ग्वालियर का सिंधिया घराना यहां की राजनीति में लंबे समय तक प्रभावी रहा है. इस बार भी इस पूर्व राजघराने के कर्णधार ज्योतिरादित्य सिंधिया अपनी परंपरागत शक्ति को समेटने में लगे हैं. लेकिन इस बीच चंबल और पार्वती नदियों में बहुत पानी बह गया है. अगर पुरानी स्थिति को याद करें तो ये पूर्व राजघराना किसी न किसी रूप में राजनीतिक रूप से ताकतवर रहा है. आजादी के ठीक बाद की बात की जाये तो उस वक्त इस परिवार के मुखिया जीवाजी राव हिंदू महासभा और जनसंघ की ओर हुआ करते थे. लेकिन स्थितियां बदलीं और राजमाता के उपनाम से चर्चित विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस के साथ आ गईं. 1957 में लोकसभा चुनाव जीतने के साथ उनकी स्थिति 67 तक ठीक ठाक रही. लेकिन प्रीवी पर्स खत्म किए जाने के बाद 67 में वे स्वतंत्र पार्टी से चुनाव लड़ीं और फिर जनसंघ की ओर चली गईं. जनसंघ में उन्हें शीर्ष नेतृत्व से सम्मान मिला और अंतिम समय तक उन्हें जनसंघ औऱ बाद में बीजेपी में बड़ी ताकत के तौर पर देखा माना जाता रहा.
कांग्रेस की राजनीति वाया माधवराव
इसी विजयाराजे सिंधिया के बेटे माधवराव घूम-फिर कर कांग्रेस में शामिल हो गए. कांग्रेस नेतृत्व ने भी उनका बाहें फैला कर स्वागत किया. उनकी जगह कांग्रेस के चोटी के नेतृत्व में बनी. स्थिति ये हो गई कि ग्वालियर चंबल इलाके में कांग्रेस की राजनीति वाया माधवराव ही चलने लगी. ये भी ध्यान रखने वाली बात है कि यहां तक आते आते कांग्रेस पार्टी के बहुत से वे नेता किनारे हो चुके थे, जिनके पास कांग्रेस की परंपरा की शक्ति थी. इस कारण भी सिंधिया बहुत ताकतवर क्षत्रप के तौर पर केंद्र में उभरते गए. अब स्थिति ये बन गई कि चाहे किसी को कांग्रेस पार्टी की राजनीति करनी हो या बीजेपी की, दोनों तरफ से राजमहल का समर्थन चाहिए होता था. ये अलग बात थी कि मां-बेटे में तना-तनी कायम रही. लेकिन सार्वजनिक तौर पर दोनों ने मर्यादा कायम रखी थी.
2018 की राजनीति और 2020 का तख्तापलट
माधवराव की हवाई दुर्घटना में मृत्यु के बाद उनके पुत्र ज्योतिरादित्य ने उनकी राजनीतिक विरासत संभाली. 2002 से लेकर 2014 तक वे गुणा सीट से लोकसभा का चुनाव जीतते रहे. 2018 विधान सभा चुनाव में फिर उनकी भूमिका कांग्रेस के लिहाज से ठीक-ठाक रही. ग्वालियर चंबल इलाके की विधान सभा की 34 में 26 सीटें कांग्रेस के हिस्से में आईं. ज्योतिरादित्य और राहुल गांधी में नजदीकी भी देखी जा रही थी. कांग्रेस युवाओं को नेतृत्व देने की बात भी कर रही थी, लेकिन कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के पके हुए नेतृत्व के आगे ये सफलता भी सिंधिया को मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं दिला सकी. किसानों का सवाल उठाते हुए उन्होंने पार्टी से बगावत की और कमलनाथ की सरकार गिर गई. ये अलग चर्चा की बात है कि इस तख्तापलट में बीजेपी के रणनीतिकार की सलाह और समर्थन अधिक प्रभावी था या ज्योतिरादित्य की अपनी रणनीति. बहरहाल, अभी उस दौर की सारी बातें लोगों की स्मृति में होंगी ही. अब ज्योतिरादित्य बीजेपी के ताकतवर नेता बन चुके हैं. इसे लोगों ने शनिवार को भी देखा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सिंधिया स्कूल के कार्यक्रम में न सिर्फ शामिल हुए, बल्कि गुजरात और सिंधिया परिवार के रिश्तों का जिक्र भी अपने भाषण में किया.
