जिसे बोलने वालों की संख्या हमारे देश में सर्वाधिक है. न केवल बोलने वाले अपितु हिंदी समझने वाले भी पूर्व से लेकर पश्चिम, उत्तर से लेकर दक्षिण तक मिल जाएंगे.

हिंदी भाषा की अनेक विधाओं में खूब लेखनी भी चलाई जा रही है. यदि मैं यह कहूं कि इनमें कविता प्रथम पायदान पर है तो अतिशयोक्ति न होगी, इसके पश्चात ग़ज़ल, उपन्यास, कहानी इत्यादि विधाएं आती हैं. भाषा की दशा और दिशा पर चिंतन-मनन निश्चित रूप से एक दुष्कर कार्य है, जिस ओर लेखनी चलाने का साहस विरले ही कर पाते हैं. हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि, समालोचक, गीतकार और ग़ज़लकार डॉ. ओम निश्चल ने ऐसा ही दुसाध्याय कार्य नई दिल्ली के ज्ञान गंगा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘भाषा की खादी’ नामक अपनी महत्वपूर्ण कृति के माध्यम से किया है.

आकर्षक और मननशील शीर्षक के साथ प्रस्तुत इस पुस्तक में ‘भाषा की खादी’ तथा ‘संस्कृति के धागे’ विषयक 16 निबंध प्रस्तुत किए गए हैं. लेखक ने पुस्तक की भूमिका में इन निबंधों को आपद्धधर्म का परिणाम कहा है. निश्चित रूप से जो भाषा जिस देश में सबसे अधिक बोली और समझी जाए परंतु राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित ना हो पाए, ऐसी भाषा की पैरवी को आपद्धधर्म कहना कहीं से भी अनुचित नहीं है. उस भाषा में लिखा तो खूब जा रहा है पर वह भाषा, राष्ट्रभाषा बने इस विषय पर कम ही स्तरीय लेखनियां चलती हैं.

‘भाषा की खादी ‘नामक प्रथम निबंध में लेखक ने बड़ी बेबाकी से डंके की चोट पर कहा है कि “जो सौंदर्य वस्त्रों में खादी का है, वही सौंदर्य भाषा में हिंदी का है”. जिस तरह हजार लोगों की भीड़ में भी खादीधारी व्यक्ति की गरिमामय छवि अलग दिखती है, उसी तरह हिंदी भाषा में जो स्निग्धता है, वह उसे सभी भाषाओं से अलग बनाती है. लेखक का यह भी मानना है कि सबसे पहले तो हम लोगों को हिंदी के साथ जोड़े, इससे हिंदी के प्रति उनके मन में प्रेम और सम्मान धीरे-धीरे उत्पन्न होता हुआ, अंत में उन्हें वैयाकरणिक समझ की ओर सहज ही अग्रसर कर देगा. परंतु यदि हमने प्रारंभ में ही वैयाकरणिक समझ की ओर जोर दिया तो इससे उनके मन में भय व्याप्त हो जाएगा और व्यक्ति हिंदी से जुड़ने के बजाय कट जाएगा. इस निबंध में इस पहलू को व्यक्त करते हुए इस बात पर भी चिंता प्रकट की गई है कि-

“आज सारे उद्यम अंग्रेजी सीखने के लिए होते हैं, हिंदी सीखने के लिए नहीं.” इसके लिए हमें प्रयास करने की आवश्यकता है. भाषा का मानक रूप कभी भी स्थिर नहीं किया जा सकता. भाषा नदी की तरह प्रवाहमान है. साथ ही भाषा के प्रसार और विकास में उन सबको साथ में लिया जाए, जो इसे व्यवहार में लाते हैं. लेखक का मानना है कि हमारे समाज का संभ्रांत समझा जाने वाला एक बड़ा वर्ग हिंदी को गंवारों की भाषा कहने से भी नहीं चूकता. वास्तव में यह कथित गंवार ही वह लोग हैं जिनकी भाषा में बनावटीपन नहीं, जो उनके हृदय में है, वह वही बाहर निकालते हैं. जरूरत है इस वर्ग की भावनाएं समझने और उनके साथ चलने की. जैसे खादी का खुरदरापन चुभता नहीं, वैसे ही भाषा का खुरदरापन भी स्वीकार्य होना चाहिए.

