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Jyoti Basu Birth Anniversary: बंगाल के लौह पुरुष क्यों कहे जाते हैं ज्योति बसु?

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Jyoti Basu Birth Anniversary: बंगाल के लौह पुरुष क्यों कहे जाते हैं ज्योति बसु?

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हाइलाइट्स

ज्योति बसु 23 साल तक लगातार पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे थे.
उनके कई कड़े फैसलों ने उन्हें बंगाल में बहुत लोकप्रिय बनाया था.
उनके कुछ फैसले दुस्साहसपूर्ण या विवादास्पद भी माने जाते हैं.

भारत में लंबे समय तक मुख्यमत्री बने रहने वाले नामों की सूची में ज्योति बसु एक प्रमुख नाम है जिनके नाम कई रिकॉर्ड हैं. पढ़ाई के दौरान ही कम्युनिस्म की ओर आकर्षित रहे और पेशे से बैरिस्टर रह चुके बसु दा को शुरू कॉलेज और इंग्लैंड में पढ़ाई के दौरान ही राजनीति में गहरी रुचि हो गई थी. बाद में उन्होंने देश में कम्युनिस्ट के अनुशासित सिपाही की तरह राजनीति की और 23 साल तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने रहे. एक समय उन्हें भारत का प्रधानमंत्री पद का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन उन्होंने मना कर दिया. उन्हें आज भी बंगाल का लौहपुरुष कहा जाता है.

इंग्लैंड में कानून की पढ़ाई के लिए
ज्योति दा के नाम से पुकारे जाने वाले ज्योतिरेंद्र बासु का जन्म कलकत्ता के बंगाली कायस्थ परिवार में 8 जुलाई 1914 को हुआ था. डॉक्टर पिता निशिकांत बसु और गृहणी मां हेमलता बसु की तीसरी और सबसे छोटी संतान के रूप में उनका बचपन बंगाल प्रांत के ढाका जिले के बार्दी में गुजरा, लेकिन स्कूली पढ़ाई कोलकाता में हुई. कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे 1935 में कानून की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड चले गए

वामपंथ की ओर आकर्षण
इंग्लैंड में ज्योति बसु के जीवनमें उल्लेखनीय बदलाव आए. वहीं कम्युनिस्ट पार्टी की ओर आकर्षित हुए और आजादी के ल़िए काम कर रहे संगठनों से भी जुड़े. 1940 में वे बैरिस्टर बन कर भारत लौटे, कलकत्ता हाईकोर्ट में वकील बने और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया से जुड़ने के बाद1946 में बंगाल की राजनीति में सक्रिय हो गए. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में शामिल रहे बसु 1977 में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे.

कुछ बड़ी उपलब्धियां
ज्योति बसु के नेतृत्व में ही सीपएम ने पश्चिम बंगाल में अपना आधार मजबूत किया जिसके दम पर वे 23 साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. उन्होंने प्रदेश के लिए ऐसी नीतियां अपनाई जिससे बंगाल की दुर्गति होने से बच गई जिसका कई विशेषज्ञ अनुमान लगा रहे थे. उनके शुरुआती कार्यकाल से ही प्रदेश का कृषि उत्पादन तेजी से बढ़ता गया. जहां कृषि वृद्धि 1970 के दशक में 0.6 फीसद थी, 1980 के दशक में बढ़कर 7 फीसद हो गई और पश्चिम बंगाल खाद्य आयात करने वाले प्रदेश से खाद्य निर्यात करने वाले प्रदेश बन गया.

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सरकार में आने के बाद से ही ज्योति बसु के शासन में तेजी से कृषि उत्पादन बढ़ गया था. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Wikimedia Commons)

नक्सवाद का खात्मा
1980 के दशक में पश्चिम बंगाल में ही नकस्लवाद का उदय हुआ था वह स्थायी रूप ले सकता था लेकिन ज्योति दा और उनकी सरकार का ही कमाल था कि उन्होंने उसे नलक्स प्रदेश नहीं बनने दिया. दूसरी ओर उन्होंने ऐसी व्यवस्था की कि हर गांव और शहर के लोग वामपंथ और बासु दा से जुड़ सके. नहीं तो आज बंगाल का हाल छत्तीसगढ़ की तरह होता जहां नक्सवलवाद बहुत गहरी पैठ बना गया था.

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उपलब्धियों की खास सूची
उनके ही कार्यकाल में भूमि सुधार, कृषि मजदूरों को न्यूनतम भत्ता निर्धारित होने, और त्रिस्तरीय पंचायती राज लागू करने जैसे बड़े साहसिक फैसले लिए गए जो आज भी उनकी उपलब्धि के तौर पर गिनाए जाते हैं. एक सख्त प्रशासक की छवि होने के बाद बी उनकी लोकप्रियता में भूमि सम्पत्ति में पुनर्वितरण करने के बाद बहुत ज्यादा इजाफा देखने को मिला क्योंकि जमीदारीं में धंसे हुए बंगाल के लिए यह असंभव लगता था.

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नक्सलवाद का खात्मा ज्योति बसु शासन की एक बहुत ही बड़ी उपलब्धि मानी जाती है. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Wikimedia Commons)

और कुछ आलोचनाएं भी
ज्योतदि बसु पर पर एक निर्मम शासक होने का भी आरोप लगता रहा. लेकिन उनके कार्यकाल की उद्योगों और शहरी विकास में भारी कमी के लिए आलोचना की जाती है. उनका एक सबसे विवादास्पद फैसला प्राथमिक स्कूलों से अंग्रेजी हटाने का भी माना जाता है.. बहुत से राजनैतिक पंडितों को मानना रहा था कि ज्योति दा हमेशा ही वनमैन शो रहे और उनमें काफी अक्खड़पन भी दिखाई देता था. कई बार तो वे पत्रकारों से बड़ी बेरुखी से पेश आते दिखते थे.

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साल 2000 में उन्होंने बंगाल के मुख्यमंत्री पद अपने डिप्टी बुद्धदेब भट्टाचार्य को सौंप दिया बाद में उनकी सेहत गिरती गई और 2008 में उन्हें पार्टी के पोलितब्यूरो से भी हटा दिया गया लेकिन वे मृत्यु पर्यंत पार्टी की सेंट्रल कमेटी के विशेष आमंत्रित सदस्य बने रहे.  17 जनवरी 2010 में उनका निधन हो गया था. जो भी चाहे लोकप्रिय फैसले हों या फिर विवाद पैदा करने वाले इसमें कोई शक नहीं कि ज्योति दा के फैसले बहुत कड़े फैसले थे. उनके इसी स्वरूप की वजह से वे बंगाल के लौह पुरुष के तौर पर याद किए जाते हैं.

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