मध्य प्रदेश बीजेपी में सिंधिया
मध्य प्रदेश बीजेपी वैसे तो सिंधिया को अपना मान रही है, लेकिन संघ और भाजपा के पारंपरिक नेता उन्हें उसी तरह कद्दावर और अपना गाइड स्वीकार कर रहे हैं, ये साफ नहीं है. खासकर जिस तरह से इस बार के टिकट बांटे गए हैं, वो प्रक्रिया तो इसकी गवाही नहीं दे रहा है. वरिष्ठ पत्रकार और लेखक रशीद किदवई कहते हैं- ‘सिंधिया की या कहें कि जय विलास-पैलेस की वो स्थिति नहीं दिखती, जो विजयाराजे और माधवराव सिंधिया के दौर में थी.’ उनका कहना है कि इसके लिए जरूरी है कि 2003 के चुनावों को याद किया जाये. उस दौर में उमा भारती के साथ मिल कर नरेंद्र सिंह तोमर ने काम किया था. केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर इस बार मैदान में हैं. रशीद किदवई कहते हैं- ‘बुरे दौर में बीजेपी को उबारने वाले तोमर क्रेडिट लेने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे. केंद्रीय मंत्री के तौर पर उनका कद पार्टी में बढ़ा ही है.’
ग्वालियर की सीटों की बात
सिंधिया को पूरे ग्वालियर चंबल संभाग की रणनीति तो तैयार करनी ही है, उन्हें अपने शहर से भी पार्टी उम्मीदवारों को जिताना है. यहां ग्वालियर पूर्व सीट से उनके साथ कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में जाने वाले मुन्ना लाल गोयल को पार्टी ने इस बार टिकट नहीं दिया है. हो सकता है कि सिंधिया समर्थक इस तर्क पर संतोष कर लें कि उनके परिवार से जुड़ी माया सिंह को टिकट मिल गया है. जबकि ये हकीकत है कि गोयल समर्थक टिकट के लिए उनके महल तक पहुंच गए थे और नारेबाजी कर रहे थे.
ग्वालियर दक्षिण की बात की जाये तो यहां से पिछली बार चुनाव हारे नारायण कुशवाहा को टिकट मिल गया है, लेकिन पिछली बार जिस समीक्षा गुप्ता ने बीजेपी से बगावत कर 30 हजार वोट हासिल किए थे, उन्हें टिकट नहीं मिला है. जबकि कांग्रेस छोड़ बीजेपी में आए अनूप मिश्र भी टिकट के दावेदार थे. ये अटल बिहारी वाजपेयी के रिश्तेदार हैं. टिकट न मिलने पर उन्होंने सोशल मीडिया पर वाजपेयी की कविता हार नहीं मानूंगा.. रार नहीं ठानूंगा… कविता लिख कर अपनी रणनीति साफ कर दी है. इस सीट पर पिछला चुनाव कांग्रेस के प्रवीण पाठक ने जीता था. ये सीट जिताना भी सिंधिया के लिए जरूरी है.
डाबरा सीट से इमरती देवी को बीजेपी टिकट मिला है, लेकिन वे पिछले उपचुनाव में बीजेपी से कांग्रेस में जाने वाले सुरेश राजे से चुनाव हार गई थीं. लिहाजा यहां भी पार्टी को और जोर लगाना पड़ सकता है.
भीतरवार को कांग्रेस की सीट के तौर पर जाना जाता है. यहां से कांग्रेस के पूर्व मंत्री लाखन सिंह मैदान में हैं, तो उनके सामने बीजेपी ने मोहन सिंह राठौर को टिकट दिया है. इस सीट को जीतने लिए भी बीजेपी को अतिरिक्त जोर लगाना पड़ेगा. ग्वालियर ग्रामीण की बात की जाये तो इस सीट से बीजेपी के भरत सिंह कुशवाहा मैदान में हैं. भरत सिंह ने पिछले चुनाव में बहुत मामूली अंतर से साहिब सिंह गुर्जर को हराया था. साहिब सिंह कांग्रेस से टिकट मांग रहे थे, लेकिन यहां से कांग्रेस ने मदन कुशवाहा को टिकट दिया. ये भी कहा जाता है कि सिंधिया ने मदन कुशवाहा को टिकट दिलाने में मदद की. बहरहाल, साहिब सिंह बीएसपी से लड़े और भरत सिंह को कड़ी चुनौती दी थी. इस बार कांग्रेस ने इसी साहिब सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया है. ग्वालियर सीट से ऊर्जा मंत्री प्रद्युम्न सिंह बीजेपी से लड़ रहे हैं तो कांग्रेस ने अपने पुराने प्रत्याशी सुनील शर्मा पर ही भरोसा जताया है.
.
Tags: BJP, Congress, Jyotiraditya Sindhiya, MP Assembly Elections
FIRST PUBLISHED : October 23, 2023, 14:12 IST