‘हिंदी: वित्त से चित्त’ तक नामक निबंध के माध्यम से निबन्धकार ने मेरे मन की ही तरह अनेक लोगों के मन में वर्षों से गूंजती अबूझ पहेली कि तमाम बैंक कर्मचारी आखिर इतने अच्छे कवि एवं लेखक क्यों होते हैं? इसका हल सुझा दिया है. आगे इस पर भी प्रकाश डाला है कि सितंबर माह से शुरू होकर सरकारी कार्यालयों व उपक्रमों की भांति बैंकों में भी हिंदी में कामकाज की सक्रियता बढ़ जाती है. सर्जनात्मकता को बढ़ावा देने के लिए कुछ बैंक कवि गोष्ठियों, संगोष्ठियों के आयोजन के साथ श्रुत लेख, टिप्पण, आलेखन, अनुवाद और शब्द ज्ञान से संबंधित प्रतियोगिताएं कराते हैं. इन्हीं छोटे-छोटे आयोजनों से होते-गुजरते कालांतर में बड़े कवि एवं लेखक उभर कर सामने आते हैं.

‘हिंदी और वेब माध्यम’ नामक निबंध में कंप्यूटरीकरण के सुखद पहलुओं को दर्शाते हुए निबंधकार ने इंटरनेट की आभासी दुनिया के गढ़ते नित-नए प्रतिमानों का जिक्र कर बिजनेस, बैंक, मीडिया, शिक्षण आदि के रूप में प्रभावी दिखाया है. नए लेखकों और कवियों के लिए वेब माध्यमों को एक सशक्त मंच उपलब्ध कराने का साधन भी स्वीकार किया है.

‘हिंदीः आंगन के पार द्वार’ नामक निबंध में सूरीनाम का उल्लेख करते हुए डॉ. ओम निश्चल बताते है कि वहां सामान्यजन से लेकर राष्ट्रपति तक हिंदी का प्रयोग दैनन्दिन जीवन में करते हैं. आपने कीनिया, तंजानिया अफगानिस्तान, कुवैत, सऊदीअरब,ओमान, इंडोनेशिया, हांगकांग में निवास करने वाले भारतीयों की संख्या प्रस्तुत की है. उन्होंने यह भी बताया है कि हिंदी विश्व के मॉरीशस जैसे देशों में दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति कर रही है. हमारी मातृभाषा को जो सम्मान भारत में नहीं प्राप्त हो सका, वह सम्मान वहां हमारी हिंदी को प्राप्त है. इसी क्रम में वह तमाम पत्र-पत्रिकाओं के नाम गिनाते हुए विश्व के 32 देशों में हिंदी को संरक्षण एवं संवर्धन देते विश्वविद्यालयों की सूची पेश कर निबंध को प्रभावी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते. साथ ही ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ की भाषाओं में दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की भाषा हिंदी को सम्मिलित किया जाए ऐसी आकांक्षा भी व्यक्त करते हैं.

‘हिंदी ,प्रचार और प्रकाशन’ निबंध में लेखक ने हिंदी के प्रचार और प्रकाशन की परंपरा को ‘लाहौर प्रेस’ से शुरू कर इलाहाबाद (प्रयागराज), वाराणसी, पटना, आगरा, लखनऊ और जयपुर प्रकाशन की बात करते हुए ‘गीता प्रेस गोरखपुर’ पहुंचकर संप्रति प्रकाशन की सत्ता देश की राजधानी दिल्ली में केंद्रित दिखाई है. इसी क्रम में विदेशी प्रकाशनों पर दृष्टि डालते हुए उनके सामने भी वही समस्याएं बताई हैं जो भारतीय प्रकाशनों के सम्मुख हैं. पाठक वर्ग की मानसिकता के दुर्ग का भेदन ही इन समस्याओं के निस्तारण का प्रमुख अस्त्र है. जहां एक ओर आपने पुस्तकों की घटती स्तरीयता पर चिंता जताई है वहीं दूसरी ओर हास्य-व्यंग्य विधा में लेखकों की कमी में भी चिंता व्यक्त की है. निबंध में आपने यह भी बताया है कि उच्च कक्षाओं में हिंदी में पाठ्यसामग्री उपलब्ध कराने वाले पाठ्यक्रम का अभाव है. निबंध की समाप्ति पर सभी हिंदी प्रेमियों एवं चिंतकों की बात को ख्यात कवि ज्ञानेंद्रपति के कथन के बहाने से व्यक्त किया है- “हिंदी की गाय को दुहने वाले तो बहुत ज्यादा हैं, खिलाने वाले कम.”

‘गांधी, हिंदी और हिंदुस्तानी’ निबंध में हिंदी को याद करने के रस्मोरिवाज पर लेखक ने खेद व्यक्त किया है. साथ ही यह भी स्पष्ट किया है कि पहले हिंदी के लिए तकनीकी रूप से पिछड़ेपन का रोना रोया जाता था, परंतु यूनिकोड, स्पीच टू टेक्स्ट, टेक्स्ट टू स्पीच, अनुवाद आदि के सॉफ्टवेयर व एप्लीकेशंस ईजाद होने के बाद भी हिंदी की राह में बाधाएं हैं. सूचना एवं प्रौद्योगिकी के विकास ने हिंदी की राहें आसान की हैं ‘लीला’ और ‘निकष’ जैसे ई- लर्निंग पाठ्यक्रमों का उल्लेख भी आपने किया है.

सामान्य अर्थों में राष्ट्रवाद का अर्थ अपने राष्ट्र के प्रति सोच और लगाव की भावना का विकास करना है. इस भावना के विकास का सशक्त माध्यम यदि राष्ट्रभाषा है तो राष्ट्रगीत इसका सुंदर प्रतीक.’राष्ट्रगीत, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रवाद’ नामक निबंध में इन तीनों के क्षरित होते स्वरूप में चिंता व्यक्त करते हुए लेखक ने लिखा है- “आज ना राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी का सम्मान है और ना राष्ट्रगीत के रूप में वंदे मातरम् का”. उन्होंने आगे लिखा है जब तक स्वेच्छा से गाने की बात थी राष्ट्रगीत के रूप में ‘वंदे मातरम्’ से किसी सांप्रदायिकता या हिंदुत्व की गंध नहीं आती थी. देशभक्ति के बदलते अर्थ को भी यहां रेखांकित किया गया है. राष्ट्रगीत पर समय-समय पर उठने वाले विवादों पर प्रकाश डालते हुए ओम थानवी के कथन का भी जिक्र किया गया है- “धार्मिक प्रतीक हमेशा सांप्रदायिक नहीं होते”. राष्ट्रभाषा के उपेक्षित स्वरूप पर चिंता व्यक्त करते हुए प्रश्न उठाया गया है कि जब देश में राष्ट्रप्रेम की आंधी चल रही थी, तब राष्ट्रभाषा की इतनी उपेक्षा क्यों? और आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी हिंदी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पायी? जिस देश की राष्ट्रभाषा और राष्ट्रगीत में इतने झमेले हों तो क्या वहां सच्चा राष्ट्रवाद अक्षुण्ण रह सकता है?

‘मिलना एक शब्द -सहचर से’ शीर्षक में दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन के अवसर पर हिंदी के अनन्य शब्द -सहचर श्री अरविंद कुमार से बातचीत वर्णित है. अरविंद जी का शब्द- प्रेम अनूठा है, जिन्होंने अपने पूरे परिवार में शब्द-भागीरथी प्रवाहित कर सबको बहा लिया है. ‘सोने में सुहागा’ उनके पारिवारीजन भी तन-मन-धन से समर्पित हैं. अरविंद जी ने उत्तराधिकारी तैयार करने का भी एक महत्वपूर्ण कार्य कर लिया है जो कि बड़ा ही दुस्साध्य कार्य है. पूरा संवाद बहुत ही रोचक एवं प्रेरक है जहां दो शब्द-शिल्पियों का मनन, चिंतन एवं सर्जन दिख रहा है.

‘संस्कृति के धागे’ के अंतर्गत प्रथम निबंध ‘अंधेरे में इक दीया तो बालें’ है. त्योहार भारतीय संस्कृति की विशेषता हैं, प्रकाश पर्व दीपावली पर कुछ इसी परिप्रेक्ष्य में इस निबंध में लेखक ने प्रकाश डाला है. साहित्य समाज का दर्पण होता है और साहित्यकार उस दर्पण के सर्जक और संरक्षक, इसी भाव की अलख जगाते हुए दीपाधारित कविताओं से विमुख हो रहे, गीतकारों एवं कवियों को उन्मुख करने के उद्देश्य से कुछ कालजयी गीतों एवं कवियों का स्मरण कर किया है. जैसे घोर अंधकार में एक छोटे से दीपक की रोशनी आश जगाती है वैसे ही अपनी परम्पराओं को संजोने का छोटा सा भी प्रयास व्यर्थ नहीं जाता. अंत में अपने उद्देश्य को कुछ इस तरह लेखक ने व्यक्त किया है –
चलो कि टूटे हुए हुओं को जोड़ें
जमाने से रुठे हुओं को मोड़ें
अंधेरे में एक दिया तो बालें
हम आंधियों का गुरूर तोड़े
धरा पर लिख दें हवा से कह दें
है महंगी नफरत औ, प्यार सस्ता।

‘फागुन का रथ कोई रोके’! निबंध के माध्यम से वसंत ऋतु और फाल्गुन मास के उल्लास पर हावी हो रहे वैलेंटाइनी प्रेम पर लेखक ने चिंता व्यक्त की है. वहीं मधुमास एवं फागुन मास के प्रति कवियों की दीवानगी पर भी प्रकाश डाला है. वास्तव में मधुमास पौराणिक युग से भारतीयों के लिए प्रेम का सहचर रहा है. प्रेम और वसंत मानो एक दूसरे की पर्याय हैं, तभी तो अंत में आप यहां तक कह देते हैं कि- “प्रेम हर ऋतु को वासंती आभा में बदल देता है”.

‘मेरे युवा आम में नया बौर आया है’ नामक निबंध के माध्यम से जीवन में प्रेम की महत्ता पर विविध प्रसंगों, कथानकों के माध्यम से बहुविध प्रकाश डाला गया है. वर्तमान समय में प्रेम की प्रदर्शन पद्धति पर कटाक्ष भी किया गया है. इसके साथ ही यह भी स्वीकार किया है कि छल-कपट, विरह-व्यथा की अकथकथा के बावजूद भी आज के समाज में प्रेम की सर्वाधिक जरूरत है. लेखक की सलाह भी अपने पाठकों के लिए है कि -“जीवन में एक प्रेम का खाता अवश्य खोलें”.

अंतिम निबंध ‘तीन लोक से न्यारी काशी’ में निबंधकार ने बताया है कि बनारस की मस्ती में अभी सेंध नहीं लगी. इतिहास, खानपान, संस्कृति, आस्था, गंगा-गंगाजल, घाट, बाबा विश्वनाथ, मस्ती, मोक्ष, सुबह, साहित्य-साहित्यकार, तांत्रिक-अघोरी, संस्कृत, शिक्षा, संगीत, बनारसी साड़ी, कालीन, अर्थशास्त्र, लघु-कुटीर उद्योग इन सभी को दर्शाते हुए इनके स्वरूप को धुंधला करती समस्याओं को भी इंगित किया है. साथ ही इनके समृद्ध स्वरूप हेतु अपने मन की शुभेच्छा को अंत में युवा गीतकार अशोक सिंह के शब्दों का सहारा लेकर इस तरह से व्यक्त किया है कि- “एक तस्वीर ऐसी बने तो बना, जो बनारस बनारस बनारस बने”.

इस प्रकार हम देखते हैं कि ‘भाषा की खादी’ के सभी निबंधों को निबंधकार ने भाषा एवं संस्कृति जैसे दो महत्वपूर्ण तत्वों को मजबूत करने के उद्देश्य से निबद्ध किया है. विवरणात्मक एवं सर्जनात्मक शैली में लिखे गए निबंधों में एक ओर जहां शुद्ध संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग है तो वहीं दूसरी ओर सामान्य बोलचाल की भाषा के शब्दों से भी परहेज नहीं किया गया तथा अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग को भी स्थान मिला है. आपकी भाषा में लय है, प्रवाह है, भावों का उछाह है तथा वाक्य-विन्यास एवं शब्द-चयन की गरिमा का गौरव अपने चरम पर है. कुछ निबंध लम्बे अवश्य हो गए हैं पर मुझे लगता है, ऐसा करना विषयवस्तु के विस्तार के लिए लेखक की मजबूरी रही है. यह पुस्तक हिंदी प्रेमियों के लिए जितनी पठनीय है, उतनी ही उपयोगी शोधच्छात्रों के लिए भी है. सच्चे अर्थों में यह भाषा एवं संस्कृति के संरक्षण-संवर्धन की आवाज है.

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